काम उल्लास का सृजनात्‍मक उपयोग

काम उल्लास का सृजनात्‍मक उपयोग

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सृष्टि का संचरण किस क्रिया से होता है, इस संबंध में पदार्थ विज्ञान अणु को प्रथम इकाई मानता है। उनका कहना है कि अणु के अंतर्गत नाभिक तथा दूसरे उपअणु अपना क्रिया-कलाप जिस निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार संचरित करते हैं, उसी में विविध हलचलें उत्पन्न होती हैं और वस्तुओं के उद्भव से लेकर शक्ति, उपशक्तियों की विधा विभिन्न क्रम-विक्रमों के आधार पर चल पड़ती हैं। यह सत्तर वर्ष पुरानी मान्यता है। अब विज्ञान की आधुनिकतम शोधों ने बताया है कि अणु आरंभ नहीं परिणति है। सृष्टि का मूल एक चेतना है, जिसे पदार्थ और विचार की द्विधा से सुसंपन्न कहा जा सकता है। इस चेतना को वे प्रकृति कहते हैं। प्रकृति के स्फुल्लिंग ही परमाणु माने लाते हैं और कहा जाता है कि उन्हीं की गतिविधियों पर सृष्टि का उद्भव, विकास और विनाश अवलंबित है।
अध्यात्म विज्ञान इसकी बहुत अधिक गहराई तक जाता है और वह सृष्टि का आरंभ प्रकृति और पुरुष के सम्मिश्रण से मानता है। वैज्ञानिक शब्दों में प्रकृति को रयि और पुरुष को प्राण भी कहा जाता है। इसी को शक्ति और शिव कहते हैं। वेदों में इसे सोम और अग्नि कहा गया है। और भी अधिक स्पष्ट समझना हो तो ऋण (निगेटिव) और धन (पोजिटिव) विद्युत धाराएं कह सकते हैं। विद्युत विज्ञान के ज्ञाता जानते हैं कि प्रवाह (करेंट) के अंतराल में उपरोक्त दोनों धाराओं का मिलन-बिछुड़न होता रहता है। यह मिलन-बिछुड़न की क्रिया न हो तो बिजली का उद्भव ही संभव न हो सकेगा।
प्रकृति और पुरुष के बारे में सांख्यकार की उक्ति है कि वे निरंतर मिलन-बिछुड़न के संघर्ष अपकर्ष की प्रक्रिया संचरित करते हैं। फलस्वरूप परा और अपरा प्रकृति के नाम से पुकारा जाने वाला वह सृष्टि वैभव आरंभ हो जाता है, जिसका प्रथम परिचय हम अणु प्रक्रिया द्वारा प्राप्त करते हैं। क्लॉक घड़ियों में पेंडुलम लगा रहता है और गतिचक्र के नियमानुसार एक बार हिला देने पर वह स्वयमेव हिलते रहने की क्रिया करने लगता है और घड़ी की मशीन चलने लगती है। प्रकृति और पुरुष निरंतर उसी प्रकार का मिलन-बिछुड़न क्रम संचरित करते हैं और सृष्टि का क्रिया-कलाप दीवार घड़ी की पेंडुलम प्रक्रिया की तरह चल पड़ता है।
इस सूक्ष्म तत्त्वज्ञान, एक अंतर्विज्ञान को और भी अधिक स्पष्ट समझना हो तो उसे नर-नारी का रूपक दिया जा सकता है। ब्रह्म को नर, प्रकृति को नारी का प्रतीक-प्रतिनिधि माना जा सकता है। सृष्टि का उद्भव, विकास और विघठन करने वाली शक्ति त्रिवेणी को ब्रह्मा, विष्णु, महेश के नाम से पुकारते हैं। यों तत्त्व एक ही है, पर उसके क्रिया-कलाप की भिन्नता को अधिक स्पष्टता के साथ समझने-समझाने के लिए तीन देवताओं का नाम दिया गया है। वे तीनों ही सपत्नीक हैं। ब्रह्मा की पत्नी का नाम सावित्री, विष्णु की लक्ष्मी और शिव की उमा प्रख्यात हैं। इस अलंकार के पीछे इसी तथ्य का प्रतिपादन है कि सृष्टि का उद्भव अकेले ब्रह्म से नहीं वरन प्रकृति के संयोग से होता है। नर और नारी दोनों मिलकर ही एक व्यवस्थित शक्ति का रूप धारण करते हैं, जब तक यह मिलन न हो, गति एवं चेतना उत्पन्न ही न होगी और सब कुछ शून्य, निष्प्राण की तरह पड़ा रहेगा। नृतत्त्व विज्ञान की दृष्टि से पति-पत्नी का मिलना सृष्टि का स्थूल कारण है। संयोग या संभोग से प्रजा उत्पन्न होती है। प्रजनन प्रक्रिया में मिलन-बिछुड़न क्रम की एक रगड़-संघर्ष जैसी हलचल चलती है। इससे सृष्टि के अति सूक्ष्म क्रिया-कलाप का अनुमान लगाया जा सकता है। शरीर का जीवन इसी क्रिया-कलाप पर जीवित है। मांसपेशियां सिकुड़ती-फैलती हैं और जीवन शुरू हो जाता है। सांस का संचरण, दिल की धड़कन, नाड़ियों का रक्त संचार, कोशिकाओं का क्रिया-कलाप इस मिलन-बिछुड़न की आकुंचन-प्रकुंचन की क्रिया पर ही निर्भर है। जिस क्षण यह क्रम टूटा उसी क्षण मृत्यु की विभीषिका सामने आ खड़ी होती है। यह तथ्य मात्र देह के जीवन का नहीं, संपूर्ण सृष्टि का है। समुद्र में उठने वाले ज्वार-भाटे की तरह यहां सब कुछ उस संयोग-वियोग पर हो रहा है, जिसे अध्यात्म की भाषा में प्रकृति और पुरुष अथवा रयि और प्राण कहते हैं।
