जड़ीबूटियों द्वारा चिकित्सा

एकौषधि ही क्यों ?

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अभी तक जो विवेचन किया गया उसका मूल प्रतिपादन था वनौषधि चिकित्सा का पुनर्जीवन, उसकी अन्य प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों से तुलना तथा परिवेश एवं वैज्ञानिक तथ्यों के संदर्भों के साथ यह मूल्यांकन कि ग्रामीण भारत के लिए सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था क्या हो सकती है? इस निष्कर्ष पर पहुँचने के बाद रोगों की चर्चा के पूर्व एक पक्ष और अछूता रह जाता है- एक औषधि का ही प्रयोग क्यों तथा किस प्रकार किया जाए? क्या आर्युवेद के प्रचलित स्वरूप को ही फिर से जन्म दिया जा रहा है? गुटिका, अवलेह, अरिष्ट, आसव, योगों की चर्चा ही की जा रही है अथवा औषधि के किसी और स्वरूप की?

इसे स्पष्ट करने के लिए यह समझाना यहाँ उचित होगा कि एकौषधि का प्रयोग ही क्यों किया जाए । एकौषधि का अर्थ है रोगी को किसी एक समय में निश्चित अनुपात के साथ एक से अधिक औषधि न देना । पुरातन आर्युवेदिक वैद्यों यूनानी, हकीमों, होम्योपैथी के जन्मदाता डॉ. सेमुअल हैनीमेन जैसे चिन्तक मनीषियों ने तथा अमेरिका की प्रतिष्ठित फूड एण्ड ड्रग एडिमिनिस्ट्रेशन जैसी आधुनिकतम संस्थाओं ने एक स्वर से एक समय में एक से अधिक औषधि न दिए जाने का ही समर्थन किया है ।

किसी औषधि के गुणकारी होने के पीछे रस, गुण, वीर्य, विपाक एवं प्रभाव इन पाँच आधारों को ही प्रमुख माना जाता है । प्राचीन वैद्यों के अनुसार एक बार में यदि एक से अधिक औषधि मिला दी जाएँ तो उनके प्रभाव में अत्यधिक परिवर्तन आ जाता है । कहीं-कहीं तो योग लाभकारी हो सकते हैं । सिनरजिस्टक पर बहुधा सम्मिश्रण हानिकारक ही सिद्ध होते हैं । एक का प्रभाव दूसरी से कट जाता है, रोगी व वैद्य दोनों के हाथ निराशा लगती है । पाँच मूल आधारों में से डॉ. नादकर्णी प्रभाव को प्रमुख मानते हुए कहते हैं कि अन्य चार पक्ष कमजोर होते हुए भी प्रभाव की तीव्रता के कारण एक ही औषधि वह लाभ दिखा देती है जो अन्य सम्मिश्रणों से दब जाते हैं।

आँवले का उदाहरण देते हुए वे कहते हैं कि यह रस, गुण, वीर्य, विपाक में दुर्बल पड़ता है पर अंदर अकेला ग्रहण किए जाने पर त्रिदोषों को दूर करने वाला होता है । इसके प्रभाव पक्ष की महत्ता के कारण यह अन्य औषधियों की तुलना में अकेला कहीं अधिक लाभदायक सिद्ध होता है । यही गुण किसी और औषधि में भी हो सकते हैं, पर प्रभाव कम होने व सम्मिश्रण के कारण उनका उपयोग उन रोग विशेषों में नहीं हो पाता । इस विषय पर चरक सूत्र में तथा पं. शिव शर्मा जैसे निष्णात आयुर्वेदाचार्य के अभिमत एक औषधि के पक्ष में ही है।

आयुर्वेद के विकास का इतिहास देखने पर ज्ञात होता है कि वैदिक काल में वनौषधियों का उपयोग उनके प्राकृतिक रूप में ही होता था । आवास-अरिष्ट आदि का प्रयोग बाद में आरंभ हुआ । धातुओं तक को उनके प्राकृतिक रूप में ही प्रयुक्त किया जाता था । उदाहरणार्थ किसी धातु को गरम करके बुझाना और उस पानी को पी लेना । रसों-पारद योगों का आदि का इतिहास मात्र नौ सौ वर्ष पुराना है।

वस्तुतः आर्षकाल को ही आयुर्वेद का स्वर्ण युग माना जाता है । आचार्य धन्वंतरि से प्रारंभ होकर यह चरक ऋषि पर समाप्त होता है । अथर्ववेद में 100 सूक्त मात्र आयुर्विज्ञान पर हैं, जिनमें रोग निर्णय, चिकित्सा, लक्षण, शरीर तथा औषधियों का वर्णन है । वैसे तो चारों वेदों में थोड़ा-थोड़ा वर्णन आयुर्विज्ञान संबंधी है, पर मूलतः अथर्ववेद ही आर्युवेद का जनक माना जाता है-

