जड़ीबूटियों द्वारा चिकित्सा

आँवला (एम्बलीका आफीसिनेलिस)

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संस्कृत में आँवले को आमलकी, आदिफल, अमरफल, धात्री फल आदि नामों से संबोधित कर सम्मानित किया गया है । कहा जाता है कि इसी का प्रयोग करके च्यवन ऋषि पुनः यौवन को प्राप्त हुए थे, इसी कारण 'च्यवनप्राशावलेह' का यह मुख्य घटक भी है जो एक चिरपुरातन, सर्वप्रचलित योग है । भावप्रकाश निघण्टु में ग्रंथकार ने सही ही लिखा है-हरीतकीसमं धात्रीफलं किन्तु विशेषतः । रक्तपित्तप्रमेहघ्नं परं वृण्यं रसायनम्॥

वानस्पतिक परिचय-
आँवले का वृक्ष मध्यम ऊँचाई का लगभग 20 से 25 फीट ऊँचाई का होता है । इसकी त्वचा पतली परत छोड़ती है । पत्ते लंबे आयताकार व्यवस्थित, इमली के पत्तों की तरह होते हैं । पीले रंग के फूल गुच्छों में लगते हैं । फल गोलाकार, 3/4 से 1 इंच व्यास का मांसल, हरा तथा पकने पर रक्ताभ होते हैं । इनके बाह्य आवरण पर 6 रेखाएं 6 खण्डों की परिचायक होती हैं । अन्दर का बीज षट्कोण आकार का होता है ।
सामान्यतया फल अक्टूबर से अप्रैल तक मिलते हैं । मार्च-अप्रैल में नई पत्तियाँ आती हैं ।

यह भारत में सर्वत्र पाया जाता है व 4500 फीट की ऊँचाई तक भी होता है । आँवला दो प्रकार का होता है-(1) बागी बाग-बगीचों में होने वाला । इसके भी दो भेद होते हैं-बीजू-बीज से उत्पन्न होने वाला तथा कलमी-जिसकी कलम लगाई जाती है । बीजू के फल छोटे होते हैं, कलमी के बहुत बड़े अमरूद तक के आकार के । (2) जंगली-यह सर्वाधिक पाया जाता है । फल छोटे होते हैं । इसमें औषधीय गुण बागी की तुलना में अधिक होते हैं, ऐसा विभिन्न वैज्ञानिकों का मत है । जंगली के भी वन्य तथा ग्राम्य दो भेद हैं-वन्य आँवला छोटा एवं कठोर तथा ग्राम्य आँवला बड़ा, मृदु एवं नरम होता है ।

शुद्धशुद्ध परीक्षण एवं संरक्षण-
आँवले के ताजे फल अखरोट के फलों के समान होते हैं । इन्हें पहचानना मुश्किल नहीं । स्वाद में यह थोड़ा खट्टा, कसैला होता है । बाजार में पाए जाने वाले आँवले में कच्चे-पक्के दोनों ही प्रकार के सुखाए फल मिले होते हैं । पके शुष्क फल भूरे रंग के व सुखाए कच्चे फल कालिमा लिए होते हैं । जहाँ तक सम्भव हो पके फलों का ही प्रयोग होना चाहिए ।
इनका संग्रह माघ व फाल्गुन में करके, छाया में सुखाकर धूल रहित, अनाद्र-शीतल स्थान में रख दिया जाता है । छाया में सुखाए आँवले से विटामिन 'सी' कम से कम नष्ट होती है । वनौषध्धि र्निदेशिका के विद्वान लेखक के अनुसार संग्रहीत आँवलों की कालावधि एक वर्ष तक होती है ।

गुण-कर्म संबंधी विभिन्न मत-
आँवले की सबने एक स्वर से प्रशंसा की है । आचार्य चरक के मतानुसार आँवला तीनों दोषों का नाश करने वाला, अग्निदीपक और पाचक है । कामला, अरुचि तथा वमन में यह विशेष लाभकारी है । यह मेध्य है एवं नाड़ियों तथा इन्द्रियों का बल बढ़ाने वाला पौष्टिक रसायन है ।
सुश्रुत ने इसे पित्तशामक और पिपासा शांत करने वालों में अग्रणी माना है । भाव मिश्र के अनुसार आँवला छदिंहर (एप्टीएमेटिक) तथा हिचकी रोकने वाला है । चक्रदत्त ने आँवले का रस वमन में विशेष लाभकारी माना है । श्री भण्डारी के अनुसार यह अम्लपित्त, रक्तपित्त, अजीर्ण एवं अरुचि की एकाकी व सफल औषधि है ।