मनोविज्ञान शास्त्री डॉ. फ्रायड ने मानव जीवन के विकास की सबसे महती आवश्यकता ‘काम’ मानी है। जिसे वह नर और नारी के मिलन से विकसित होने वाली मानता है। चूंकि अपने देश में ‘काम’ शब्द प्रजनन क्रिया एवं संयोग के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा है, इसलिए वह अश्लील जैसा बन गया है और उसे हेय दृष्टि से देखा जाता है। इसलिए फ्रायड की उपरोक्त मान्यता अपने गले नहीं उतरती और न रुचती है। पर यदि उसे वैज्ञानिक परिभाषा के आधार पर सोचें और शब्दों के प्रचलित अर्थों को कुछ समय के लिए उठाकर एक ओर रख दें तो इस निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ेगा कि सृष्टि के मूल कारण प्रकृति-पुरुष के मिलन से लेकर दांपत्य जीवन बसाने तक चली आ रही काम प्रक्रिया विश्व की एक ऐसी आवश्यकता है जिसे अस्वीकार करने में केवल आत्म वंचना ही हो सकती है।
नर-नारी का मिलना जितना ही प्रतिबंधित किया जाएगा उतनी ही विकृतियां उत्पन्न होंगी। सच तो यह है कि अनावश्यक प्रतिबंधों ने ही हेय काम प्रवृत्ति को भड़काया है। बच्चा मां का दूध पीता है, उसके स्तन स्पर्श से कुछ भी अश्लीलता प्रतीत नहीं होती है और न लज्जा जैसी कोई बुराई दीखती है। आदिवासी क्षेत्रों में, पिछड़े कबीलों में, स्त्रियां प्रायः छाती नहीं ढकतीं। वहां किसी को इसमें अश्लीलता और काम विकार भड़काने वाली कोई बात ही प्रतीत नहीं होती। यह मानसिक कुत्साएं और मूढ़ मान्यताएं ही हैं, जिन्होंने नारी के स्तन जैसे परम पवित्र और अभिवंदनीय अंग को विकारों का प्रतीक बनाकर रख दिया। यह विचार विकृति का दोष ही है कि अति स्वाभाविक और अति सामान्य नारी को एक कुत्सा गढ़कर खड़ी कर दी है। काम का विकृत स्वरूप जिसने मनुष्य की एक प्रकृति प्रदत्त दिव्य सामर्थ्य को कुत्सित बनाकर रख दिया, वस्तुतः हमारी बौद्धिक भ्रष्टता ही है।
बेटी और भगिनी, माता और पिता, भाई और पुत्र के साथ विनोद और उल्लास भरा संपर्क अहितकर नहीं, हितकारक ही हो सकता है, उसी प्रकार नर-नारी के बीच खड़ी कर दी गई एक अवांछनीय विभेद की दीवार यदि गिरा दी जाए तो इससे अहित क्यों होगा? दांपत्य जीवन की बात ही लें, उसमें से कुत्साएं हटा दी जाएं और परस्पर सहयोग एवं उल्लास अभिवर्द्धन वाले अंश को प्रखर बना दिया जाए तो विवाह उभय पक्ष की अपूर्णता दूर करके एक अभिनव पूर्णता का ही सृजन करेगा। इस दिशा में भगवान कृष्ण ने एक क्रांतिकारी शुभारंभ किया था। उन दिनों अबोध बालकों और बालिकाओं का सहचरत्व भी प्रतिबंधित था। लोगों ने एक काल्पनिक विभीषिका गढ़कर खड़ी कर ली थी कि नर-नारी चाहे वे किसी भी आयु के, किसी भी मनःस्थिति के क्यों न हों, मिलेंगे तो केवल अनर्थ ही होगा। इस मान्यता ने जनसाधारण की मनोभूमि तमसाच्छन्न कर रखी थी और छोटे बच्चे भी परस्पर इसलिए हंस-बोल नहीं सकते थे, खेल-कूद नहीं सकते थे, क्योंकि वे लड़के और लड़की के भेद से प्रतिबंधित थे। कृष्ण भगवान ने इस कुंठा को अवांछनीय बनाया और उन्होंने लड़के लड़कियों को साथ हंसने-खेलने के लिए आमंत्रित करते हुए रासलीला जैसे विनोद आयोजन खड़े कर दिए। उन्हें अवांछनीय लगा कि मनुष्य, मनुष्य के बीच इसलिए दीवार खड़ी कर दी जाए कि एक वर्ग को नारी कहा जाता है और उसके मूंछें नहीं आतीं। दूसरे वर्ग को इसलिए अस्पर्श घोषित किया जाए कि वह पुरुष है और उसकी मूंछें आती हैं। प्रजनन अवयवों की बनावट में प्रकृति प्रदत्त अंतर सृष्टि की शोभा विशेषता है। इतने नन्हे से कारण को लेकर मनुष्य जाति के दो परस्पर पूरक पक्षों को यह मानकर अलग कर दिया जाए कि वे जब मिलेंगे तब अनर्थ ही सोचेंगे, अनर्थ ही करेंगे। यह मनुष्य की मनुष्य के प्रति अविश्वसनीयता की अति है। प्रतिबंधित करके किसी को भी सदाचरण के लिए विवश नहीं किया जा सकता। जेल में कैदी हथकड़ी, बेड़ी पहने हुए भी बड़े-बड़े अनर्थ करते हैं। 