इह खलु आर्युवेदमष्टाँगमुपांगमथर्ववेदस्य ।

इसी कारण आज की प्रचलित आयुर्वेदिक औषधियों को ही प्रधान न मानकर उनके मूल स्रोत को देखा जाना जरूरी है, यहाँ उन्हें उनके प्राकृतिक स्वरूप में ही ग्रहण किए जाने का वर्णन किया गया है । शेष तो मध्यकाल में जोड़े गए विधान हैं, जिनमें सभी संहिताएँ व निघण्टु आ जाते हैं ।

मध्यकाल में लंबे-लंबे नुस्खों का जो प्रचलन चला, उसने वैद्यों के अहं का पोषण भले ही किया हो, रोगी को लाभ नहीं मिला तथा लोगों का विश्वास धीरे-धीरे विनिर्मित औषधियों पर से उठता चला गया । इनमें सभी गलत थे, यह नहीं कहा जा रहा है । कुछ योग तो विज्ञान सम्मत विधि-विधान से कल्पित कर तैयार किए गए थे, पर अधिकांश में ऐसी अलभ्य औषधियों के नाम जोड़ दिए गए जिनके न मिलने पर योग तो तैयार हो नहीं पाता था, रोगी को लाभ न मिलने का कारण समझाने का सूत्र अवश्य वैद्यों को मिल जाता था ।

इस प्रचलन में यह भुला दिया गया कि सम्मिश्रण से श्रेष्ठ औषधि है एवं वास्तविक सामार्थ्य तो उनके सक्रिय संघटकों में छिपी पड़ी है । ताजी सूक्ष्म चूर्ण की हुई औषधि कैसे तुरन्त असर दिखाती है यह घरेलू चिकित्सा करने वाली घर की महिलाएँ जानती हैं, जिन्होंने किसी मेडीकल कॉलेज में नहीं, अपने ही बुजुर्गों से यह शिक्षण पाया है ।

एकौषधि के संबंध में सर्वाधिक मंथन होम्योपैथी के साहित्य में मिलता है । डॉ. सैमुअल हैनिमैन ने बड़े आक्रोश पूर्ण शब्दों में अपने समय के चिकित्सकों के सम्मिश्रण फार्मूले का विरोध करते हुए 'क्रॉनिक डीसिसेज' नामक पुस्तक में लिखा था कि जीर्ण रोगों की उत्पत्ति का प्रधान कारण ही अनाश्यक दवाओं का प्रयोग है । यदि इस समय में एक ही औषधि दी जाए तो वह अधिक लाभ पहुँचा सकती है । इसलिए होम्योपैथी में पहले शरीर में प्रवष्टि औषधियों के प्रभाव का शमन किया जाता है, फिर रोग विशेष को लक्ष्य करके औषधि दी जाती है ।

'डॉ.हैनिमैन के समकालीन डॉ. बोर्निंगहासन, डॉ. ह्यूजेस बाद में डॉ. कैण्ट एवं डॉ. फैरिंगटन ने भी उनका समर्थन करते हुए एक औषधि को न्यूनतम अपेक्षित मात्रा में दिया जाना ही चिकित्सा का मूल आधार माना है । यहाँ समर्थन किसी पैथी विशेष का नहीं, उन मूलभूत सिद्धांतों का किया जा रहा है, जो किसी रोग के कारण, निदान व चिकित्सा की मूल पृष्ठभूमि बनते हैं । वस्तुतः एक रोग में एक ही समय में एक ही विकार जन्म लेता है एवं वही सारे लक्षणों का जन्मदाता होता है । यदि सब लक्षणों के लिए अलग-अलग दवा दी जाएगी तो फिर आज की एलोपैथी को व लक्षण सुनकर चिकित्सा करने वाली आधुनिक होम्योपैथी को ही सर्वश्रेष्ठ मान लेना चाहिए ।

हर लक्षण के पीछे भागना छोड़कर प्रत्येक के लिए पृथक औषधि के सिद्धान्त को छोड़ दिया जाए तो न केवल सम्मिश्रण से बचा जा सकता है, बल्कि रोगी को कई जटिल रोगों से ग्रसित होने की भावी संभावना को भी तुरंत लगाम लगाई जा सकती है ।'

