जड़ीबूटियों द्वारा चिकित्सा

गिलोय (टीनोस्पोरा कार्डीफोलिया)

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यह एक बहु वर्षायु आरोहिणी लता है, जो समस्त भारतवर्ष में पायी जाती है । इसे गुडूची, अमृता, मधुपर्णी, तंत्रिका, कुण्डलिनी जैसे नाम भी दिए गए हैं । भाव प्रकाश निघण्टुकार के अनुसार-

ततो येयु प्रदेशेषु कपिगात्रात् परिच्युताः । पीयुषबिन्दवः पेतुस्तेभ्यो जाता गुडूचिका॥

'बहुवर्षायु तथा अमृत के समान गुणकारी होने से इसका नाम अमृता है ।' आर्युवेद साहित्य में इसे ज्वर की महान् औषधि माना गया है एवं जीवन्तिका नाम दिया गया है ।

वानस्पतिक परिचय-
गिलोय की लता जंगलों, खेतों की मेड़ों, पहाड़ों की चट्टानों आदि स्थानों पर सामान्यतया कुण्डलाकार चढ़ती पाई जाती है । नीम आम्र के वृक्ष के आस-पास भी यह मिलती है । जिस वृक्ष को यह अपना आधार बनती है, उसके गुण भी इसमें समाहित रहते हैं । इस दृष्टि से नीम पर चढ़ी गिलोय श्रेष्ठ औषधि मानी जाती है । इसका काण्ड छोटी अंगुली से लेकर अंगूठे जितना मोटा होता है । बहुत पुरानी गिलोय में यह बाहु जैसा मोटा भी हो सकता है । इसमें से स्थान-स्थान पर जड़ें निकलकर नीचे की ओर झूलती रहती हैं । चट्टानों अथवा खेतों की मेड़ों पर जड़ें जमीन में घुसकर अन्य लताओं को जन्म देती हैं ।

बेल के काण्ड की ऊपरी छाल बहुत पतली, भूरे या धूसर वर्ण की होती है, जिसे हटा देने पर भीतर का हरित मांसल भाग दिखाई देने लगता है । काटने पर अन्तर्भाग चक्राकार दिखाई पड़ताहै ।

पत्ते हृदय के आकार के, खाने के पान जैसे एकान्तर क्रम में व्यवस्थित होते हैं । ये लगभग 2 से 4 इंच तक व्यास के होते हैं । स्निग्ध होते हैं तथा इनमें 7 से 9 नाड़ियाँ होती हैं । पत्र-डण्ठल लगभग 1 से 3 इंच लंबा होता है । फूल ग्रीष्म ऋतु में छोटे-छोटे पीले रंग के गुच्छों में आते हैं । फल भी गुच्छों में ही लगते हैं तथा छोटे मटर के आकार के होते हैं । पकने पर ये रक्त के समान लाल हो जाते हैं । बीज सफेद, चिकने, कुछ टेढ़े, मिर्च के दानों के समान होते हैं । उपयोगी अंग काण्ड है । पत्ते भी प्रयुक्त होते हैं ।

पहचान, मिलावट, सावधानियाँ-
ताजे काण्ड की छाल हरे रंग की तथा गूदेदार होती हैं । उसकी बाहरी त्वचा हल्के भूरे रंग की होती है, पतली कागज की पत्तों के रूप में छूटती है । स्थान-स्थान पर गांठ के समान उभार पाए जाते हैं । सूखने पर यही काण्ड पतला हो जाता है । सूखे काण्ड के छोटे-बड़े टुकड़े बाजार में पाए जाते हैं, जो बेलनाकार लगभग 1 इंच व्यास के होते हैं । इन पर से छाल काष्ठीय भाग से आसानी से पृथक् की जा सकती है । स्वाद में यह तीखी होती है, पर गंध कोई विशेष नहीं होती । पहचान के लिए एक साधारण-सा परीक्षण यह है कि इसके क्वाथ में जब आयोडीन का घोल डाला जाता है तो गहरा नीला रंग हो जाता है । यह इसमें स्टार्च की उपस्थिति का परिचायक है । सामान्यतया इसमें मिलावट कम ही होती है, पर सही पहचान अनिवार्य है । कन्द गुडूची व एक असामी प्रजाति इसकी अन्य जातियों की औषधियाँ हैं, जिनके गुण अलग-अलग होते हैं ।

