अपां दोषान् मार्जयति संशोधयति इति अपामार्गः । अर्थात् जो दोषों का संशोधन करे, उसे अपामार्ग कहते हैं ।
यह एक सर्वविदित क्षुपजातीय औषधि है जो चिरचिटा नाम से भी जानी जाती है । वर्षा के साथ ही यह अंकुरित होती है, ऋतु के अंत तक बढ़ती है तथा शीत ऋतु में पुष्प फलों से शोभित होती है । ग्रीष्म ऋतु की गर्मी में परिपक्व होकर फलों के साथ ही क्षुप भी शुष्क हो जाता है । इसके पुष्प हरी गुलाबी आभा युक्त तथा बीज चावल सदृश होते हैं, जिन्हें ताण्डूल कहते हैं ।
शरद ऋतु के अंत में पंचांग का संग्रह करके छाया में सुखाकर बन्द पात्रों में रखते हैं । बीज तथा मूल के पौधे के सूखने पर संग्रहीत करते हैं । इन्हें एक वर्ष तक प्रयुक्त किया जा सकता है ।
अपामार्ग मूलतः मानस रोगों के लिए मुख मार्ग से प्रयुक्त होता है, पर बाह्य प्रयोग के रूप में भी इसका चूर्ण मात्र सूँघने से आधा शीशी का दर्द, बेहोशी, मिर्गी में आराम मिलता है । नेत्र रोगों में इसका अंजन लगाते हैं एवं कर्णशूल में अपामार्ग क्षार सिद्ध तेल ।
चर्म रोगों में इसके मूल को पीसकर प्रयुक्त करते हैं । इसके पत्रों का स्वरस दाँतों के दर्द में लाभ करता है तथा पुराने से पुरानी केविटी को भरने में मदद करता है । व्रणों विशेषकर दूषित व्रणों में इसका स्वरस मलहम के रूप में लगाते हैं ।इसका बाह्य प्रयोग विशेष रूप से जहरीले जानवरों के काटे स्थान पर किया जाता है । कुत्ते के काटे स्थान पर तथा सर्पदंश-वृश्चिक दंश अन्य जहरीले कीड़ों के काटे स्थान पर ताजा स्वरस तुरन्त लगा देने से जहर उतर जाता है यह घरेलू ग्रामीण उपचार के रूप में प्रयुक्त एक सिद्ध प्रयोग है ।
काटे स्थान पर बाद में पत्तों को पीसकर उनकी लुगदी बाँध देते हैं । व्रण दूषित नहीं हो पाता तथा विष के संस्थानिक प्रभाव भी नहीं होते । बर्र आदि के काटने पर भी अपामार्ग को कूटकर व पीसकर उस लुगदी का लेप करते हैं तो सूजन नहीं आती । शोथ वेदना युक्त विकारों में इसका लेप करते हैं अथवा पुल्टिस बनाकर सेकते हैं । वेदना मिटती है व धीरे-धीरे सूजन उतर जाता है |