एलोपैथी (आधुनिक चिकित्सा पद्धति) में एक से अधिक औषधियाँ मिलाने से जो अगणित समस्याएँ उठ खड़ी होती हैं, उनके अध्ययन का ड्रग इन्कम्पेर्टीबिलिटी नामक ग्रंथ में विस्तृत वर्णन किया गया है । डॉ. इरविन माटन ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक 'हेजार्ड्स ऑफ मेडीकेशन' (औषधि सेवन करने के दुष्परिणाम) में लगभग दो सौ पृष्ठों में विभिन्न औषधियों के परस्पर मिलने से होने वाली शरीरगत क्रियाओं व उनसे संस्थान को होने वाली हानि पर विस्तृत सारिणी दी है । इसमें उन्होंने अनेक दवाओं के मिलने से होने वाली सहस्रों संभावनाओं पर प्रकाश डाला है । सबका सार संक्षेप में देते हुए लिखते हैं कि हर चिकित्सक को एक समय में दो या अधिक औषधि देने से पूर्व सोच लेना चाहिए कि ये परस्पर मिलकर शरीर में क्या हानि पहुँचा सकती है ।

चिकित्सक यह निर्णय नहीं ले पाता कि नए लक्षण रोग के विस्तार के कारण हैं या औषधि के कारण । कई बार ऊहापोह में पड़ा चिकित्सक कुछ दवाएँ नए लक्षणों को दबाने के लिए और जोड़ देता है । नतीजा रोगी को भुगतना पड़ता है । इसी कारण एलोपैथिक चिकित्सा प्रणाली में आएट्रोजेनिक मेडीसिन (औषधि जन्य रोगों का विज्ञान) को विस्तार से पढ़ाया जाता है ताकि स्नातकोत्तर स्तर के निष्णात चिकित्सक यह गलती न कर बैठें ।

अमेरिका की एफ.डी.ए. संस्था द्वारा गठित एक समिति की रिपोर्टानुसार एक से अधिक औषधियाँ खिलाने पर तीन प्रकार के दुष्प्रभाव हो सकते हैं ।
(१) भौतक, (२) रासायनिक, (३) भैषजीय ।

भौतिक दुष्प्रभावों में औषधियों का परस्पर रूप बिगड़ जाना या एक एवं एक से अधिक सक्रिय संघटकों का परस्पर अवक्षेप (प्रेसिपिटेट) हो जाना माना जाता है । रासायनिक वर्ग में एक से अधिक रसायन परस्पर किया करके ऐसे पदार्थों को जनम देते हैं, जो प्रभावहीन होकर निष्कासित हो जाते हैं अथवा ऊतकों को हानि पहुँचा कर जीवकोष में विकृति डी.एन.ए. में परिवर्तन तथा कैंसर की उत्पत्ति जैसे परिणामों का कारण बनते हैं । भैषजीय दुष्प्रभावों का अर्थ है-रोगी के शरीर में एक औषधि का दूसरी के प्रभाव को निरस्त कर देना, बढ़ा देना अथवा नए रोगों को या साइड इफेक्ट्स को जन्म दे देना । इस सभी को अवांछनीय ठहराते हुए समिति ने यही निष्कर्ष निकाला है कि किसी भी स्थिति में एक से अधिक औषधियों का प्रयोग न किया जाए ।

होम्योपैथी व एलोपैथी के ऊपर प्रस्तुत किए अभिमतों के बाद यही तथ्य यदि वनौषधियों पर लागू किया जाए तो वह कितना तर्क सम्मत विज्ञान संगत है तथा आर्ष वचनों की पुष्टि करता है यह भी देखा जाना चाहिए । वैदिक ग्रंथों के अनुशीलन व आयुर्विज्ञान के प्रसिद्ध वैद्यों के अभिमतों का विवेचन करने पर भी कुछ इसी प्रकार के निष्कर्ष निकलते हैं ।

प्रत्येक जड़ी-बूटी अपने आप में एक पूर्ण जैविक तंत्र (काम्प्रेहेन्सिव वायोलॉजिकल सिस्टम) हैं । इनमें सेकड़ों एन्जाइम्स, हारमोन्स, वसा, लवण, ग्लाइकोसाइडस, एल्केलाइड्स, विटामिन्स, फ्री अमीनो एसिड्स, टैनिन आदि पदार्थ होते हैं । रसायन शास्र के सिद्धान्त यही बताते हैं कि ये सभी पदार्थ परिवर्तनशील अवस्था में होते हैं व एक दूसरे को प्रभावित करते हैं । विभिन्न टैनिन्स अनेकों एल्केलायडों के साथ मिलकर एल्केलायड टैनिन काम्पलेक्स बनाते हैं व उनकी प्रभावी क्षमता को नष्ट ही कर देते हैं ।

