जड़ीबूटियों द्वारा चिकित्सा

ब्राह्मी (बकोपा मोनिएरा)

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यह मुख्यतः जला सन्न भूमि में पाई जाती है इसलिए इसे जल निम्ब भी कहते हैं । विशेषतः यह हिमालय की तराई, बिहार, उत्तर प्रदेश आदि में नदी नालों, नहरों के किनारे पाई जाती है । गंगा के किनारे बारहों महीने हरी-भरी पाई जाती है । इसे बुद्धिवर्धक होने 'ब्राह्मी' नाम दिया गया है । मण्डूकपर्णी मण्डूकी से इसे अलग माना जाना चाहिए जो आकार में मिलते-जुलते हुए भी इससे अलग है ।

वानस्पतिक परिचय-
इसका क्षुप फैलने वाला तथा मांसल चिकनी पत्तियाँ लिए होता है । पत्तियाँ चौथाई से एक इंच लम्बी व 10 मिलीमीटर तक चौड़ी होती है । ये आयताकार या सु्रवाकार होती है तथा काण्ड व शाखाओं पर विपरीत क्रम में व्यवस्थित रहती हैं । फूल नीले, श्वेत या हल्के गुलाबी होते हैं, जो पत्रकोण से निकलते हैं । फल लंबे गोल आगे से नुकीले होते हैं, जिनमें छोटे-छोटे बीज निकलते हैं । काण्ड अति कोमल होता है । इसमें छोटे-छोटे रोम होते हैं व ग्रंथियाँ होती हैं । ग्रन्थि से जड़ें निकल कर भूमि पकड़ लेती हैं, जिस कारण काण्ड 2 से 3 फुट ऊँचा होने पर भी छोटा व झुका हुआ दिखाई देता है ।
पुष्प ग्रीष्म ऋतु में तथा बाद में फल लगते हैं । सारा क्षुप पंचांग ही प्रयुक्त होता है ।

पहचान तथा मिलावट-
शुद्ध ब्राह्मी हरिद्वार के आसपास गंगा के किनारे सर्वाधिक होती है । यहीं से यह सारे भारत में जाती है । उसमें दो पौधों की मिलावट होती है ।

(१) मण्डूकपर्णी (सेण्टेला एश्याटिका) तथा बकोपा फ्लोरीबण्डा । गुण एक समान होते हुए भी मण्डूकपर्णी ब्राह्मी से कम मेद्य है और मात्र त्वचा के बाह्य प्रयोग में ही उपयोगी है ।
'जनरल ऑफ रिसर्च इन इण्डियन मेडीसिन' के अनुसार (डॉ. सिन्हा व सिंह) विस्तृत अध्ययनों ने अब यह सिद्ध कर दिया है कि 'बकोपा मोनिएरा' ही शास्रोक्त गुणकारी है । ब्राह्मी के पत्ते मण्डूकपर्णी की अपेक्षा पतले होते हैं । पुष्प सफेद व नीलापन लिए होते हैं जब कि मण्डूकपर्णी के पुष्प रक्त लाल होते हैं । ब्राह्मी का सारा क्षुप ही तिक्त कड़वापन लिए होता है जबकि मण्डूकपर्णी का पौधा मात्र तीखा होता है तथा मसलने पर गाजर जैसी गंध देता है । सूखने पर मण्डूकपर्णी के सभी गुण प्रायः जाते रहते हैं । जबकि ब्राह्मी का हरा या हरा-भरा रंग का सूखा चूर्ण एक वर्ष तक इसी प्रकार प्रयोग किया जा सकता है ।

संग्रह-संरक्षण कालावधि-
गंगादि पवित्र नदियों के किनारे पायी जानेवाली ब्राह्मी वस्तुतः गुणकारी होती है । इसकी पत्तियों को छाया में सुखाकर पंचांग का चूर्ण कर बोतल में बंद करके रखना चाहिए । इसे एक वर्ष तक प्रयोग किया जा सकता है ।

