जड़ीबूटियों द्वारा चिकित्सा

घृतकुमारी

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घी के समान तापच्छिल पीत मज्जा होने से इसे घृतकुमारिका अथवा घीकुँआर कहा जाता है । इसका क्षुप बहुवर्षायु 30 से 60 सेण्टीमीटर ऊँचा होता है । पत्तियाँ माँसल, भालाकार, एक से दो फीट लम्बी, 3-4 इंच चौड़ी, अग्रभाग में तीक्ष्ण गूदेदार, बाहर से चमकीले हरे रंग की होती हैं ।

पत्तों का चौड़ा हिस्सा कुछ मुड़ा-काँटों युक्त होता है । पत्ते बढ़ने व क्षुप के कुछ पुराने होने पर पत्रों के बीच से एक मुसल निकलता है जिस पर रक्ताभ पुष्प निकलते हैं । कभी-कभी एक से सवा इंच लंबी फलियाँ भी शीत ऋतु में आती हैं । घीकुँआर में मुख मार्ग से प्रयुक्त औषधि निर्माण हेतु कड़ुवी जाति प्रयुक्त होती है । जिसे विशेष रूप से बोया जाता है । सामान्यतया खेतों की मेड़ों पर या जंगलों में पाई जानेवाली कुछ मिठास भरा गूदा लिए होती है तथा बाह्य प्रयोग के लिए ही इस्तेमाल होती है ।

आयुर्वेद मतानुसार यह लेप हेतु उत्तम वस्तु है । इसके गूदे को पेट पर बाँधने से पेट के अन्दर की गाँठें गल जाती हैं, कड़ा पेट मुलायम होता है तथा आँतों में जमा मल बाहर निकल जाता है । श्री नादकर्णी ने अपनी पुस्तक 'मटेरिया मैडीका' में ऐलोवेरा के बाह्य उपयोगों की खुले शब्दों में प्रशंसा की है । वे लिखते हैं कि घृतकुमारी का गूदा व्रणों को भरने के लिए सबसे उपयुक्त औषधि हे । विशेषकर अमेरिका में 'रेडिएशन' के कारण हुए असाध्य व्रणों पर इसके प्रयोग से असाधारण सफलता मिली है ।

श्री दस्तूर के अनुसार घृतकुमार की पुल्टिस अर्बुद 'सिस्ट' सूजन दाह तथा अधपके व्रणों में अत्यधिक लाभ करती है । यूनानी औषधि विज्ञान में इसे सिब्र या मुसब्बर नाम से जाना जाता है और इसके अनेकों बाह्य प्रयोगों का वर्णन यूनानी व तिब्बती चिकित्सा पद्धति में मिलता है । इस औषधि में एलोइन, आइसोवारबेलिन, इमोडिन, क्राइसोफेनिक अम्ल आदि अनेकों रसायन मिले हैं । इसके ये सभी घटक तथा एन्जाइम्स (ऑक्सीडेस वकेटेलेस) घावों को भरने तथा स्थानीय प्रयोगों में सहायक होते हैं ।

आधुनिक भेषज में भी घृतकुमारी के उपरोक्त वर्णित बाह्य प्रयोगों के समर्थन में कई अभिमत मिलते हैं । प्रायोगिक जीवों पर विकिरण जन्य दाह तथा व्रणों पर प्रयोग कर यह पाया गया है कि घृतकुमारी के प्रयोग से अन्य औषधियों की अपेक्षा जल्दी दग्धों के भरने की दर बढ़ती है । जीवों के अन्दर इन घावों को भरने वाले, एन्जाइम्स की मात्रा में अत्यधिक वृद्धि होती पायी गई है । इस औषधि में पाया जाने वाला क्रांईसोफेनिक अम्ल भी प्रचण्ड जीवाणुनाशी है ।

बाह्य प्रयोगों के लिए घीकुँआर के पत्रों से प्राप्त लसीला द्रव्य जो सफेद गूदे के रूप में होता है, प्रयुक्त होता है । जले स्थान, त्वचा रोगों, जीर्ण व्रणों, अर्बुदों, स्तन्यशोथ, पाइल्स (अर्श) में लुगदी की पुल्टिस लगायी जाती है । इसका गूदा आँखों में लगाने से लाली व गर्मी दूर होती है । वायरस कंजक्टीवाईटिस में यह लाभ करती है ।



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