उदाहरण के तौर पर चिरायता, गिलोय, अडूसा, शंखपुष्पी, पुनर्नवा जैसी औषधियाँ ली जाएँ । चिरायता में टैनिन बिल्कुल नहीं होते व शेष में नगण्य सी मात्रा में होते हैं । इन सभी में एल्केलायड्स या ग्लाइकोसाइड्स प्रधान सक्रिय पदार्थ के रूप में होते हैं । यदि इन्हें हरड़, नीम, आँवला, अशोक जैसी औषधियों के साथ खिला दिया जाए तो अधिकांश ग्लाइकोसाइड्स निष्क्रिय हो जाते हैं । ये सभी जटिल कार्बनिक यौगिकों के रूप में प्रेसीपिटेट (आक्षोपित) हो जाते हैं । दो लाभकारी औषधियों के सम्मिश्रण से बना क्वाथ गुण विहीन होकर रह जाता है । इसी प्रकार अश्वगंधा, अशोक जैसी लौह प्रधान गोक्षुर जैसी कैल्शियम प्रधान औषधियों के साथ मिलकर उन्हें निष्प्रभावी बना देती हैं । प्राकृतिक स्थिति में धातु सक्रिय रहती है पर सम्मिश्रण रासायनिक क्रिया को जन्म देकर औषधि को गुणविहीन कर देता है ।

वनौषधि सम्मिश्रण में एक और बड़ी समस्या है उनमें एन्जाइम्स का प्रचुर संख्या पर स्वल्प मात्रा में होना । एन्जाइम अल्प मात्रा में ही अतिसक्रिय होते हैं एवं थोड़े से हेरफेर से ही औषधि की संरचना में बहुत बड़ा परिवर्तन हो सकता है । यहाँ तक कि एक समय विशेष में तोड़े जाने अंग विशेष के प्रयुक्त होने तथा समय क्षेप के साथ गुण-धर्म नष्ट होने के पीछे भी एन्जाइमों की प्रधान भूमिका होती है । कुछ वनौषधियों में परस्पर विपरीत दिशा में सक्रिय एन्जाइम होते हैं जो एक-दूसरे के जैविक प्रभाव को निरस्त कर देते हैं ।

इसका उदाहरण देते हुए डॉ. नादकर्णी लिखते हैं कि नीम में ऑक्सीडेस एन्जाइम तंत्र अच्छी विकसित अवस्था में होता है व यही उसकी जीवाणुनाशी क्षमता का मूल कारण है । दूसरी ओर आँवला स्वयं में एण्टी ऑक्सीडेस एन्जाइम तंत्र को संजोए होता है जो आँवले के विटामिन सी व अन्य यौगिकों के सक्रिय होने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है । किसी कारणवश यदि इन दोनों को संयुक्त रूप से देने की स्थिति आए तो दोनों का ही निष्प्रभावी होना एक स्पष्ट वैज्ञानिक तथ्य है ।

हल्दी में टि्रप्सिन तंत्र की सक्रियता समाप्त करने वाला, बेल में 'टायरोसिनेस एन्जाइम' तंत्र की सक्रियता बढ़ाने वाला सक्रिय संघटक होता है । कौन सी जड़ी-बूटी किस व्यक्ति के अंदर प्रविष्ट होकर कैसे निष्क्रिय हो जाएगी, यह इन रासायनिक विवेचनों से स्पष्ट होता है । यदि सभी उपलब्ध आयुर्वेदिक योगों का जिनमें चार से लेकर तीस तक विभिन्न औषधियाँ होती हैं, अध्ययन किया जाए तो रासायनिक विशेषण के आधार पर सिद्ध किया जा सकता है कि सम्मिश्रण की तुलना में एक अकेली औषधि का प्रयोग अधिक लाभदायक है । संयोग से अब लगभग सभी वनौषधियों के रासायनिक विशेषण उपलब्ध हैं । यह फाइटोकेमिस्ट्री, मेडीसिनल प्लाण्टकेमिस्ट्री, वायोकेमिस्ट्री के विशेषज्ञों का कर्तव्य है कि वे इनकी परस्पर क्रिया से होने वाले परिणामों से चिकित्सक संप्रदाय को अवगत कराएँ ।