डॉ. बनर्जी कहते हैं कि आमाशय के अधिक अम्ल उत्पादन करने पर तथा गर्भवती स्रियों के वमन आदि में आँवला सबसे अच्छी व निरापद औषधि है । यह पाचक है, सारे आंत्र संस्थान को मजबूत बनाता है तथा पीलिया, अरुचि में विशेष लाभदायक है । डॉ. नादकर्णी मानते हैं कि 'डिसपेप्सिया' जिसमें पित्त की उल्टियाँ होती हैं, छाती में जलन एवं अपच होता है, आँवला बहुत आराम देता है ।

'बेल्थ ऑफ इण्डिया' ग्रंथ के अनुसार आँवले का गूदा पीलिया व अपच में लाभकारी है तथा बीज पित्त शामक है । वी.एच.यू.के. डॉ. बी.एन.सिंह ने अपना शोध प्रबंध इसी विषय पर लिखा है । वे भी अपने प्रयोगों द्वारा इसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि रसायन एवं पित्तशामक होने के अतिरिक्त यह कफशामक, वातशामक भी है तथा दीपन-अनुलोमन एवं यकृत उत्तेजक भी है । इस विशेषता के कारण ही यह पाचन संस्थान के विभिन्न रोगों में सात्वीकरण की प्रक्रिया द्वारा विशिष्ट भूमिका निभाता है ।
श्री जे.एफ. दस्तूर ने 'मेडीसिनल प्लाण्ट्स ऑफ इण्डिया' पुस्तक में लिखा है कि आँवला तृष्णा हरता है तथा पित्त की अधिकता को कम करता है । यह वमन हिचकी, अपच व पेट के अन्य रोगों में विशेष लाभकारी है । सूखा आँवला भूख बढ़ाता है व इसके बीजों का निष्कर्ष पित्त को कम करता तथा मितली में आराम देता है ।

होम्योपैथी में भी आँवला मदरटिंक्चर का प्रयोग किया जाता है । यह विशेषकर अपच के कारण हुए सिरदर्द, पेट में जलन व दर्द में विशेष लाभदायक है, ऐसा मत श्री प्रसाद बनर्जी ने अपनी पुस्तक मटेरिया मेडिका ऑफ इण्डिया ड्रग्स में प्रस्तुत किया है ।
यूनानी चिकित्सा पद्धति भी आँवले को आमलज नाम से व सूखे गुठली भाग को आमल मुनक्का नाम से प्रयुक्त करती है । दो-तीन बार दूध में धोकर भिगोकर रखने के उपरांत सुखाए गए आँवले को शीरपरवर्दा कहते हैं । इससे माजूम व रुब्बे आँवला बनाया जाता है । यूनानी सिद्धांतानुसार आँवले को शीतल व रुक्ष दीपक मानते हैं । अग्निमंदता की यह अच्छी दवा है । इसके अतिरिक्त यह पित्त के उद्वेग को शांत करता है, प्यास बुझाता है व पेट में घूमने वाले शूल के समान दर्द को शांत करता है । पेट से गैस को बाहर निकालने व आंत्र संस्थान को आराम देने में हकीम दलजीतसिंह जी (निदेशक तिब्बी यूनानी उ.प्र.) के अनुसार आँवले से श्रेष्ठ कोई औषधि नहीं है ।

