जड़ीबूटियों द्वारा चिकित्सा

शतावर (एस्पेरेगस रेसिमोसस)

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इसे शतमली, शतवीर्या, बहुसुता भी कहते हैं । इसके लैटिन नाम के संबंध में काफी मतभेद रहा है पर अब यह निर्विवाद रूप से मान लिया गया है कि एस्पेरेगस रेसिमोसस ही शतावर है ।

वानस्पतिक परिचय-
शतावर ग्रीष्म ऋतु के मध्य में एक काँटेदार कंद युक्त बेल के रूप में प्रकट होती है । यह भारतवर्ष के समस्त गर्म, समशीतोष्ण क्षेत्रों में तथा हिमालय में 4000 फुट की ऊँचाई तक मिलती है । एक और काँटे रहित जाति हिमलाय में 4 से 9 हजार फीट की ऊँचाई तक मिलती है, जिसे एस्पेरेगस फिलिसिनस नाम से जाना जाता है ।

यह एक डेढ़ गज आगे बढ़कर एक ओर मुड़कर बाढ़ के रूप में या किसी वृक्ष का सहारा लेकर ऊँचे चढ़ जाती है । इसके काँटे कुछ टेड़े 6 से 12 मिली मीटर लंबे होते हैं । शाखाएँ चारों ओर अत्यधिक फैली होती हैं । प्रशाखाएँ त्रिकोणाकार, चिकनी किन्तु रेखांकित होती हैं । पत्र शाखाएँ 2 से 6 इंच तक लंबी होती हैं । पत्र पुष्पों से रहित लता देखने में काँटे वाली सफेद डण्डी जैसी दिखाई देती है । पत्ते महीन डेढ़ से एक इंच लंबे नोंकदार, हंसिए के आकार के अधः पृष्ठ पर नालीदार होते हैं । ये दीखते सोये के पत्तों जैसे हैं । पुष्प मंजरी 1 से 2 इंच लंबी एकल या गुच्छेबद्ध होती है । इसमें सुगंधित छोटे-छोटे पुष्प लगते हैं । पुष्प सफेद तथा 3 से 5 मिलीमीटर व्यास के होते हैं । नवम्बर के माह में एक ही समय में एक साथ हजारों फूल खिलने लगते हैं, जिससे सारी लता ही सफेद दिखाई देने लगती है ।

फल शीतकाल में अंत में गोलाकार, मटर के आकार के लगभग चौथाई इंच व्यास के होते हैं जो पकने पर लाल रंग के हो जाते हैं । कुछ गोल व कुछ तिकोने होते हैं । बीज प्रत्येक फल में एक या दो, रंग में काले तथा चौथाई इंच व्यास के होते हैं ।
शतावरी के कंद में से सैकड़ों मूल निकलते हैं, जो अँगुलि जैसे मोटे, एक से डेढ़ फुट लंबे, धूसर पीले, स्वाद में कुछ मधुर तथा फिर कड़वे लगने लगते हैं । एक-एक बेल के नीचे से सैकड़ों जड़ें निकलती हैं । इन्हीं श्वेत मूल गुच्छों का प्रयोग चिकित्सा कार्य हेतु होता है । इसे ही सुखाकर बाजार में शतावर के नाम से बेचा जाता है ।

शुद्धाशुद्ध परीक्षा-
शतावरी को सफेद मूसली से अलग पहचानना आना चाहिए । सफेद मूसली का लेटिन नाम एस्पेरेगम एडसेण्डैन्स है । सफेद मूसली की जड़ सफेद गांठ युक्त होती है । बाजार में उपलब्ध मूसलीकन्द की छाल झुर्रीदार, स्वच्छ, हाथी दाँत के समान सफेद, 2 इंच से ढाई इंच लंबी, लगभग सवा इंच मोटी, कड़ी व फीके स्वाद वाली होती है । यह लोआबदार होती है तथा तोड़ने पर भुरभुरी । इसके विपरीत शतावरी के सूखे कन्दों का बाह्य तल कुछ अधिक भूरे रंग का तथा सिकुड़ा हुआ होता है । इस पर एक सिरे से दूसरे सिरे तक अनुलंब रेखाएँ होती हैं तथा बीच का तल कुछ खोखला सा नतोदर आकार का होता है । बहुधा इस औषधि में मिलावट होती है अतः शुद्ध वनौषधि को रंग स्वाद व आकार से पहचानकर ही ग्रहण करना चाहिए ।