बात सोचने की यह है कि यदि मनुष्य की सज्जनता—ईमानदारी और प्रामाणिकता को विकसित न किया गया हो तो कड़े से कड़े प्रतिबंध आदमी की बुद्धि चातुरी को चुनौती नहीं दें सकते। वह हर कानून और हर प्रतिबंध के रहते हुए भी चाहे जो कर गुजर सकता है। मानवीय चरित्रनिष्ठा उनकी श्रद्धा, विवेकशीलता और दूरदर्शिता तथा आदर्शवादिता को विकसित करके ही परिपक्व करनी होगी। अन्यथा प्रतिबंध कड़े करते जाने में परस्पर सहयोग से उपलब्ध हो सकने वाले अगणित भौतिक लाभों और असीम आत्मिक उत्कर्षों से वंचित रहकर अपार हानि का ही सामना करना पड़ेगा और हम निरंतर पिछड़ते ही चले जाएंगे।
आध्यात्मिक काम विज्ञान नर-नारी के निर्मल सामीप्य का समर्थन करता है। दांपत्य जीवन में उसे इंद्रिय तृप्ति और काम-क्रीड़ा द्वारा उत्पन्न होने वाले हर्षोल्लास की परिधि तक बढ़ाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त वह सौम्य सामीप्य अप्रतिबंधित रहना चाहिए। जिस प्रकार दो नर या दो नारी चाहे वे किसी वंश के हों, निर्वाध रूप से हंस-बोल सकते हैं और स्नेह सामीप्य बढ़ा सकते हैं, और उससे कुछ भी आशंका नहीं की जाती, इसी प्रकार नर-नारी का परस्पर व्यवहार भी निष्कलंक रखा जा सकना अति सरल है। इस सौम्य सरलता को प्रतिबंधित नहीं किया जाना चाहिए। प्रतिबंधपरक प्रयोग पिछले बहुत दिनों से चले आ रहे हैं और उनके निष्कर्षों ने उस मान्यता की निरर्थकता ही सिद्ध की है। परदे की प्रथा चलाकर हमने क्या पाया? केवल इतना भर हुआ कि नवागंतुक वधुएं अपनी ससुराल का जो अविच्छिन्न स्नेह पा सकती थीं, अनुभवी गुरुजनों का परामर्श प्राप्त कर सकती थीं, अपनी कठिनाइयों की चर्चा करके समाधान पा सकती थीं, उससे वंचित रह गईं। उन्हें ससुराल का वातावरण पितृगृह से उतना भिन्न और विपरीत लगा, जितना स्वच्छंद विचरण करने वाले पक्षी की आंखें बंद करके चारों ओर से परदा लगाकर रखे गए पिंजरे में बंद किए जाने की स्थिति में हो सकता है। कई भावुक लड़कियां तो इस जमीन-आसमान जैसे परिवर्तन से बुरी तरह घबरा जाती हैं और उन्हें हिस्टीरिया सरीखे भय, भूत-प्रेत, घबराहट जैसी अनेकों मानसिक बीमारियां उठ खड़ी होती हैं। ऐसी स्थिति में हीनता की भावना बढ़ना नितांत स्वाभाविक है। सब लोग हंसी-खुशी से घर-बाहर घूमें और हंसें-बोलें, पर उस वयस्क नारी की, जिसकी भावुकता नए वातावरण में बहुत ही उभरती है और नई परिस्थितियों में ढलने-बदलने के लिए उस परिवार के भारी मानसिक सहयोग की आवश्यकता पड़ती है, यदि मुंह ढककर एक कौने में बैठे हुए प्रतिबंधित कैदी की स्थिति में पटक दिया जाए तो निस्संदेह उसका मानसिक प्रभाव घुटन, कुंठा, अरुचि, विवशता, ज्यादती के रूप में ही होगा। या तो विद्रोह भड़केगा या अंतःकरण अपना अहं खोकर सर्वथा दीन-हीन, पराधीन हो जाएगा। दोनों ही मनःस्थितियां अवांछनीय हैं। इससे नारी की भाव संपदाओं का, सृजनात्मक विभूतियों का नाश हो सकता है। हुआ भी है। परदा प्रथा ने नव वधुओं के साथ सचमुच बहुत अनीति बरती और ज्यादती की है और उसका परिणाम समस्त समाज को भोगना पड़ा है।
यह अस्वाभाविक प्रक्रिया एक कदम भी जीवित न रह सकी। परदे का उद्देश्य रत्ती भर भी सफल न हुआ। उसका उद्देश्य नर और नारी के बीच पारस्परिक आकर्षण को रोकना था। वह कहां पूरा हुआ? नव वधू केवल ससुराल में सास-ससुर, जेठ आदि गुरुजनों से परदा करती है। जो वस्तुतः उसे बेटी जैसी ही समझ सकते हैं। जिनसे खतरा है, उनके तई तो परदा फिर भी खुला रह सकता है। यदि व्यभिचार की रोकथाम की समस्या है तो उसकी सबसे अधिक गुंजाइश पितृगृह के स्वच्छंद वातावरण में रहती है। ससुराल में भी बाहर के लोगों से हाट-बाजार में, मेले-ठेले में, किसी से भी मुंह खोलकर बातें की जा सकती हैं। ससुराल में भी यदि उस आकर्षण की गुंजाइश है तो देवर से है, जो पति की अपेक्षा अधिक मृदुल लग सकता है। उससे परदा नहीं, बुजुर्गों से पर्दा, इस मूर्खता को किसी भी तथ्य के आधार पर समर्थित नहीं किया जा सकता, जो आजकल चल रहा है।