संग्रहण संरक्षण कालावधि-
यथासंवभ ताजी औषधि का प्रयोग करना चाहिए । ताजी औषधि का वीर्य जितना गुणकारी उतना संग्रहीत का नहीं । पर यदि संग्रह करना ही पड़े तो वर्षा आगमन के पूर्व गर्मी में इसे छाया में सुखाकर बाह्य त्वचा निकालकर छोटे-छोटे टुकड़े कर लें और वायु धूल रहित सूखे स्थानों पर मुँह बंद पात्रों मे रखें । इस प्रकार संग्रहीत औषधि अधिकतम 3 माह तक प्रयुक्त की जा सकती है । घनसत्व को भी सुखाकर चूर्ण रूप में रखते हैं, परन्तु औषधि सार्मथ्य उसमें कितनी होती है, यदि विवादास्पद प्रश्न है । ताजे घनसत्व के विषय में तो कोई विवाद नहीं ।

गुण कर्म संबंधी विभिन्न मत-
आचार्य चरक ने इसे मुख्यतः वात हर माना है, जबकि बाद के कई वैद्यगण इसे त्रिदोषहर, रक्त शोधक, प्रतिसंक्रामक, ज्वरघ्न मानते हैं । विभिन्न अनुपानों के प्रयोग से यह सभी दोषों का शमन कर रक्त शुद्धि करती है, ऐसा माना जाता है । चरक मुनि कहते हैं-

अमृता सांग्राहिकः वातहर दीपनीयः शेष्म शोणित विबंध प्रशमनानाम् (च. सू. 25) जबकि राज निघण्टुकार के अनुसार यह ज्वर नाशिनी है एवं एक उत्तम रसायन के नाते दोष मिटाकर सात्मीकरण लाने वाली औषधि है । इसके अतिरिक्त यह दाह, तृष्णा, अम्लपित्त, प्रमेह पाण्डु आदि रोगों का शमन करती है । श्री चक्रदत्त के अनुसार यह ज्वर, कुष्ठ एवं श्रिल्पद (एलिफेंटिएसिस) की श्रेष्ठ औषधि है । वाग्भट्ट के अनुसार यह प्रमेह, मधुमेह की तथा सुजाक की अचूक दवा है ।

श्री भाव मिश्र के अनुसार गुडूची एक रसायन एवं शोधक है, जो जरा को कभी समीप नहीं आने देती । यह अग्नि दीपक है, पाण्डुरोग तथा जीर्णकास निवारक है, किसी भी प्रकार के ज्वर को समूल नष्ट करती है तथा कुष्ठ रोग का निवारण व कृमियों को मारने का कार्य करती है ।
वैद्यराज श्री गंगासहाय पाण्डेय का मत है कि इस औषधि का व्याधि प्रतिकारी गुण एक सर्वविदित प्रामाणिक तथ्य है । किसी भी प्रकार के रोगाणु पालने वाले पुराने रोगी अंग (यथा अस्थि, फेफड़े, आँतें क्रानिक सेप्टिक फोकस) से जन्म लेने वाले रक्त विकार, जीर्ण विषम ज्वर तथा यकृत की कार्य हीनता जैसी असाध्य स्थितियों में यह चमत्कारी लाभ दिखाती व रोगी को स्वस्थ करती है ।