गुण कर्म संबंधी विभिन्न मत-महर्षि चरक के अनुसार ब्राह्मी मानस रोगों की एक अचूक गुणकारी औषधि है ।
यह अपस्मार रोगों में विशेष लाभ करती है । सुश्रुत संहिता के अनुसार ब्राह्मी का उपयोग मस्तिष्क विकृति, नाड़ी दौर्बल्य, अपस्मार, उन्माद एवं स्मृति नाश में किया जाना चाहिए । भाव प्रकाश के अनुसार ब्राह्मी मेधावर्धक है ।

श्री खोरी एवं नादकर्णी ने इसे एक प्रकार का नर्वटॉनिक माना है । उनके अनुसार ब्राह्मी पंचांग का सूखा चूर्ण रोगियों को देने पर मानसिक कमजोरी, तनाव तथा घबराहट एवं अवसाद की प्रवृत्ति में लाभ हुआ । पागलपन तथा मिर्गी के लिए डॉ. नादकर्णी ब्राह्मी पत्तियों का स्वरस घी में उबाल कर दिए जाने पर पूर्ण सफलता का दावा करते हैं । हिस्टीरिया जैसे मनोरोगों में ब्राह्मी तुरंत लाभ करती है तथा सारे लक्षण तुरंत मिट जाते हैं । सिर दर्द, चक्कर, भारीपन तथा चिंता में ब्राह्मी तेल का प्रयोग कई वैज्ञानिकों ने बताया है । सी.एस.आई.आर. द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'ग्लासरी ऑफ इण्डियन मेडीसिन प्लाण्ट्स' में ब्राह्मी को पागलपन व मिर्गी की औषधि बताया गया है ।

'वनौषधि चन्द्रोदय' के विद्वान लेखक के अनुसार ब्राह्मी की मुख्य क्रिया मस्तिष्क और मज्जा तंतुओं पर होती है । मस्तिष्क को शांति देने के अतिरिक्त यह एक पौष्टिक टॉनिक का काम भी करती है । मस्तिष्कीय थकान से जब व्यक्ति की कार्य क्षमता घट जाती है तो ब्राह्मी के घटक स्नायु कोषों का पोषण कर उत्तेजित करते हैं तथा मनुष्य स्फूर्ति का अनुभव करता है । अपस्मार के रोगों में वे विद्युतीय स्फुरणा के लिए उत्तरदायी केन्द्र का शमन करते हैं । स्नायुकोषों की उत्तेजना कम होती है व धीरे-धीरे मिर्गी के दौरों की दर घटते-घटते नहीं के बराबर हो जाती है । उन्माद में भी यह इसी प्रकार काम करती है । दो परस्पर विरोधी मनोविकारों पर विरोधी प्रकार के प्रभाव इस औषधि की विलक्षणता है । उसे सरस्वती पत्रकों का घटक मानकर इसी कारण मानसिक स्वास्थ्य संवर्धन के लिए चिर पुरातन काल से प्रयुक्त किया जा रहा है ।

उदासी निराशा भाव तथा अधिक बोलने से उत्पन्न हुए स्वर भंग में भी ब्राह्मी लाभकारी होती है । जन्मजात तुतलाने में भी ब्राह्मी सफलता पूर्वक कार्य करती पायी गई है ।
होम्योपैथी मतानुसार एकान्त को अधिक पसंद करने वाले अवसाद ग्रस्त व्यक्तियों को ब्राह्मी व मण्डूकपर्णी दोनों ही लाभ करते हैं । चक्कर, नाड़ियों में खिंचाव, सिर दर्द में ब्राह्मी का प्रभाव अधिक होता पाया गया है । यूनानी चिकित्सा में इसे 'वाष्पन' नाम दिया गया है । इसका प्रधान प्रयोग मस्तिष्क व नाड़ी बलवर्धक के रूप में है ।