परदे की प्रथा उन विदेशी शासकों की देन है जो दूसरों की बहन-बेटियों को केवल पाप-अनाचार की दृष्टि से ही देखते और उनका अपहरण करने में नहीं चूकते थे। उन दिनों परदे का कुछ सामयिक उपयोग हो भी सकता था। अरब के रेगिस्तानों में जहां रेतीली आंधियां चलती रहती थीं। आंख, नाक, कान, मुंह आदि को कूड़े-कचरे से बचाने के लिए पर्दे का प्रचलन कुछ समझ में भी आता है। पर भारत की वर्तमान परिस्थिति में घूंघट-परदे की गुंजाइश है, इसका कोई कारण समझ में नहीं आता। यौवन कोई अभिशाप नहीं, नारी का शरीर मिलना कोई पाप नहीं है। इस ईश्वरीय अनुदान को निष्ठुरतापूर्वक प्रतिबंधित किया जाएगा तो उसकी प्रतिक्रिया अवांछनीय और अनुपयुक्त ही होगी। परदे ने नारी का मनोबल गिराया और उसकी अगणित क्षमताओं को कुचल कर फेंक दिया। उससे इसकी उपयोगिता में कमी आई और स्थिति यहां तक जा पहुंची कि लड़कियों का विवाह करना हो तो लड़के वाले रिश्वत के रूप में दहेज, नकदी, जेवर और गुलामी जैसी दीनता मांगते हैं। यह स्थिति तभी बनी जब नारी का मूल्य बेहिसाब गिर गया। यदि उसका उचित मूल्य स्थिर रखा गया होता, तो बिना कीमत अपना शरीर, मन और सहयोग देने के लिए महान आत्मिक अनुदान देने वाली वधू के ससुराल वाले उसके चरण धो-धोकर पीते। पशु भी कीमत देकर खरीदा जाता है। अनेक गुणों से विभूषित वधू घर में आवे तो उसे लेने के लिये उपेक्षा दिखाई जाए और रिश्वत मांगी जाए, इस दयनीय स्थिति के पीछे नारी का वह अवमूल्यन झांक रहा है, जो परदे जैसे प्रतिबंधों ने अवांछनीय और अनुचित रूप से प्रस्तुत कर दिया।
अध्यात्म तत्वज्ञान की मान्यताएं नर-नारी के बीच की उन अवांछनीय दीवारों को तोड़ना चाहती हैं जो मनुष्य को मनुष्य से पृथक करती हैं और एक दूसरे का सहयोग करने में अस्वाभाविक, अप्राकृतिक प्रतिबंध उत्पन्न करती हैं। यौन विकृतियों और व्यभिचार के खतरों को रोकने के दूसरे तरीके हैं। एकदूसरे से सर्वथा पृथक रखने वाली प्रक्रिया इस प्रयोजन को पूरा नहीं करती। आधी जनसंख्या को इन प्रतिबंधों के नाम पर अपंग बनाकर हम अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मार रहे हैं। सारी समस्या का एकमात्र कारण वह बौद्धिक भ्रष्टाचार है, जिसने नारी को कामिनी और रमणी का अतिरंजित चित्रण करके उसे एक भयावह चुड़ैल के रूप में प्रस्तुत कर दिया। तथाकथित कलाकारों, चित्रकारों, मूर्तिकारों, कवियों, गायकों, साहित्यकारों, अभिनेताओं ने नारी का कुत्सित अंश ही उभारा, उसे यौन आकर्षण का प्रतीक मात्र बनाया और उस भ्रांति को अधिकाधिक सघन करने में अपनी सारी कलाकारिता का अंत कर दिया।
नर और नारी के बीच पाए जाने वाले प्राण और रयि, अग्नि और सोम-स्वाहा और स्वधा तत्त्वों का महत्त्व सामान्य नहीं असामान्य है। सृजन और उद्भव की, उत्कर्ष और आह्लाद की असीम संभावनाएं उसमें भरी पड़ी हैं, प्रजा उत्पादन तो उस मिलन का बहुत ही सूक्ष्म सा, स्थूल और अति तुच्छ परिणाम है। इस सृष्टि का मूल कारण और चेतना के आदि स्रोत इन द्विधा संस्करण और संचरण का ठीक तरह से मूल्यांकन किया जाना चाहिए और इस तथ्य पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि इनका सदुपयोग किस प्रकार विश्व कल्याण की सर्वतोमुखी प्रगति में सहायक हो सकता है और उनका दुरुपयोग मानव जाति के शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य को किस प्रकार क्षीण, विकृत करके विनाश के गर्त में धकेलने के लिए दुर्दांत दैत्य की तरह सर्वग्रासी संकट उत्पन्न कर सकता है। अतएव उचित यही है कि हम आचकरण में मर्यादा को, संयम को सर्वाधिक और समुचित महत्त्व दें।
सारा जगत एक व्यवस्था में बंधा है। सूर्य, चंद्र, नक्षत्र आदि कोई अपनी मर्यादा नहीं छोड़ते। पृथ्वी पर भी वैसी ही व्यवस्था है। आग में हाथ देने पर जलता ही है। पानी को कहीं भी रखें अपना तल खोज लेता है। कोई वस्तु ऊपर उछाली जाए तो वह नीचे गिरेगी ही।
