गुरु नानक देव

सर्वभूत हितेरता

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संतों का एक मुख्य लक्षण सब प्राणियों का हित- चिंतन करना है। जब वे कहते हैं कि समस्त जीव एक ही परमात्मा ने उत्पन्न किये हैं तब यह कैसे संभव है कि किसी के प्रति द्वेष भाव रखें या छल करें या बुरा सोचें। इसमें संदेह नहीं कि संसार में बुरे लोगों की कमी नहीं और कितने ही तो इतने दुष्ट होते हैं कि संतों को ही सताने लगते हैं। पर संत की कसौटी यही है कि वह अपने उपकारकर्ता, शत्रुभाव रखने वाले को भी क्षमा करके उसके साथ भलाई करते हैं। कबीर, तुलसीदास, तुकाराम आदि को द्वेष भाव रखने वाले व्यक्तियों ने काफी तंग किया, पर उन्होंने बदले में उनके प्रति सद्व्यवहार ही किया। नानक जी के भी सामने दो- चार बार ऐसीसमस्यायें आई पर उन्होंने सदा विरोधियों को क्षमा करके सत्मार्ग का ही उपदेश दिया। 
           नानक जी की एक विशेषता यह थी कि वे बड़े लोगों के बजाय दीन- दुःखी, निर्बल, पीड़ित जनों के संपर्क में अधिक रहते थे और उनको उद्धार का मार्ग दिखलाते थे। इस संबंध में लालो और मलिक भागो वाली घटना बहुत प्रसिद्ध है। जब वे साधुवेश में भ्रमण करते- करते सैयदपुर (जि० गुजरांवाला) में पहुँचे तो गाँव के किनारे पर बसे, एक संतों के भक्त लालो बढ़ई के यहाँ ठहर गये। इससे कस्बे में यह समाचार फैल गया कि एक उच्च जाति (खत्री) में उत्पन्न संत अछूत लालो के घर में ठहर गये हैं और उसी के हाथ का खाते- पीते हैं। यह खबर उस गाँव के मुखिया मलिक भागो ने भी सुनी। उस दिन उसके यहाँ एक भोज भी होने वाला था, इसलिए नानक जी के पास भी निमंत्रण भेज दिया। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ, जब उन्होंने उसके बढ़िया भोजन से इनकार करके लालो की सूखी रोटियों को ही श्रेष्ठ बतलाया। उसने दुबारा नौकर भेजकर नानक जी को बुलवाया और उनसे निमंत्रण अस्वीकार करके लालो की रोटियों को ही श्रेष्ठ बतलाने का कारण पूछा। उन्होंने कहा कि, ’’तुम्हारा भोजन मुझे खून में सना जैसा लगता है और लालो की रोटियों में दूध और शहद का- सा स्वाद आता है।
           ऐसा क्यों होता है, यह पूछने पर उन्होंने बताया कि लालो परिश्रम करके जो कमाई करता है, उसी में से कुछ बचाकर अपनी शक्ति के अनुसार साधु- संत और राहगीरों की सेवा करता है। पर तुम स्वयं कुछ परिश्रम नहीं करते, वरन् घूस, अत्याचार और हुकूमत का डर दिखाकर जनता से धन ऐंठते हो।’’ गुरुजी की सच्ची बातें सुनकर मलिक भागो लज्जित हो गया और आसपास के सब लोग उनकी निस्पृहता तथा न्यायशीलता देखकर उनके भक्त बन गये। अन्य एक अवसर पर उन्होंने अपना सिद्धांत अग्र शब्दों में प्रकट किया था- 
नीचा अंदर नीच जाति नीच हो अति नीच। 
नानक तिनके संग साथ बढ़िया के ऊँका रीस। 

           अर्थात्- ‘‘नीचों में भी जो नीच जाति के हैं, उनमें भी जो सबसे नीचे हैं, मैं उनके साथ हूँ। अपने आपको बड़ा मानने वालों से मेरा कोई संबंध नहीं।’’ 
यही सच्चे संत और सत्पुरुषों के लक्षण हैं। बड़ों के साथी तो अधिकांश लोग स्वार्थ पूर्ति के लिए बनते हैं। उनका सच्चा साथी कोई नहीं होता, खुशामदी, जी हजूर कहने वाले उनको इसीलिए घेरे रहते हैं कि उनसे अपना कोई मतलब सिद्ध करें। सच्चे व्यक्तियों और परोपकार का व्रत लेने वालों को ऐसे वातावरण में रहने की क्या आवश्यकता? वे तो अपना स्थान वहीं पर समझते हैं, जहाँ संसार द्वारा उपेक्षित, ठुकराये हुुये, पीड़ित लोग रहते हैं। वे ही लोग दुःखों में रहकर भगवान् का स्मरण करते हैं और भगवान् संतों के रूप में संात्वनादेने उनके पास पहुँच जाते हैं। बड़े कहलाने वाले तो सदैव राग- रंग या स्वार्थपूर्ति में लगे रहते हैं, 
उनको कभी भगवान की भी याद नहीं आती, फिर संत उनके पास किसलिए जायें? 

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