हो सकता है कुछ योगी सहयोगी हों व संभव है कुछ में थोड़ा संशोधन कर उन्हें और अधिक प्रभावकारी बनाया जा सकता हो । अनुभव सिद्ध योगों के स्थान पर प्रयोगशाला में परीक्षित योग ही प्रयुक्त हों अथवा अपनी प्राकृतिक अवस्था में उपलब्ध सूक्ष्मीकृत अकेली एक औषधि यही इस प्रतिपादन का सार है । इससे आयुर्वेदिक औषधियों पर होने वाला व्यय तो घटेगा ही वैद्यों को भी योगों से बचकर निरापद औषधि सेवन को बढ़ावा देने में सहायता मिलेगी । एक औषधि के प्रभाव को वैज्ञानिक तथ्यों के प्रकाश में सही प्रकार जाँच-परख कर नए सिरे से चिकित्सा विज्ञान का ढाँचा खड़ा किया जा सकता है । इससे आर्युवेद की गरिमा बढ़ेगी, घटेगी नहीं यह सुनिश्चित है ।

सूक्ष्मीकरण प्रक्रिया एवं अनुपान भेद से चिकित्सा
एकौषधि चिकित्सा विज्ञान में प्रस्तुत विवेचन के अंतर्गत औषधि को हरे ताजे रूप में या सूखे चूर्ण के रूप में प्रयुक्त किए जाने का विधान बनाया गया है । हरे ताजे रूप में औषधि स्थानीय लेप के रूप में प्रयुक्त हो सकती है तथा मुँह से भी ग्रहण की जा सकती है, पर चूर्ण रूप दिए जाने की ही व्यवस्था अधिक सरल रह सकती है, क्योंकि हर स्थान पर अनुपलब्ध औषधियाँ इसी रूप में रोगी व चिकित्सक तक पहुँचाना हमारा लक्ष्य है, दूसरे जिस प्रकार खरल से चूर्ण किए जाने का विधान है, उसमें सूक्ष्मीकरण की विशेषता जुड़ जाने से औषधियों की प्रभाव क्षमता में और भी अधिक वृद्धि होने का सुनिश्चित तथ्य भी जुड़ा हुआ है ।

सूक्ष्मीकरण का विज्ञान
आयुर्वेद में खरल में दवा को पीसने व इससे उन औषधियों के गुण बढ़ने का विवेचन बड़े विस्तार से हुआ है । साधारण पीपल की तुलना में चौंसठ पहर तक पीसी गयी सूक्ष्मीकृत 'चौंसठ पहरी पीपल' को अत्यधिक गुणकारी माना गया है । 'डीशेन' की औषधियाँ इसी आधार पर बनाई जाती हैं । घुटाई-पिसाई से किसी भी औषधि के अणु-परमाणु को कैसे सूक्ष्मीकृत किया व प्रभावीशाली बनाया जा सकता है, इस तथ्य की ही प्रधानता चूर्ण के रूप जड़ीबूटी चिकित्सा में है । यूनानी व आर्युवेदिक योगों में भी खरलीकरण की व्याख्या इसी प्रयोजन से की जाती है ।

पाश्चात्य जगत में इसका प्रयोग करने वालों में डॉ. हैनिमैन को अग्रणी माना जाता है, जिन्होंने बाद में लक्षणों के आधार पर होम्योपैथी चिकित्सा को जन्म दिया । उन्होंने बताया कि यदि दवा लाभकारी सिद्ध होगी व कोई अवांछनीय प्रभाव भी पैदा नहीं करेगी । इस प्रक्रिया को उन्होंने टि्रपुरेशन, एटोमाइजेशन, पोटेन्शिएटाइजेशन जैसे नाम दिए । वस्तुतः इन सब से भाव वही निकलता है-सूक्ष्मीकरण । दवा को तनुकृत (डाइल्यूट) करते चले जाने से वे और भी अधिक प्रभावी हो जाती हैं ।

इस तथ्य को नकारते हुए आधुनिक शोधकर्त्ता कहते हैं कि वस्तुतः ऐसी औषधियों की सफलता का मुख्य कारण है उनका खरलीकरण-डाइनेमाइजेशन । इससे सूक्ष्म अणु और भी अधिक सूक्ष्मतम हो जाते हैं । अपनी पुस्तक 'सम रीसेण्ट रिर्सचेज एण्ड एडवान्टेज इन होम्योपैथी' में डॉ. पी. शंकरन लिखते हैं कि 'इन्फ्रारेड स्पेक्ट्रास्कोपी से कुछ सफल औषधियों का अध्ययन करने पर यह पाया गया है कि उनकी सक्रियता का मूल कारण था, उन्हें द्रव्य रूप देने के पूर्व अच्छी तरह घोंट-पीसा जाना ।' इसे उन्होंने 'झकझोरा जाना' कहा जाता है ।