मनुष्य भी इस प्रकार की मर्यादाओं में बंधा है। उन्हें तोड़ते ही उसे दंड मिलता है। उसे प्रकृति की व्यवस्थाओं के साथ चलना पड़ता है। भोजन, वेशभूषा रहन-सहन आदि इन सबमें भी प्रकृति हस्तक्षेप करती है। गर्म प्रदेश का रहने वाला यदि ऊनी वस्त्र पहने फिरे तो स्वास्थ्य की हानि उठाएगा। प्रकृति की इन व्यवस्थाओं के अनुरूप जीवनक्रम अपनाने पर ही स्वास्थ्य संवर्द्धन हो सकता है।
आंख, नाक, कान, जीभ तथा जननेंद्रिय, ये पांच ज्ञानेंद्रियां हैं। इनका संयम आवश्यक है। इनका संबंध मन तथा मस्तिष्क से होता है। इन पांचों में से दो इंद्रियां ऐसी हैं जो मन को अपनी ओर खींचती हैं तथा उसे अपना दास बनाने का प्रयास करती हैं। ये हैं स्वादेंद्रिय तथा जननेंद्रिय। इन दोनों के संयमित रखना स्वास्थ्य संवर्द्धन के लिए अनिवार्य है।
जीभ तथा भोगेंद्रिय पर अंकुश नहीं रखा जाए, तो मनुष्य का स्वास्थ्य ही चौपट नहीं होता वरन् इनका असंयम मनुष्य को खोखला बना देता है। प्रवृति के अन्य प्राणी इन दोनों पर पूरा नियंत्रण रखते व स्वस्थ रहते हैं। मनुष्य को भी इन पर पूरा नियंत्रण रखना ही चाहिए।
स्त्री-पुरुष का निर्माण ईश्वर ने एक-दूसरे के सहयोगी के रूप में किया है। संतानोत्पादन भी उनका एक अनिवार्य कृत्य है। देश, काल तथा परिस्थितियों के अनुसार जितनी संतान उत्पन्न करनी उपयुक्त हो उतनी करनी चाहिए। संतानोत्पादन के अतिरिक्त पशु प्रवृत्तियों के वशीभूत हो काम सेवन में अमर्यादित रहने वाले अपने पांवों पर कुल्हाड़ी मारते हैं।
आज के समय को देखते हुए संतानोत्पादन भी सीमित ही होना चाहिए। अधिक संतान उत्पन्न करके स्वास्थ्य, समय तथा देश का भविष्य अंधकारमय करना है। अधिक संतानों का न तो सही लालन-पालन हो सकता है न उनकी शिक्षा-दीक्षा हो सकती है। दिन-रात उन्हीं की चिंता में घुलते रहकर स्वास्थ्य का नाश हो जाता है। असमय ही मृत्यु का ग्रास बनना पड़ता है। असंयम की इतनी भारी कीमत चुकानी पड़ती है कि उस व्यक्ति की दशा एक बैल सी हो जाती है जो निरंतर गृहस्थी के जुए में फंसा रहता है। वह न स्वयं कुछ पाता है, न दूसरों को कुछ दे सकता है।
धर्म-ग्रंथों में ब्रह्मचर्य पर बहुत जोर दिया गया है। सत्य भी है वीर्य रक्त से भी महत्त्वपूर्ण होता है। रक्त की कमी हो जाने पर स्वास्थ्य स्थिर नहीं रह सकता। कोई रोग आकर घेर लेते हैं तथा मृत्यु तक हो जाती है। रक्त की अधिकता पर स्वास्थ्य उत्तम होने लगता है। वीर्य रक्त से सौ गुना महत्वपूर्ण होता है। इसे प्राण-शक्ति का भंडार भी कहा जाए तो अनुपयुक्त नहीं होगा। इस ब्रह्म तत्त्व के विनाश करके स्वस्थ होने के सपने देखना व्यर्थ होगा।
यह ओज शक्ति एक आशा बनकर चमकती है। इससे शारीरिक तथा आत्मिक शक्ति बढ़ती है। मस्तिष्क की शक्ति का विकास होता है। मन की शांति बढ़ती है। दीर्घायु होने के लिए ब्रह्मचर्य पालन एक सरल-सुगम मार्ग है। इस ओज शक्ति का भंडार जितना विशाल होता है उतना ही मनुष्य स्वस्थ तथा शक्तिवान बनता है।
प्राचीन भारतीय नागरिक इसके महत्त्व से परिचित थे। वे ब्रह्मचर्य का पालन करते थे। हनुमान, भीष्म, लक्ष्मण आदि की शक्तियों का प्रमुख स्रोत यही था। शुद्ध वायु, शुद्ध जल, संपूर्ण भोजन, व्यायाम आदि से स्वास्थ्य बढ़ता है। किंतु ब्रह्मचर्य इन सबसे महत्त्वपूर्ण है। यह जीवनी शक्ति का संग्रह है।
जीभ पर नियंत्रण नहीं रहने का भी यही दुष्परिणाम होता है। धन व स्वास्थ्य दोनों की हानि होती है। चित निरंतर स्वाद का ही चिंतन करता रहता है। एक ही ओर चित्त लगे रहने से दूसरे कामों से मनोयोग हट जाता है, जीवन में असफलता ही हाथ लगती है।
यदि जिह्वा पर सीधा नियंत्रण करने में कोई अपने आपको असमर्थ पाता है तो उसका उपचार अस्वाद है। जीभ अपने स्वाद के लिए जिन वस्तुओं की मांग करती है उन्हें अलग-अलग खिलाया जाए। यही प्रयोग स्वाद के वश हो आवश्यकता से अधिक खाने की आदत छुड़ाने के लिए भी किया जा सकता है। रोटी अलग खाई और शाक-सब्जी अलग खाई, अचार पृथक से खाया और मिर्च अलग से खाई। इस प्रकार बिगड़ैल घोड़े की तरह बिगड़ी हुई जीभ वश में आ जाएगी। पहले जीभ का मस्तिष्क, तन-मन पर अधिकार था, अब इनका उस पर अधिकार हो जाएगा, स्वास्थ्य की हानि नहीं होगी।