रसायन संगठन-
ब्राह्मी में पाए जाने वाले मुख्य जैव सक्रिय पदार्थ हैं-एल्केलाइड तथा सेपोनिन । एल्केलाइडों में दो मुख्य हैं-ब्राह्मीन और हरपेस्टिन । गुण-कर्मों की दृष्टि से ब्राह्मीन कुचला में पाए जाने वले एल्केलाइड स्टि्रक्नीन के समान हैं, पर उसकी तरह विषैली नहीं है । बेकोसाएड 'ए' तथा 'बी' मुख्य सैपोनिन है बेकोसाएड 'ए' में एरेबिनोसिल ग्लूकोस अरेविनोस बेकोजेनिन इत्यादि । बोटूलिक अम्ल डी-मैनिटाल, स्टिग्मा स्टेनॉल, बीटा-साइटोस्टीराल, स्टीग्मास्टीरॉल तथा टैनिन भी शेष पदार्थों में से कुछ है ।
ग्लूकोसाइड एवं उड़नशील तेल प्रायः हरी पत्तियों में पाए जाते हैं । सूखे पौधों में सेण्टोइक एसिड तथा सेण्टेलिंक एसिड भी पाए जाते हैं ।

आधुनिक मत एवं वैज्ञानिक प्रयोग निष्कर्ष-
ब्राह्मी की प्रख्यात मेधावर्धक शकित पर प्रायोगिक रूप से विशद अध्ययन हुआ है । वैज्ञानिक बताते हैं कि इससे डायजेपाम औषधि समूह की तरह सोमनस्यकारक-तनावनाशक गुण है । इण्डियन जनरल ऑफ मेडिकल रिसर्च में डॉ. मल्होत्रा और दास (40, 290, 1951) लिखते हैं कि ब्राह्मी का सारभूत निष्कर्ष प्रायोगिक जीवों पर शामक प्रभाव डालता है । इसी प्रभाव को बाद में अन्य वैज्ञानिकों ने भी प्रमाणित किया । ब्राह्मी की इस शामक सामर्थ्य की तुलना में प्रचलित एलोपैथिक
औषधि 'क्लोरप्रोमाजीन' से की गई है । इससे न केवल तनाव समाप्त होकर प्रसन्नता का भाव आता है, अपितु सीखने की क्षमता भी बढ़ जाती है । व्यक्ति की संवेदना तंतुओं से ब्राह्म संदेशों को ग्रहण करने की सामर्थ्य में अप्रतिम वृद्धि होती है ।

ब्राह्मी का एक रासायनिक घटक हर्सेपोनिन सीधे पीनियल ग्रंथि पर प्रभाव डालकर 'सिरॉटानिन' नामक न्यूरोकेमीकल का उत्सर्ग कर सचेतन स्थिति को बढ़ाता है । यह हारमोन मस्तिष्कीय क्रियाओं के लिए अनिवार्य माना जाता है ।

ब्राह्मी का दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रभाव है इसका आक्षेपहर एण्टीकन्वल्सेण्ट-मिर्गीनाशक होना । डॉ. डे और डॉ. चटर्जी के अनुसार इस औषधि के घटक सीधे विद्युत्सक्रिय उत्तेजक केन्द्र तक जाकर उसे शांत करते हैं तथा अन्य स्नायुओं को उत्तेजित होने से रोकते हैं । इस क्रिया के लिए उत्तरदायी केमिकल प्रक्रिया की अवधि को यह बढ़ा देता है । प्रायोगिक जीवों में सेमीकार्बाजाइड के आक्षेपजनक एवं मारक प्रभावों को यह पूर्णतया शांत कर देती है । इनके अतिरिक्त सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए उत्तरदायी विभिन्न स्नायु तंतुओं के केन्द्रकों से संबंध को यह सशक्त बनाती है । इस प्रकार मेधावर्धन-स्मृतिवर्धन में सहायता करती है । साइको सीमेटिक रोगों में तो यह हाइपोथेलेक्स के स्तर पर कार्य कर चक्र को ही तोड़ देती है । इस प्रकार वैज्ञानिक प्रयोग इसे सर्वश्रेष्ठ बहुमुखी स्नायु संस्थान के रोगों की औषधि सिद्ध करते हैं ।