डॉ. शुशलर की बायोकेमिक चिकित्सा पद्धति में भी मात्र बारह लवणों के आधार पर उन्हें सूक्ष्मीकृत रूप में देकर शरीर की कमियों को पूरा करने की चेष्टा की जाती है । उनके अनुसार कुछ माइक्रोग्राम लवण की मात्रा भली-भाँति घोंटी जाने पर इतनी सक्रिय हो जाती है कि वह सारे शरीर को समावस्था में लाने में समर्थ बन रोगी को स्वस्थ करने में सहायक सिद्ध होती है । चिकित्सा पद्धति कितनी सफल-असफल है, इस विवाद में न पड़कर यहाँ मात्र उस सिद्धांत की चर्चा की जा रही है, जिसके माध्यम से औषधि को सूक्ष्मीकृत व सक्रिय बनाया जाता है । एलोपैथी में भी अब 'माइक्राफाइण्ड' औषधियाँ दिए जाने की वैज्ञानिक स्तर पर चर्चाएँ चल पड़ी हैं तथा 'एस्पिरिन' आदि औषधियों व 'स्लोरिलीज कैप्सूल' के माध्यम से प्रयोग भी हुए हैं ।

खरलीकरण को ही क्यों प्रस्तुत चिकित्सा पद्धति में प्रधानता दी गई, इसके कुछ कारण प्रारंभ में बताए गए थे । यदि इस प्रक्रिया के वैज्ञानिक पक्ष पर थोड़ा विवेचन कर लें तो बात वजनदार-तर्क सम्मत बन जाती है । मेडीसिनल प्लाण्ट केमिस्ट्री व जैव रसायनशास्र में हुई शोधों से कई महत्त्वपूर्ण तथ्य हाथ लगते हैं ।

वैज्ञानिकों का कथन है कि खरलीकरण प्रक्रिया से काष्ठ औषधियाँ बहुत ही सूक्ष्मीकणों में विभक्त हो जाती है, जिनके तीन प्रमुख गुण होते हैं-प्रयोग भी हुए हैं ।
खरलीकरण को ही क्यों प्रस्तुत चिकित्सा पद्धति में प्रधानता दी गई, इसके कुछ कारण प्रारंभ में बताए गए थे । यदि इस प्रक्रिया के वैज्ञानिक पक्ष पर थोड़ा विवेचन कर लें तो बात वजनदार-तर्क सम्मत बन जाती है । मेडीसिनल प्लाण्ट केमिस्ट्री व जैव रसायनशास्र में हुई शोधों से कई महत्त्वपूर्ण तथ्य हाथ लगते हैं ।

वैज्ञानिकों का कथन है कि खरलीकरण प्रक्रिया से काष्ठ औषधियाँ बहुत ही सूक्ष्मीकणों में विभक्त हो जाती है, जिनके तीन प्रमुख गुण होते हैं- (१) प्रचण्ड गति, (२) क्षेत्रफल में विशालवृद्धि (३) अंतः में विद्युतीय परिवर्तन से आयनीकरण की ।

गति क्यों तेज हो जाती है, इसे समझाते हुए वैज्ञानिक बताते हैं कि खरल करने से वह पदार्थ 'कोलाइडल अवस्था' में परिवर्तित हो जाता है । यह रूपान्तरण कणों को अतिसक्रिय बना देता है । कोलाइडल कण एक सेण्टीमीटर के एक लाख से लेकर एक करोड़वें भाग तक छोटे होते हैं । ये अविचल चलते रहते हैं व इनकी गति अत्यधिक तीव्र होती हैं । एक सेकण्ड में एक पर घात उन्तीस (129) बार ये कण अपनी गत की दिशा में पलटते हैं ।

यह गति ही इन्हें शरीर में तेजी से फैलाने व औषधि की औषधि की जैव सक्रियता बढ़ाने में सहायक सिद्ध होते हैं । गुरुत्वाकर्षण की शक्ति से मुक्त ये कण कोलाइडल स्थिति में अधिक सक्रिय बन जाते हैं । औषधि की प्राणशक्ति बढ़ जाती है व जिस स्थान पर जाकर उन्हें सक्रिय होना है, वे मुक्तावस्था में तुरन्त पहुँच जाते हैं । इसे वैज्ञानिकों ने आधुनिक उपकरणों की मदद से 'आयोनिक टैनिंग' के बाद होते पाया है व वे आश्चर्यचकित भी हुए हैं ।