श्री नादकर्णी के अनुसार यह औषधि एप्टीपिरीयाडिक है अर्थात् बार-बार आने वाले ज्वर के चक्र को तोड़ती व समूल नष्ट करती है । इसे एक प्रकार की 'भारतीय कुनैन' कहते हैं । वेल्थ ऑफ इण्डिया ग्रंथ के अनुसार गिलोय मूल का क्वाथ कोढ़ रोग की अचूक औषधि है । श्री घोष के अनुसार यह एण्टीपिरीयाडिक होने के साथ- साथ बुखार के साथ आने वाली कमजोरी को भी निभाती है । यह बढ़ी हुई तिल्ली एवं सिफलिस जैसे गंभीर रोग की अंतिम अवस्था की एक मात्र सिद्ध औषधि है ।
श्री डीमांक, कर्नल चोपड़ा, डॉ. सान्याल एवं घोषाल भी यही मत व्यक्त करते हैं कि जीर्ण ज्वर और उलट-उलट कर आने वाले मलेरिया, कालाजार जैसे रोगों की यह उत्तम औषधि है ।

मलेरिया ज्वर में यह कुनैन से होने वाली विकृतियों को रोकती पाई गई है । टायफायड जैसे जीर्ण मौलिक ज्वर में इसका प्रभाव आश्चर्यजनक है । ज्वर तो मिटता ही है, रोगी में शक्ति का संचार भी तेजी से होता है । क्षय रोग के रोगी भी इससे लाभ पाते देखे गए हैं । ज्वर का वेग घटता है, खाँसी मिटती है तथा रोगाणु जड़ जमा नहीं पाते ।

होम्योपैथी में बार-बार आने वाले ज्वरों, कोढ़, सुजाक तथा पेशाब के संक्रमण हेतु गिलोय का मदर टिंक्चर, एक, तीन व छः एक्स की पोटेन्सी में प्रयुक्त होता है । अधिक कुनैन या क्लोरोक्वीन संबंधित समूह की औषधि खाने से कुछ दुष्प्रभाव भी रोगी में हों तो वे इसके सेवन से तुरंत मिटते हैं ।
यूनानी चिकित्सा पद्धति में गिलोय को गरम एवं खुश्क माना गया है । यह ज्वर नाशक है तथा ज्वर के समस्त भेदों-यहाँ तक कि राजयक्ष्मा व कुष्ठ, फिरंग, सिफलिस में भी सफलता से काम करती है । तिक्त होने के कारण यह पेट के कीड़ों को भी मारती है ।

रासायनिक संगठन-
गिलोय के काण्ड में लगभग 1.2 प्रतिशत स्टार्च के अतिरिक्त अनेकों कडुए जैव सक्रिय संघटक पाए गए हैं । अब इस पर विषद शोध कार्य चल ही रहा है । अनेकों अध्येताओं के निष्कर्ष के आधार पर कहा जा सकता है गिलोय में-
(1) गिलोइन नामक एक कडुआ ग्लूकोसाइड होता है ।
(2) तीन प्रकार के एल्केलाइड होते हैं, जिनमें से एक प्रमुख है-बरबेरीन
(3) विविध संघटकों गिलोइनिन कैस्मेन्थिन पामारिन, टीनोत्पोरीन, टीनोस्पोरिक, एसिड नामक जैव सक्रिय पदार्थ है । पृथक्-पृथक् इनका कार्य क्या होता है इस पर जैव प्रयोग अभी चल ही रहे हैं ।
(4) एक वसा अल्कोहल ग्लिस्टोरौल, एक एसेंशियल ऑइल, कई प्रकार के वसा अम्ल । गिलोय की पत्तियों में प्रचुर मात्रा में कैल्शियम, फास्फोरस व प्रोटीन पाए गए हैं । इनमें भी बल्य व रसायन क्षमता वैज्ञानिकों ने अच्छी पाई है । गिलोय काण्ड के घनसत्व में जो स्टार्च होता है व ताजे में 0.42 प्रशित से लेकर सूखे में 1.2 प्रतिशत होता है । सक्रिय संघटकों में बरबेरिन तथा गिलाइन का नाम प्रमुख है ।

आधुनिक मत एवं वैज्ञानिक प्रयोग निष्कर्ष-गिलोय की रोगाणुनाशी क्षमताओं पर बड़े विशाल स्तर पर प्रयोग हुए हैं । वैज्ञानिकों के अनुसार सूक्ष्मतम विषाणु समूह से लेकर स्थूल कृमियों तक इसका प्रभाव होता है । 'इण्डियन जनरल ऑफ एक्सपेरीमेण्टल बायोलॉजी' (6, 245, 1938) के अनुसार प्रायोगिक परीक्षणों में पाया गया कि वायरस पर गिलोय का घातक प्रभाव होता है ।

