जड़ीबूटियों द्वारा चिकित्सा

हरिद्रा

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इसे शरीर का वर्ण ठीक करने के कारण ही हरिद्रा नाम दिया गया है । (हरि वर्ण प्राप्त संशोधयतीति हरिद्रा) (हल्दी की फसल 9-10 मास में तैयार हो जाती है । जब नीचे की पत्तियाँ सूख कर पीली पड़ जाती हैं, तब कन्द खोदकर अलग कर लिए जाते हें । इन सूखे कन्दों को एक वर्ष तक प्रयोग कर सकते हैं ।

भाव प्रकाश निघण्टु के अनुसार बाह्य प्रयोग करने पर हरिद्रा त्वचा दोष का निवारण करती है । श्री नादकर्णी ने हल्दी के चूर्ण पेस्ट, मल्हम, तेल, लोशन तथा धुएँ को नासिका मार्ग से ग्रहण करने का वर्णन किया है । उनके अनुसार ताजी हल्दी का स्वरस व्रणों, नील (ब्रूसेज), कीड़ों आदि के काटे स्थानों पर लगाने से तुरंत लाभ करता है । दूषित रक्त के कारण त्वचा रोगों में इसका बाह्य प्रयोग लाभकारी माना गया है । दाह, जलन आदि में हल्दी चूना लगाने का घरेलू उपचार सभी जानते हैं ।
यूनानी में इसे जर्द चोब नाम से जाना जाता है । इसे वर्ण प्रसाधन तथा चोट आदि में लाभकारी माना गया है । रासायनिक संरचना की दृष्टि से हल्दी के मुख कार्यशील घटक कुरकुमिन नामक यौगिक, सुगंधित तेल टरमेरिक आइल तथा टर्पीनाइड नामक पदार्थ हैं ।

हल्दी त्वचा की चोट अथवा व्रणों के कारण हुई सूजन में क्यों लाभ करती है, इस संबंध में वैज्ञानिकों के पास अब पचुर मात्रा में भैषजीय प्रमाण हैं । श्री त्रिपाठी इण्डियन जनरल ऑफ फर्मेकोलॉजी 5/260/1973 के अनुसार यह सूजन के लिए उत्तरदायी 'प्रोटिएस एन्जाइमों' की सक्रियता को कम करती है । ये एन्जाइम हैं-टि्रप्सिन एवं हायएल्यूरोनिडेस । इन्हीं के माध्यम से किसी स्थान विशेष पर सूजन अथवा दर्द की स्थिति बनती है । हल्दी के उड़नशील तेल में एण्टी हिस्टेमिनिक (एलर्जी प्रतिरोधी) गुण पाए जाते हैं ।

डॉ. श्रीमाली (इण्डियन जनरल ऑफ फर्मेकॉलाजी 3, 10, 1971) के अनुसार हल्दी का रंजक पदार्थ कुरकुमिन भी शोथ उतराने का गुण रखता है । हरिद्रा में कई प्रकार के जीवाणुओं को नष्ट करने या उनके विषों को निष्प्रभावी करने की सामर्थ्य पायी गयी है । यह ग्राम पॉजिटिव तथा नेगेटिव दोनों ही प्रकार के जीवाणुओं का नाश करतती है । जीवाणु कई प्रकार कवक बनाकर औषधियों के लिए भी दुष्कर सिद्ध हो जाती हैं । ऐसी स्थिति में हरिद्रा स्थित उत्पत तेल कवक को भेदकर जीवाणुओं को व्रणें में मारने की क्षमता रखता है ।

हल्दी को व्यवहार में शोथ, चोट, मोच एवं अस्थि भग्न, व्रणों को पकाने के लिए, व्रणों को शोधन करने के लिए अर्कुद-कार-बंकल आदि में भरे पस को निकाल कर बाहर करने के लिए गर्म लेप, सेंक, पुल्टिस, मलहम आदि के रूप में प्रयुक्त करते हैं । इसके अतिरिक्त पीसी हुई हल्दी तिल के तेल में मिलाकर मर्दन करने से चर्मरोगों में लाभ करती है । कुष्ठ रोग में भी इसके स्थानीय प्रयोग से घाव जल्दी भरते हैं तथा रोग के समूल नष्ट होने की सम्भावनाएँ बढ़ती हैं ।

कण्डू रोग (स्केबीज) में इसके पेस्ट का लेप खुजली को मिटाता है । चिकनपॉक्स (छोटी माता) में हल्दी का चूर्ण लगाने से पपड़ियाँ आराम से उतर जाती हैं तथा व्रण सुधरता है । हर्पीज जोस्टर तथा पेम्फीगस जैसी असाध्य त्वचा व्याधियों में हल्दी को सरसों के तैल के साथ लगाने से शीघ्र ही आराम मिलता है, ऐसा डॉ. नादकर्णी का अनुभव है । बिच्छूदंश में भी हल्दी के टुकड़े स्थानीय उपचार रूप में अथवा चूर्ण का धूम्र देने से लाभ होता है ।

आँखों की सूजन, लाली, दर्द में 30 ग्राम कुचली हल्दी का लगभग आधे लीटर जल में क्वाथ बनाकर उससे आँखें धोते हैं ।



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