रासायनिक संगठन-
आँवले के ताजे फल में जल 81.2 प्रतिशत, प्रोटीन 0.5 प्रतिशत, वसा 0.1 प्रतिशत, खनिज 0.7 प्रतिशत, रेशे 3.4 प्रतिशत, कार्बोहाइड्रेट 14.1 प्रतिशत तथा अनेकों प्रकार के विटामिन होते हैं, जिनमें निकोटिनिक एसिड तथा विटामिन सी प्रमुख है । फल के कल्क व स्वरस में क्रमशः 720 और 921 मिलीग्राम प्रति 100 ग्राम में विटामिन सी पाया गया है । इस विटामिन का यह सर्वश्रेष्ठ स्रोत है । इसके अतिरिक्त फल में मुख्य खनिज-लोहा (12 मिलीग्राम प्रति 100 ग्राम), कैल्शियम (50 मिलीग्राम प्रति 100 ग्राम) तथा फास्फोरस (20 मिलीग्राम प्रति 100 ग्राम) होते हैं । प्रमुख कार्बोहाइड्रेटों में 'पैक्टिन' है । आँवला इसका अच्छा स्रोत माना जाता है । ये टैनिन सूखी अवस्था में लगभग 28 प्रतिशत जल के सूखने पर गैलिक इगैलिक अम्ल व ग्लूकोज बनाते हैं । गूदे में इस प्रकार के 13 टैनिन पाए गए हैं तथा फाइलेम्बिन नामक पदार्थ भी जो जैव सक्रियता की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं ।

बीजों में भी लिनोलिक, लिनोलेनिक ओलिक तेल जैसे महत्त्वपूर्ण घटक पाए गए हैं, जिसकी भूमिका पाचन संस्थान की दृष्टि से महत्त्व रखती है । ये सभी वसा यौगिक 'इसेशियल फैटीएसिड' समूह में आते हैं तथा आहार के आवश्यक अम्लों की पूर्ति कर देते हैं । तेल की मात्रा बीजों में 16 प्रतिशत होती है ।

आधुनिक मत एवं वैज्ञानिक प्रयोग निष्कर्ष-
आँवले में पाया जाने वाला पदार्थ 'फिलेम्बिल' प्रायोगिक दृष्टि से प्रयुक्त किए जाने पर शूल निवारक 'स्पास्मोलिटिक' पाया गया है । श्री खुराना ने 'इण्डियन जनरल ऑफ फिजियोलॉजी एवं फर्मेकॉलाजी' में लिखा है (14, 39, 1970) कि 'स्पाज्म' (मरोड़) पैदा करने में सक्रिय भाग लेने वाले एलिटाइल कोलोन, बे्रडीकाइनिन आदि के प्रभाव को यह रसायन नष्ट कर देता है ।
पित्तशामक प्रभाव का वैज्ञानिक अध्ययन करने पर पाया गया कि अम्लपित्त के रोगियों में 'आँवला चूर्ण' अधिक लाभकारी है । 3 ग्राम चूर्ण रूप आँवला दिन में 3 बार दिए जाने पर पेट में जलन, अम्लाधिक्य के कारण होने वाली अन्य तकलीफों को 15 दिन में समाप्त कर देता है ।

तीसरा वैज्ञानिक दृष्टि से सफल प्रयोग इस औषधि का स्कर्वीनिरोध प्रभाव सिद्ध करने वाला रहा है । 'स्कर्वी' विटामिन सी की कमी के कारण होने वाला रोग है, जिसके कारण सारे शरीर से कहीं भी रक्त स्राव होने लगता है । मसूड़े सूज जाते हैं, हड्डियों में अपने आप फ्रैक्चर होने लगते हैं, सारे शरीर में कमजोरी व चिड़चिड़ाहट होने लगती है ।

इस रोग की प्रतिक्रिया स्वरूप पाचन संस्थान भी गड़बड़ाता है व सारा शरीर भी स्कर्वी रोग को दूर करने की क्षमता की दृष्टि से एक आँवला दो संतरों के समकक्ष ठहरता है । प्रतिदिन भोजन में 10 मिलीग्राम विटामिन सी भी मिलता रहे तो यह रोग न हो । रोग की स्थिति में तो 100 मिलीग्राम प्रति दिन देना जरूरी है । विटामिन सी आँवले में इतना अधिक है (९२१ मिलीग्राम प्रति १०० ग्राम) कि इसे नियमित रूप से लेने पर रोग होना तो दूर, अन्य कोई रोगों की संभावनाएँ टल जाती हैं । दूसरे सुखाये जाने पर भी इसका विटामिन सी नष्ट नहीं होता । प्राकृतिक रूप में इसके साथ जो अन्य तत्व पाए जाते हें, उनसे इसके ऑक्सीकरण होन व विटामिन सी नष्ट होने की प्रक्रिया रूकती है । जबकि संशोषित गोलियों का विटामिन सी शीघ्र ही ऑक्सीडाइज होकर निष्क्रिय हो जाता है ।