क्षय रोग उत्पन्न करने वाले 'माइक्रोवैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस' जीवाणु की वृद्धि को यह सफलता पूर्वक रोकती है । जहाँ भी जिस स्थान पर शांत स्थिति में यह जीवाणु पड़ा हो व रोगी की प्रतिरोध सार्मथ्य के कम होने की प्रतीक्षा कर रहा हो, यह रक्त मार्ग से पहुँचकर उनका नाश करती है । उनके 'सिस्ट' बनाने की क्रिया में व्यवधान डालती है । एस्केनिशिया कोलाइ नामक रोगाणु जो मूत्रवाही संस्थान तथा आंत्र संस्थान को ही नहीं, सारे शरीर को प्रभावित करता है, यह जड़ से नष्ट कर देती है ।

अन्य अध्ययनों से गिलोय में सोडियम सेलिसिलेट की तुलना में अधिक दर्द निवारक गुण पाया गया है । इसके जल निष्कर्ष का 'फगोसिटिक इण्डेक्स' काफी अधिक पाया गया है अर्थात् रक्त के जीवाणु भक्षी कोशों की तरह इसके सूक्ष्म घटक भी आयोनिक गति से रोगाणुओं पर आक्रमण कर उन्हें नष्ट करने की सामर्थ्य रखते हैं ।

प्रयोगात्मक जीवों में गिलोय का रक्त प्रभाव शर्करा को कम कर देने का होता है । ग्लूकोस टौलरेन्स तथा एड्रीनेलिनजन्य हाइपर ग्लाईसीमिया में इसका लाभप्रद परिणाम तुरन्त दिखाई देता है । यह शरीर में इन्सुलिन की उत्पत्ति व रक्त में उसकी घुलनशीलता ग्लूकोस जलाने की क्षमता को बढ़ाती है । इससे रक्त शर्करा घटती हे । रक्त शर्करा घटाकर गिलोय अपनी एण्टीबायोटिक सामर्थ्य की छाप डाल देती है । यह एक स्मरणीय तथ्य है कि बल्ड शुगर बढ़ने से ही सभी प्रकार के संक्रमणों की दर बढ़ती है । इसकी इस क्षमता पर वैज्ञानिकों को आश्चर्य भी है और इस अनुसंधान कार्य भी चल रहा है, परन्तु शास्रोक्त प्रतिपादन तो पहले से ही गुडूची की समग्र शरीर शोधन चयापचय संतुलन प्रक्रिया में सटीक भूमिका से भरे हुए हैं ।

ग्राह्य अंग-
काण्ड, जड़ व पत्र । काण्ड ही सामान्यतया प्रयुक्त होते हैं और जहाँ तक संभव हो जाती ही प्रयुक्त होते हैं । गिलोय का घनसत्व भी प्रयुक्त होता है । इसे तैयार करने की विधि इस प्रकार है- हो सके तो नीम पर चढ़ी हुई, नहीं तो सामान्य गिलोय बेल जो ताजा, रसदार चमकीली हो, लेकर उसकी एक या दो-दो इंच के टुकड़े कर लें । उन टुकड़ों को पत्थर से कुचल कर एक साफ बरतन में (कांच या मिट्टी का) पानी के अन्दर गला दें । चार घंटे पश्चात् उन्हें हाथों से मल-मल कर बाहर निकाल कर फेंक दें । पानी को कपड़े से छानकर 3-4 घंटे पड़ा रहने दें, जिससे गिलोय सत्व बरतन की पेंदी में जम जाए । धीरे-धीरे उस पानी को दूसरे बरतन में निकाल लें और नीचे जो सफेद रंग का सत्व जमा हो, उसे निकाल कर धूप में सुखा लें । यह मटमैला रंग का पदार्थ ही गिलोय घन सत्व है इसे लगभग तीन माह तक प्रयुक्त कर सकते हैं ।