संग्रह संरक्षण-
शतावर की जड़ों को सुखाकर मुख मंद पात्रों में सूखे स्थान पर रखते हैं । इसका प्रयोग संग्रहोपरांत एक वर्ष तक आसानी से किया जा सकता है । इसके बाद वीर्य समाप्त हो जाता है ।
गुण, कर्म संबंधी विभिन्न मत-आचार्य चरक ने शतावर को वल्य और वयः स्थापन मधुर स्कंध बताया है जबकि सुश्रुत इसे कटक पंचमूल तथा पित्तशामक समूह का मानते हैं । चरक संहिताकार के अनुसार समान्य द्रव्य तो मात्र धातु को बल प्रदान करते हैं, परन्तु शतावर तो मास, शुक्र और स्तन्य को विशेष रूप से बल देती है । इसीलिए इसे बल्य महाकषाय की उपमा आचार्य श्री ने दी है ।

आचार्य सुश्रुत के अनुसार शतावर सूखा रोग, कमजोरी (शोष एवं अंगमदं) में बल प्रदायक है तथा दूषित शुक्र का शोधन करती है । बागभट्ट लिखते हैं कि जो मनुष्य शतावरी कल्क और स्वरस से सिद्ध किया हुआ घृत मिश्री के साथ नित्य सेवन करता है, उसे व्याधि रूपी डाकू कभी लूट नहीं सकते ।

भाव प्रकाश निघण्टु कार के अनुसार यह गुरु, शीत, तिक्त रसायन है जो मेधा को बढ़ाती है, अग्निवर्धक है, वात-पित्त शोथ निवारक तथा शुक्र दौर्बल्य को मिटाती है । वनौषधि चन्द्रोदय के अनुसार हमारे शरीर में स्थित वात नाड़ी संस्थान का केन्द्र मस्तिष्क है । इस संस्थान से असंख्यों वात नाड़ियाँ सारे शरीर में फैली होती हैं । इनमें विद्युतप्राण ही प्रत्यक्ष धातु के रूप में विचरण करता है । शतावर इस वात संस्थान एवं वात धातु को बल प्रदान करती है, जिससे मेधा, बुद्धि, मानस शक्ति और देह के अंग उपांग सब सबल बनते हैं ।

धन्वनतरि निघण्टुकार लिखते हैं-शतावर राजयक्ष्मा से लेकर किसी जीर्ण रोगी को पुनः बल तथा रोग से लडने की सामर्थ्य प्रदान करती है । गुणों का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि 'वात पित्तहरी बृष्या रसायनवरा स्मृता' यह एक प्रबल मेधावर्धक पुष्टिवर्धक रसायन है ।

श्रीनादकर्णी के अनुसार शतावरी की जड़ समग्र पोषण प्रदान करने वाली एक टॉनिक रूपी औषधि है । यह आंतरिक चयापचय जन्य गर्मी को शांत कर बल प्रदान करती है । 'वेल्थ ऑफ इण्डिया' के अनुसार शतावरी एक पौष्टिक पौधा है । इसमें जो रसायन हैं, वे प्रकृति की मनुष्य को अद्भुत देन है । सारे शरीर में जहाँ कमी है, ठीक वहीं इसके रसायन पहुँचते हैं एवं सूक्ष्म रूप में घुलकर सात्मीकरण की स्थिति ला देते हैं । श्री जे. एफ. दस्तूर अपनी पुस्तक 'मेडीसिनल प्लाण्ट्स ऑफ इण्डिया एण्ड पाकिस्तान' में शतावरी को पुष्टिकारक बनाते हैं ।

होम्योपैथी में शतावरी की यूरोपियन जाति एस्पेरेगस ऑफिसिनेलिस का प्रयोग प्रधान रूप से हुआ है । यह अनेकों प्रकार की दुर्बलताओं में लाभकारी पायी गई है । यूनानी में शतावरी को पहले दर्जे में ठण्डा तथा स्निग्ध माना गया है । इसका प्रयोग बलवर्धक के रूप में किया जाता है । हकीम लोग इसका हब्बुलसगोवर नामक योग प्रयुक्त करते हैं ।

अंत में वैद्य जीवन से उद्घृत एक टिप्पणी देना समीचीन होगा जो शतावरी के गुण कर्मों पर प्रकाश डालती है । भुक्तवा वरीं क्षीरयुक्तां विलासी भुक्तं शत सुन्दरि । सुन्दरीणाम् ।

रासायनिक संरचना-
इसमें शेष्मक (म्यूलिसेज पिच्छिल द्रव्य) तथा शर्करा प्रचुरता से पाए जाते हैं । इनके अलावा वैज्ञानिकों ने शतावर में अनेकों सैपोनिन भी पाए हैं । हकीमराज दलजीतसिंह के अनुसार इसके जल विलेय में 7 प्रतिशत शक्कर होती है । उसके कंद में जो सैपोनिन पाए गए हैं उनका प्रधान कार्य गर्भाशय संकोचन का शमन है । इसकी वल्य सामर्थ्य शर्करा, म्युसिलेज, सैपोनिन्स तथा अन्य ऐसे सूक्ष्म रसायनों पर निर्भर है, जो शरीर में कार्य तो करते हैं, पर जिनका विश्लेषण अभी संभव नहीं हो पाया है । वैज्ञानिक इस दिशा में प्रयतनशील हैं, पर अभी भी यह एक रहस्य ही बना हुआ है कि किस प्रकार यह औषधी सीधे एण्ड्रोक्रांइन ग्लैण्ड्स व अन्य सूक्ष्म रसस्रावों को प्रभावित कर बलवर्धक की भूमिका निभाती है ।