    
क्षेत्रफल की वृद्धि की विषय में 'सारनेक लेबोरेटरी न्यूयार्क' के डॉ. यंग ने कई प्रयोग किए हैं व पाया है कि कणों का माप सूक्ष्मीकरण से घटता चला जाता है व उसी अनुपात में क्षेत्रफल में गुणात्मक प्रवृद्धि होती चली जाती है । यह एक सुविदित तथ्य है कि किसी भी औषधीय कण का सक्रिय भाग उसकी सतह ही होती है । जैसे-जैसे ये सूक्ष्म होते चले जाते हैं, इनका अधिकाधिक भाग बाह्य वातावरण में संपर्क में आता है व सक्रियता बढ़ जाती है ।

ऊपर के दोनों परिवर्तनों की तुलना में तीसरा विद्युतीय परिवर्तन कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है । डाइनेयाइजेशन प्रक्रिया जो खरलीकरण के बाद होती समझी जाती है और कुछ नहीं विद्युत्सक्रियता में वृद्धि ही है । आण्विक व परमाणविक स्तर पर विद्युतीय शक्ति सक्रिय हो जाती है व यही औषधि कणों को चीरकर जीवकोषों में प्रवेश करने (पेनिट्रेशन) का आधार बनती है ।

फ्राँस के डॉक्टर गे एवं वायरान ने पाया है कि सूक्ष्मीकृत कणें की विद्युतीय प्रतिबाधा में (इलेक्टि्रकल इम्पीनेन्स) अत्यधिक वृद्धि होती है व इस अब तक अज्ञात भौतिक शक्ति को औषधि की परवैद्युत सामर्थ्य (डाइलेक्टि्रक केपेसिटी) के रूप में नापा जा सकता है । इंग्लैण्ड के डॉ. डब्ल्यू.ई.बायड ने अपने प्रयोगों द्वारा यह प्रमाणित कर दिखाया है कि खरलीकरण प्रक्रिया से औषधि की 'लैटीस' बनावट छोटे-छोटे टुकड़ों में टूट जाती है । उन्मुक्त हुई लैटीस ऊर्जा विद्युतीय शक्ति के रूप में उपलब्ध रहती है ।

पदार्थ के स्थूल रूप में छिपी यह शक्ति घुटाई प्रक्रिया के कारण ही अपने सही आण्विक स्वरूप में प्रकट हो पाती है । वे कहते हैं कि इस स्वरूप में इन कणों का 'इन्फ्रारेड एब्सर्वेशन स्पेक्ट्रम' पद्धति के प्रयोग द्वारा इनकी क्षमता सक्रियता में वृद्धि को अब अमेरिकन वैज्ञानिक श्री स्मिथ एवं बोरिक भी प्रयोगशाला में सिद्ध कर चुके हैं । उन्होंने इसके अतिरिक्त खरलीकरण प्रक्रिया के बाद 1.5 से .5 मिलीवोल्ट का विद्युत विभव कोलाइडल कणों की ऊपरी सतह पर पाया है ।

इस प्रकार विज्ञान की दृष्टि से भी व शास्रोक्त सभी प्रतिपादनों की कसौटी पर भी परखे जाने पर सूक्ष्मीकरण प्रक्रिया खरी उतरती है । चूर्ण रूप में बिना किसी सम्मिश्रण के अनुपान के तीन चार साधनों के माध्यम से ग्रहण किए जाने पर औषधि परिपाक अच्छी तरह व तेजी से होता है ।

अनुपान भेद से चिकित्सा का तत्वज्ञान
अनुपान वे पदार्थ कहे जाते हैं जो औषधि के माध्यम या वाहक के नाते रोगी को अनिवार्यतः लेने को कहा जाता है । जल, दूध, मधु जेसे तरल पदार्थों को 'वेहीकल' मानकर अनुपान के रूप में अक्सर प्रयुक्त किया जाता है । औषधि वाहक के गुण तो सौंफ, शुण्ठी, हरिद्रा आदि के ताजे स्वरस एवं अन्य औषधियों में भी होते हैं, पर प्रस्तुत पद्धति में उन्हीं को अनुपान के रूप में प्रयुक्त किया जा रहा है जो औषधि की क्षमता को प्रखर व ग्रहण करने की सामर्थ्य बढ़ा देते हैं । अनुपान अन्य अर्थों में अर्क, क्वाथ आदि की तरह भी प्रयुक्त हो सकता है पर जल ठण्डा या गर्म, दुग्ध एवं मधु जैसे सरल सर्वोपलब्ध तरल माध्यमों को ही औषधि वाहक की तरह प्रयुक्त किया जाता है ।