शारीरिक दुष्कर्मों की तरह मानसिक दुष्कर्मों का भी स्वास्थ्य पर भारी प्रभाव पड़ता है। अश्लील चिंतन का कुप्रभाव केवल अकेले उस व्यक्ति पर नहीं पड़ता वरन यह छूत की बीमारी की तरह समाज में भी फैलता रहता है।
शारीरिक व्यभिचार की अपेक्षा मानसिक व्यभिचार भी उतना ही घृणित तथा बुरा है। मन में इस प्रकार के गंदे विचार एक बार स्थान बना लेते हैं तो वे शरीर को निरंतर उत्तेजित करते रहते हैं। यह उत्तेजना उस व्यक्ति के बोलने, चलने में भी प्रकट होती है तथा उसके संपर्क में आने वाले व्यक्तियों को प्रभावित किए बिना नहीं रहती। वह व्यक्ति तो शरीर तथा मन की निरंतर उत्तेजना सहते-सहते खोखला होता ही है, समाज पर भी कुप्रभाव डालता है।
वर्तमान समय में यह संक्रामक रोग बुरी तरह से फैल रहा है। गंदे साहित्य तथा सिनेमा इसके प्रसार में बहुत सहयोग दे रहे हैं। इसका प्रभाव स्पष्ट रूप से स्वास्थ्य तथा शक्ति क्षीणता के रूप में परिलक्षित हो रहा है। नन्हें-नन्हें बालक तथा किशोर भी इस बीमारी से अछूते नहीं रहे हैं। प्लेग से भी भयंकर यह बीमारी है।
उत्तम स्वास्थ्य पाने के लिए मानसिक व्यभिचार की इस भयंकर संक्रामक बीमारी से स्वयं तो बचना ही चाहिए, साथ ही साथ समाज में फैल रहे इस रोग की रोकथाम का भी भरसक प्रयास करना चाहिए। इसका व्यापक प्रतिरोध यदि नहीं किया जाएगा तो यह कभी न कभी हमें तथा हमारे परिवार को दबोच ही लेगी।
वीर्य रक्षा के लिए शारीरिक संसर्ग से बचना ही पर्याप्त नहीं होता। काम वासना जगाने वाली अश्लील पुस्तकों का पठन, गंदे चित्रों को देखना, गंदी बातें करना, अश्लील गाने गाना-सुनना, मन में अश्लील चिंतन करना आदि बातें भी वीर्य-हानि का कारण होती हैं। इनसे बचना ही चाहिए।
आजकल सर्वत्र अश्लील संगीत सुनाई पड़ता है,सिनेमा में अश्लील दृश्य दिखाए जाते हैं, अश्लील पुस्तकों की बाढ़ सी आई हुई है। नारी को मां के पद से उतार कर वेश्या के स्थान पर घसीटा जाने लगा है। इसका परिणाम स्वास्थ्य हानि तथा चारित्रिक पतन के रूप में हमारे सामने है।
नियमित, संयत और व्यवस्थित जीवन जीने से मध्य शरीर शांति और सुविधापूर्वक चलता है। मनुष्य शरीर ही नहीं मामूली वस्तुएं भी यही अपेक्षा करती हैं कि उनका संचालन क्रमबद्ध रीति से हो। घड़ी को सधे हाथ से नियत समय पर चाबी दिया कीजिए, संभालकर रखा कीजिए, तो ही वह पूरे दिन जी सकेगी। यदि दिन में कई बार, समय कुसमय, झटके से चाबी भरें, गलत तरह से इस्तेमाल करें तो वह कुछ ही दिनों में खराब हो जाएगी। कपड़ों की साज-संभाल रखने से वे काफी दिन काम देते हैं। जो उन्हें ऐसे ही इधर-उधर बेसिलसिले पटकते रहते हैं उन्हें कीड़े, चूहे, झींगुर खा जाते हैं, मैल और उपेक्षा से उनकी जिंदगी आधी रह जाती है। संसार की कोई वस्तु यह नहीं चाहती कि उसके साथ उपेक्षा बरती जाए। उपेक्षा एवं तिरस्कार सब को बुरा लगता है। हमारा शरीर भी उपेक्षा बरदाश्त नहीं करता वह रूठकर कोपभवन में चला जाता है, बीमार पड़ जाता है और तब तक रूठा ही पड़ा रहता है जब तक उसे पुनः उचित सत्कार का, व्यवस्थितता का आश्वासन न दिया जाए।
स्कूल की शिक्षा में प्रत्येक विषय के घंटे नियत होते हैं। कल-कारखानों के हर विभाग में समय की पाबंदी, कार्य शैली और गतिविधि को नियमित रखा जाता है। शरीर का कार्य भी तभी चलता है जब उसका संचालन पूर्ण व्यवस्थित रूप से किया जाए। दिनभर के कार्यक्रम की हमारी उचित दिनचर्या बनी होनी चाहिए और हर कार्य नियत समय पर व्यवस्थित विधि-व्यवस्था के साथ होना चाहिए। तभी स्वास्थ्य की सुरक्षा संभव हो सकेगी।