ग्राह्य अंग-
ताजा या सुखाया गया पंचांग ।

मात्रा-
पंचांग चूर्ण 3 से 5 ग्राम । ताजा स्वरस 1 से 2 तोला । मूल का चूर्ण- 4 से डेढ़ माशा (1/2 ग्राम से डेढ़ ग्राम)
जहाँ तक हो सके ब्राह्मी को ताजी अवस्था में ही प्रयोग करते हैं । जहाँ तक यह उत्पन्न न हो सके, वहाँ इसका छाया में सुखाया गया चूर्ण ही प्रयुक्त होता है । यदि इसे उबाला जाए या धूप में सुखाया जाए तो इसका उड़नशील तेल नष्ट हो जाता है व यह निष्प्रभावी हो जाती है । इसी कारण इसका क्वाथ भी प्रयोग नहीं करते ।

निर्धारणानुसार प्रयोग-
अनिद्रा में ब्राह्मी चूर्ण 3 माशा (3 ग्राम) गाय के दूध के साथ देते हैं अथवा ब्राह्मी के ताजे 20-25 पत्रों को साफ गाय के आधा सेर दूध में घोंट छानकर 7 दिन तक देते हैं । वर्षों पुराना अनिद्रा रोग इससे ठीक हो जाता है ।

अपस्मार के दौरों में स्वरस 1/2 चम्मच मधु के साथ अथवा चूर्ण को मधु के साथ दिया जाता है । प्रारंभ में ढाई ग्राम एवं प्रभाव न होने पर पाँच ग्राम तक दिया जा सकता है ।
स्मृति दौर्बल्य तथा अल्पमंदता में ब्राह्मी स्वरस अथवा चूर्ण पानी के साथ या मिश्री के साथ देते हैं । एक सेर नारियल के तल में 15 तोला ब्राह्मी स्वरस मिलाकर उबालने पर ब्राह्मी तेल तैयार हो जाता है । इसकी मालिश करने से मस्तिष्क की निर्बलता व खुश्की दूर होती है तथा बुद्धि बढ़ती है ।

इसका सेवन चिंता तथा तनाव में ठण्डाई के रूप में भी किया जा सकता है । यूनानी चिकित्सक इसका माजूम बनाकर खिलाते हैं, पर सर्वश्रेष्ठ स्वरूप चूर्ण का मधु के अनुपान के साथ सेवन है । यह बल्य रसायन भी है इसलिए किसी भी प्रकार की गंभीर व्याधि ज्वर आदि के बाद निर्बलता निवारण के लिए इसका प्रयोग कर सकते हैं ।

अन्य उपयोग-
वाह्य प्रयोगों में तेल के अतिरिक्त इसे कुष्ठ तथा अन्य चर्म रोगों में भी प्रयुक्त करते हैं बच्चों की खाँसी व छुटपन के क्षय रोग में इसका गरम लेप छाती पर किया जाता है ।

अग्निमंदता, रक्त विकार तथा सामान्य शोथ में यह तुरंत लाभ करती है हृदयाघात के बाद दुर्बलता निवारण हेतु यह एक श्रेष्ठ टॉनिक है । खाँसी व गला बैठ जाने पर इसके स्वरस का काली मिर्च व मधु के साथ सेवन करते हैं । विभिन्न प्रकार के विषों तथा ज्वर में यह लाभ पहुँचाती है ।

सामान्यतया मानस रोगों के लिए ही प्रयुक्त यह औषधि अब धीरे-धीरे बलवर्धक रसायन के रूप में भी मान्यता प्राप्त करती जा रही है । यह हर दृष्टि से हर वर्ग के लिए हितकर है तथा प्रकृति का मनुष्य को एक श्रेष्ठ अनुदान है । किसी न किसी रूप में इसका नियमित सेवन किया जाए तो हमेशा स्फूर्ति से भरी प्रफुल्ल मनःस्थिति बनाए रखती है ।


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