मात्रा-
क्वाथ-५० से १०० मिली लीटर (लगभ्ाग डेढ़ से तीन औंस) । चूर्ण- तीन से छः ग्राम एक बार में । सत्व- एक से दो ग्राम में । ताज स्वरस- १० से २० ग्राम तक ।

निर्धारणानुसार प्रयोग-जीर्ण ज्वर या ६ दिन से भी अधिक समय से चले आ रहे न टूटने वाले ज्वरों में गिलोय चालीस ग्राम अच्छी तरह कुचल कर मिट्टी के बर्तन में पाव भर पानी में मिलाकर रात भर ढक कर रखते हैं व प्रातः मसल कर छान लेते हैं । ८० ग्राम की मात्रा दिन में तीन बार पीने से जीर्ण ज्वर नष्ट हो जाता है । ऐसे असाध्य ज्वरों में, जिसके कारण का पता सारे प्रयोग परीक्षणों के बाद भी नहीं चल पाता (पायरेक्सिया ऑफ अननोन ऑरीजन) समूल नष्ट करने का बीड़ा गिलोय ही उठाती है । एक पाव गिलोय ८ सेर जल में पकाकर आधा अवशेष जल देने से पर ज्वर दूर होता है व जीवनशक्ति बढ़ती है ।

ज्वर निवारण के अतिरिक्त किसी भी लंबी व्याधि के बाद हुई दुर्बलता को मिटाने के लिए भी रसायन के तौर पर गिलोय प्रयुक्त होती है । शहद के साथ १०० ग्राम गिलोय १६ गुने पानी में पकाकर क्वाथ रूप में बनायी गयी जब सुबह शाम एक से दो औंस की मात्रा में दी जाती है तो कमजोरी मिटती है, नवीन शक्ति का संचार होता है । गिलोय को कायाकल्प योग की एक महत्त्वपूर्ण औषधि माना गया है । भाव प्रकाश निघण्टुकार लिखता है कि अमृता के निरंतर प्रयोग से न कभी व्याधि समीप आती है न जरा सताती है । ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जिनमें अमृता के निरंतर प्रयोग द्वारा व्यक्तियों ने दीर्घायु का वरदान पाया ।

पुनरार्वत्तक ज्वर में गिलोय जल का चूर्ण, पीलिया में गिलोय पत्र का चूर्ण या स्वरस एवं वमन सहित ज्वर में गिलोय घन सत्व मधु के साथ देते हें । मिश्री के साथ देने पर गिलोय पित्त के प्रकोप को शांत करती है ।
कुष्ठ, एलर्जी के शरीर व्यापी आक्रामण, सभी प्रकार के त्वचा विकारों में गिलोय का प्रयोग बताया गया है । इसके अलावा विषाणु जीवाणुजन्य आंत्रशोथ, संग्रहणी तथा कृमि रोगों में भी गिलोय लाभ करती है ।

अन्य उपयोग-
यह घी के साथ वात, शर्करा अथवा मिश्री के साथ पित्त तथा मधु के साथ कफ विकारों में प्रयुक्त होती है व तीनों दोषों को मिटाती है, ऐसा धन्वन्तरि निघण्टुकार का मत मिलता है । गुडूची सिद्ध तेल का प्रयोग त्वचा रोगों में बाह्य प्रयोगों के रूप में किया जाता है । अग्निमंदता, वायु शूल, यकृत विकार, अम्ल पित्त आदि में इसका प्रयोग सफलता से होता है । यह खाँसी में भी लाभ देने लगता है । हृदय की दुर्बलता, लो ब्लडप्रेशर, रक्त विकारों में भी यह प्रयुक्त होती है ।

इसे रसायन के रूप में शुक्रहीनता दौर्बल्य में भी प्रयोग करते हैं व ऐसा कहा जाता है कि यह शुक्राणुओं के बनने की उनके सक्रिय होने की प्रक्रिया को बढ़ाती है । इस प्रकार यह औषधि एक समग्र कायाकल्प योग है-शोधक भी तथा शक्तिवर्धक भी ।

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