भोजन का समय दो बार सकता है। मध्याह्न और सायंकाल को दो बार नियत आहार लेते रहने से पाचन क्रिया ठीक प्रकार से अपना काम करती रहती है। सारे दिन बकरी की तरह मुंह चलाते रहने से पेट की वह दशा हो जाती है जो अधपकी खिचड़ी में बीच में ही कुछ और उसी में पकने के लिए डाल देने से होती है चूल्हे पर चढ़ी हुई पतीली तभी कोई भोजन ठीक प्रकार पकाकर देगी, जब बीच में उसके साथ छेड़खानी न की जाए। थोड़ी-थोड़ी देर बाद अनेक प्रकार की अनेक चीजें यदि पकने के लिए डालते रहा जाए, तो उस पतीली की कुछ चीजें घुल जाएंगी, कुछ जलने लगेंगी, कुछ कच्ची रह जाएंगी। जो लोग समय कुसमय जीभ के चटोरेपन या दोस्ती एवं शेखी के लिए बार-बार चाय, बिस्कुट, नाश्ता, तफरीह उड़ाते रहते हैं उनके पाचन कभी ठीक नहीं रह सकते। भोजन के बारे में यह कठोर नियम बनाया जाना चाहिए, कि दिन में दो बार ही खाया जाए। बीच के समय में कुछ भी न खाने का कठोर प्रतिबंध रखा जाए।
रात को जल्दी सोने और प्रातः जल्दी उठने की आदत स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत ही आवश्यक है। प्रकृति ने रात सोने के लिए और दिन काम करने के लिए बनाए हैं। दिन छिपते ही चिड़ियां अपने घोंसलों में आ जाती हैं। पशु जंगल में चरकर अपने आश्रय स्थानों को लौट आते हैं। रात्रि में काम करने वाले हिंसक पशु, पक्षी, या चोर, बदमाश सरीखे ही कोई हो सकते हैं। इसलिए उन्हें निशाचर के बुरे नाम से संबोधित किया जाता है। जो लोग देर तक रात को जागते, मटरगश्ती करते, खेल-तमाशों में घूमते, हाहा-हुहु करते रहते हैं, वे उतने ही अंश से निशाचर हैं जितनी कि रात जागने में गंवाते हैं। रेल, पुलिस आदि की जिनकी ड्यूटी ही रात की है उनकी मजबूरी समझ में आती है, पर जो लोग अकारण रात में जागते रहते हैं और सवेरे दिन निकलने तक पड़े सोते रहते हैं, वे स्वास्थ्य संबंधी एक भयंकर भूल करते हैं। शाम का भोजन जल्दी ही कर लेना चाहिए और जितनी जल्दी हो सके सो जाना चाहिए। नींद पूरी करके ब्रह्म मुहूर्त में आंख खुलती है तो शरीर में एक उत्साहवर्द्धक ताजगी दिखाई पड़ती है। उस समय जो भी काम किया जाएगा बहुत ही अच्छा होगा। विद्यार्थी यदि उस समय पढ़ते हैं तो थोड़ी ही देर की पढ़ाई अन्य समयों में कई घंटे पढ़ने से अधिक फलप्रद होती है। जो लोग भगवान का भजन करना चाहते हैं उनके लिए भी वह समय सर्वोत्तम है। जो स्वास्थ्य सुधार के लिए भ्रमण को जाना चाहते हैं उसके लिए प्रातः ब्रह्म मुहूर्त की वायु अमृतमयी है। सूर्योदय से पूर्व दो घंटे से लेकर दिन निकलने तक का समय अमृत कहा जाता है। उस समय का अपने प्रिय विषय के लिए उपयोग करके कोई भी बहुत आशाजनक लाभ ले सकता है। यह अमृत समय सोने में नष्ट नहीं किया जाना चाहिए। पर ऐसा संभव उन्हीं के लिए है जो रात को जल्दी से जल्दी सोने की व्यवस्था बनावें। देर से सोकर जल्दी उठने का क्रम बनाया जाएगा तो उससे तो नींद भी पूरी न हो सकेगी और कच्ची नींद में उठना लाभ के स्थान पर हानिकारक ही होता है।
अपनी सुविधा और स्वास्थ्य के नियमों का ध्यान रखते हुए अपनी एक नियत दिनचर्या बना लेनी चाहिए और फिर दृढ़तापूर्वक उसी पर चलते रहना चाहिए। समय का विभाजन ठीक प्रकार से किया जाए और उस कार्यक्रम का कड़ाई के साथ पालन किया जाता रहे तो आलस्य और प्रमाद में यों ही बरबाद होते रहने वाला बहुत सा समय बच सकता है और उस बचे समय का सुव्यवस्थित उपयोग करके मनुष्य स्वास्थ्य को ही नहीं सुधारता, वरन् उन्नति के अनेकों द्वार खोल लेता है। संसार का एक भी उन्नतिशील व्यक्ति ऐसा नहीं हुआ जिसने अपना दैनिक कार्यक्रम बनाकर समय की बरबादी को न रोका हो। आलसी और फूहड़ लोग बहुत धीमी गति से इधर-उधर टहलते हुए, सहज-सहज थोड़े से काम में घंटों गुजार देते हैं। कुछ लोग एक काम पूरा होने से पहले नया काम शुरू कर देते हैं और पहले काम को अधूरा ही पड़ा रहने देते हैं। ऐसे लोगों का कोई भी काम पूरा नहीं हो पाता। चाहिए यह कि जो काम समय से किया है, उसे ठीक तरह पूरा करके समेट लें तब दूसरा काम आरंभ करें। दस अधूरे काम करने की अपेक्षा, दो पूरे काम करना सदा अधिक लाभप्रद सिद्ध हुआ है। 