दुग्ध अनुपान के रूप में-दूध एक सुपाच्य एवं स्वयं में पूर्ण आहार है । किन्हीं-किन्हीं औषधियों के साथ प्रयुक्त होने पर यह उनकी क्षमता व प्रभाव को कई गुना बढ़ा देता है । दूध में पाए जाने वाले एन्जाइम्स तथा वसा के छोटे-छोटे कणों का घोल साथ में दी गई किसी भी औषधि को आसानी से घुल सकने व जीवकोषों में प्रवेश करने योग्य बना देता है । आई.सी.ए.आर. के प्रकाशन 'मिल्क प्रोटीन्स' के अनुसार अब तक दूध में कम से कम 12 एन्जाइम्स पहचान लिए गए हैं । इनका होना ही दूध के साथ लिए गए अन्य पदार्थों को सुपाच्य बना देता है ।

एल्केलाइन फास्फेटेस, एसिड फॉस्फेटेस, केटेलेस, साइदोक्रोम-डी-रिडक्टेस इत्यादि एन्जाइम्स लगभग सभी जातियों के कार्बनिक एवं अकार्बनिक यौगिकों को, जड़ी-बूटियों के जटिल एल्केलाइडों-ग्लाइकोसाइडों को विखण्डित करने की क्षमता रखते हैं । दूध का अनुपान निश्चित ही शरीर की सहायता को आगे आता है व औषधि को और ग्राह्य बना देता है । दूध उबला न हो, कच्चा ही हो जरूरी नहीं । गर्म होने पर भी उसके विटामिन नष्ट हो सकते हैं, एन्जाइम्स नहीं ।

गाय, भैंस व बकरी के दूध का तुलनात्मक अध्ययन भी किया गया है । अधिकांश विशेषण कर्त्ता मानते हैं कि गाय का दूध भैंस के दूध से ज्यादा श्रेष्ठ है । यह मात्र गाय दुग्ध की कारण शक्ति या पवित्रता ही के कारण नहीं, अपितु वैज्ञानिक दृष्टि से भी सही पाया गया है । बकरी का दूध गाय के दूध से अधिक सुपाच्य होते हुए भी रासायनिक संरचना की दृष्टि से नीचा ही ठहरता है ।

दूध में विद्यमान वसा का कोलाइडल घोल सतह का क्षेत्रफल बढ़ जाने के कारण एन्जाइमों की क्रियाशीलता को बढ़ा देता है । औषधि के कण दूध में मिलकर सूक्ष्मीकृत अवस्था में अन्दर पहुँच जाते हैं और अपना प्रभाव दिखा पाने में समर्थ होते हैं ।
मधु का अनुपान-फूलों के रसों का परिवर्धित स्वरूप ही मधु है जिसे मधुमक्खियाँ अपने पेट की विशेष थैली में जमा करती है । इस रस को बाद में वे और भी अधिक सक्रिय हारमोन्स-एन्जाइम्स प्रधान रस बनाकर छत्ते में जमाकर देती है ।

सांद्रता की गति इतनी तीव्र होती है कि मधु में मात्र दस प्रतिशत जल शेष रहता है । पौधों के फूलों तथा मक्खियों दोनों के ही जैव सक्रिय पदार्थों की शहद में प्रचुर मात्रा रहती है । ऐसे में औषधियों को शहद के साथ लेने से उनका पाचन व रक्त में अवशोषण शीघ्र संपन्न हो जाता है । मधु में लगभग 45 प्रतिशत ग्लूकोज होता है तथा फ्रूक्टोस व सुक्रोस भी काफी मात्रा में होते हैं । इनसे रोगी को तुरन्त ऊर्जा मिलती है । औषधि के प्रवेश की गत तो बढ़ती ही है । आचार्य सुश्रुत ने कहा है-

तद्युक्तं विविधैर्योगैविनिहन्त्यामयान बहून् । नाना द्रव्यात्तमकत्वाच्च्ायोगवाहि परं मधु॥

अर्थात् मधु एक उत्तम योगवाही द्रव्य है ।
इसी प्रकार आचार्य प्रियव्रत शर्मा भी मधु को सर्वश्रेष्ठ प्रवाहिका द्रव्य मानते हुए अनुपान के रूप में उसे दिए जाने का समर्थन करते हैं । मधु को जल की सम मात्रा में गर्भ अवस्था में तथा घृत के साथ मात्रा में दिए जाने का निषेध किया गया है, क्योंकि यह रासायनिक क्रिया द्वारा अन्दर विपरीत क्रिया कर सकता है ।


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