आँवले के फल को सम्पूर्ण रूप में लिया जाना ही श्रेष्ठ है । बीजों में वसा अम्लों के अतिरिक्त आवश्यक पाचक एन्जाइम्स भी पाए जाते हैं । इससे पाचन तंत्र मजबूत होता है । इन एन्जाइमों के कारण ग्रहण किए गए वसा व प्रोटीनों का पाचन कोई कठिन कार्य नहीं रह जाता ।

ग्राह्य अंग-
फल, बीज ।

मात्रा-
फल चूर्ण-3 से 10 ग्राम, सुबह-शाम, आँवला ताजा रस-25 ग्राम दिन में 2 बार ।
निर्धारण के अनुसार प्रयोग-
(1) हिचकी तथा उल्टी में आँवले का रस मिश्री की चाशनी के साथ तुरन्त तथा दिन में 2-3 बार । चूर्ण- 10 से 15 ग्राम पानी के साथ दिया जा सकता है ।
(2) रक्त पित्त में-रक्त के वमन का कारण यदि आमाशयिक व्रण है तो आँवला चूर्ण दही के साथ अथवा चूर्ण क्वाथ बनाकर गुड़ के साथ दिया जाता है ।
(३) अम्ल पित्त में-ताजा आँवला मिश्री के साथ या स्वरस 25 ग्राम सम भाग शहद के साथ प्रातः-सायं देने पर खट्टी डकारें अम्लाधिक्य की शिकायतें दूर हो जाती हैं ।
श्री नादकर्णी एक प्रयोग में लिखते हैं कि आँवले के बीज 10 ग्राम रात भर जल में भिगोकर रखने पर व अगले दिन गौ-दुग्ध में पीसकर पाव भर गौ दुग्ध के साथ देने पर पित्ताधिक्य में लाभ होता है ।
इन सभी ऊपरी पाचन संबंधी विकारों, जिन्हें डिसपेप्सिया या पी.यू. सिण्ड्रोम नाम से जाना जाता है- हेतु रात्रि में भिगोया गया 5 ग्राम आँवला अगले दिन 70 ग्राम दूध के साथ देने पर 1 माह में अच्छा आराम देता है ।
(4) यकृत की दुर्बलता, पीलिया निवारण की स्थिति में आँवले की शहद के साथ चटनी बनाकर सुबह-शाम लिया जाना चाहिए ।

अन्य उपयोग-
पाचन संस्थान को सशक्त बनाने एवं स्कर्वी रोग निवारण कर सारे अंतःसंस्थान को मजबूत करने के अतिरिक्त त्रिदोष हर होने के नाते इसके अन्य भी उपयोग हैं ।
पैत्तिक शिरोशूल, मूत्रावरोध में इसका लेप करते हैं, तो नेत्रों के रोगों में रस आँखों में डालते हैं । आँवले से सिर धोकर रुसी व खाज मिटाना पुराना घरेलू प्रयोग है ।
इन्द्रिय दुर्बलता, मस्तिष्क दौर्बल्य, बवासीर, हृदय रोग अन्य रक्त वमन, खाँसी, श्वांस तथा महिलाओं के प्रमेह रोगों में भी यह उपयोगी है । क्षय, शरीर-शोथ तथा कुष्ठ जैसे चर्म रोगों में भी वैद्य इसका सफल प्रयोग करते हैं ।

आँवला एक समग्र औषधि है । पाचन संस्थान मात्र तक उसका कार्य क्षेत्र सीमित नहीं है । त्रिफला रूप में उसे प्रयोगों से सभी अवगत हैं । पर प्रस्तुत विधान में एकौषधि प्रयोग में आँवले को अकेले ऊपरी पाचन संस्थान के रोगों में ही प्रयोग में आँवले को अकेले ऊपरी पाचन संस्थान के रोगों में ही प्रयोग किया जा रहा है एवं उसी की पृष्टि हेतु वैज्ञानिक मत भी दिए गए हैं ।

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