समय ही जीवन हैं। यही हमारी सर्वोत्तम संपत्ति है। भगवान ने आयुष्य की अमूल्य पूंजी मनुष्य को प्रदान की है और कहा है कि वह इस पूंजी का जिस ओर सदुपयोग करेगा उधर ही उसे आशाजनक सफलताएं प्राप्त होने लगेंगी। रुपया हाथ में हो तो उसके बदले में बिकने वाली हर चीज खरीदी जा सकती है। समय भी एक प्रकार का रुपया है, उसे जिस काम में भी खरच किया जाएगा, उसी दशा में प्रगति होने लगेगी। रुपये से दवा भी खरीदी जा सकती और जहर भी। समय को आलस्य-प्रमाद, व्यसन, लापरवाही, मटरगश्ती और शौक, मौज की निस्सार बातों में या कुविचारों एवं दुष्कर्मों में खरच करना, जहर खरीदने के बराबर है। पर जो अपना एक-एक मिनट बहूमूल्य समझकर उसे सुव्यवस्थित कार्यक्रम बनाकर खरच करते हैं वे अपने जीवन का सच्चा लाभ उठा लेते हैं। व्यवस्थित आदतों वाले मनुष्य का अंतर्मन भी व्यवस्थित हो जाता है और फिर उसके नियंत्रण में चलने वाला शरीर भी नियमित और व्यवस्थित रीति से काम करने लगता है। कम काम हो या ज्यादा, हर व्यक्ति को नियत दिनचर्या के अनुसार ही उसे पूरा करना चाहिए। नौकरी के घंटे नियत होते हैं। बाजार की दुकानें खुलने और बंद होने का समय सरकार ने नियत कर दिया है। व्यवस्थित रीति से नियत समय में ही बहुत काम हो जाता है और अव्यवस्थित कार्य प्रणाली से समय तो बहुत बरबाद होता है, पर काम जरा-सा दिखाई पड़ता है। समय की अव्यवस्था का सबसे खराब प्रभाव स्वास्थ्य पर पड़ता है। शौच, स्नान, कुल्ला, दातौन, सोना, जागना, खाना, पीना, किसी भी बात का जो नियम नहीं नहीं मानते उन्हें अस्वस्थता की शिकायत बनी ही रहेगी।
शक्तियों का अनावश्यक अपव्यय न होने पावे इसका पूरा-पूरा ध्यान रखना। दिन भर के प्रकाश में काम करने के बाद आंखें रात के अंधेरे में आराम चाहती हैं। जहां तक हो सके रात को बिजली के तेज प्रकाश से बचना चाहिए। सिनेमा की नैतिक बुराई तो प्रसिद्ध ही है। आंखों पर उस तेज रोशनी का बुरा असर पड़ता है। आंखों की बीमारियां बढ़ाने में सिनेमा भी एक प्रमुख कारण है। कपड़े इतने न पहनने चाहिए, जो शरीर को सरदी-गरमी का अनुभव ही न होने दें। ऋतु प्रभाव से शरीर को पूर्णतया बचाए रहने पर सहनशक्ति का गुण नष्ट होने लगता है। ऐसे लोगों को जरा भी सरदी लगने पर जुकाम होने और जरा सी गरमी लगने पर लू लगने की आशंका बनी रहती है।
मुंह ढककर सोने की आदत रक्त की शुद्धता के मार्ग में भारी बाधा पहुंचाती है। स्वच्छ जल और स्वच्छ भोजन न मिलने पर बीमारी आ घेरती है, इसे सभी जानते हैं। गंदगी से रोग फैलते हैं। भोजन और जल यदि गंदे बरतनों से, गंदे हाथों, गंदे व्यक्तियों, गंदे स्थानों से संबंधित रहेगा तो अवश्य ही गंदा एवं हानिकर हो जाएगा। इसलिए आहार में सफाई का पूरा-पूरा ध्यान रखना आवश्यक माना जाता है। वायु के संबंध में भी यह सफाई बरती जानी चाहिए। अन्न और जल के बिना कुछ समय मनुष्य जीवित भी रह सकता है पर वायु के बिना क्षणभर भी जीवित रहना कठिन है। इससे वायु की उपयोगिता स्पष्ट है। उसे ग्रहण करते समय स्वच्छता का ध्यान रखना चाहिए। हमारे रहने और काम करने का स्थान ऐसा न हो जहां स्वच्छ वायु न पहुंचती हो। कहते हैं कि जहां स्वच्छ हवा और सीधी धूप नहीं पहुंचती है, वहां डॉक्टर पहुंचा करते हैं। 
स्वास्थ्य रक्षा के उपरोक्त वैज्ञानिक तथ्य यही प्रमाणित करते हैं कि नियमितता एवं अपने आप पर नियंत्रण प्रकृति के अनुरूप व्यवहार है। जो भी इन नियम-अनुशासनों की अवहेलना करता है, प्रकृति की पाठशाला में उसे कड़ा दंड मिलता है। कुछ समय के लिए सामयिक राहत पाने के लिए भले ही औषधियों का सहारा ले लिया जाए, अक्षुण्ण स्वास्थ्य व प्रबल जीवनी शक्ति बनाए रखने का मूलमंत्र एक ही है, प्राकृतिक जीवनक्रम एवं संतुलित, मर्यादित तथा संयमित दिनचर्या। 
मनुष्य जीवन में इंद्रिय संयम, विचार संयम और समय संयम की उपयोगिता महत्तर है। सभी प्रकार की संयम शक्ति के उपार्जन के लिए व्यक्तिगत दृष्टिकोण का परिष्कृत होना श्रेयष्कर एवं अनिवार्य है। उपयुक्त संयम शक्ति का सृजनात्मक उपयोग व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं विश्व के लिए लाभदायक है। 
 
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*समाप्त*


 

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