आधुनिक मत एवं वैज्ञानिक प्रयोग निष्कर्ष-
शतावर की जड़ सीधे हृदय को प्रभावित कर उसे सामर्थ्य प्रदान करती है । हृदय की संकोच क्षमता बढ़ती है व प्रत्येक धड़कन के साथ अधिक मात्रा में शुद्धीकृत रक्त शरीर के अंग-प्रत्यंगों में पहुँचता, उन्हें प्रभावित करता है ।

सैपोनिन्स गर्भाशय की गतिविधि को संतुलित करते हैं और संकुचन क्षमता कम करते हैं । यह एक प्रकार से गर्भाशय उत्तेजना शामक है । श्री जेडमलानी (जनरल ऑफ रिसर्च इन इण्डियन मेडीसिन 2, 1, 1976) के अनुसार शतावर की जड़ का निष्कर्ष पिटुटरी एड्रोनल एक्सिस पर प्रभाव डालकर कई हारमोन रसों के स्रावों को प्रभावित करता है । श्री डांगे प्लाण्टा मेडिका (17, 393, 1969) में लिखते हैं कि शतावर की ताजी व सुखाई गई जड़ में कई एन्जाइमों की गतिविधि विशेष रूप से दृष्टिगोचर हुई है । इनमें कार्बोहाइड्रेटों को प्रभावित करने वाले एन्जाइम अल्फा एवं वीटा अमाइलेस तथा वसा को प्रभावित करने वाले लाइपेस नामक एन्जाइम्स प्रमुख हैं ।

ग्राह्य अंग-
जड़ (कंद) श्री नादकर्णी कहते हैं कि तने की छाल जहरीली होती है । उसका प्रयोग न कर मात्र कंद प्रयोग में लाए जाएँ ।

मात्रा-
स्वरस- २ से ४ चम्मच (२०-२० मिली लीटर) दिन में दो बार । चूर्ण- ३ से ६ ग्राम दिन में दो बार । क्वाथ- ५० से १०० मिली लीटर (लगभग २ से ३ औंस)
जहाँ तक संभव हो शतावरी गीली ही प्रयुक्त हो । यह गीली न मिले तो ही सुखा चूर्ण प्रयुक्त किया जाए ।

निर्धारणानुसार-
शतावर का चूर्ण, क्वाथ (जल की मात्रा चूर्ण से बीस गुनी अधिक), घी (२ से ४ मक्खन इतना ही शतावर स्वरस तथा दस गुना घी उबालकर) मुरब्बा तथा स्वरस ये पाँच प्रकार के प्रायोगिक स्वरूप हैं । वीर्य वृद्धि, शुक्र दौर्बल्य के लिए शतावर चूर्ण दूध में उबाल कर प्रयुक्त होता है । गर्भस्राव (एण्टीपार्टम हेमरेज) रक्त प्रदर तथा स्तन्य क्षय में यह उपयोगी है । स्रियों के लिए यह उत्तम रसायन है । स्तन्य वृद्धि तथा दूध की मात्रा बढ़ाने के लिए इसका प्रयोग करते हैं ।

क्षय रोग के बाद की दुर्बलता तथा मस्तिष्क दौर्बल्य में भी यह उत्तम टॉनिक का काम करता है । दृष्टि मंदता को मिटाता है । संभवतः इसका प्रभाव सीधे रेटीना के स्नायु कोशों पर होता है । स्वप्न दोष के लिए दूध में उबाली हुई जड़ देते हैं तथा मिश्री के साथ २-२ चम्मच रोज पिलाते हैं । इसमें ताजी जड़ का स्वरस व मिश्री का अनुपान और भी अधिक लाभकारी है ।

अन्य उपयोग-
इसे अनिद्रा रोग, शिरोशूल, वात व्याधि में सफलतापूर्वक प्रयुक्त करते हैं । मिर्गी के रोग, मुच्छर्, हिस्टीरिया की भी यह अचूक औषधि है । यह रक्तचाप भी कम करता है । अम्ल पित्त निवारक है तथा अग्नि उद्दीपक है । हर दृष्टि से यह एक उपयोगी रसायन, वल्य, मेध्य औषधि है, जिस पर अभी भी शोध की पूरी-पूरी संभावनाएँ हैं ।



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