गुरु नानक देव

गुरू नानक का भारत- भ्रमण

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नानक जी लगभग तीस वर्ष की आयु में सांसारिक- बंधन से मुक्त होकर भटकती हुई मानवता को सत्य- मार्ग का उपदेश देने निकल पड़े। उनका साथ दिया मरदाना नामक एक मुसलमान मीरासी ने जो उनके भजन गाते समय ‘रवाब’ बजाता था। इन दोनों से मिलकर ऐसा समा बँध जाता था कि राह चलते भी मुग्ध होकर सुनने लग जाते थे। एक तो हृदय से निकलते हुए सच्चे उपदेश और वे भी ऐसे आकर्षक रूप में रचे गये, बस नानक जी जहाँ गये वहीं बहुसंख्यक व्यक्ति उनके भक्त और अनुयायी बनते चले गये। नानक जी का वैराग्य दुनिया दिखाने का न था कि जटा, तिलक, माला आदि लगाकर किसी मंदिर में बैठ जाते या किसी गुफा में बैठकर योगाभ्यास करने लगते। वे साधु हो जाने पर भी जन- समाज में ही रहे और उनके सुख- दुःख में भाग लेकर उनका -सा ही जीवन बिताते रहे। वे जानते थे कि बहुत- सा बाह्य आडंबर बनाकर "बड़े महात्मा" या ‘‘सिद्ध’’ के नाम से प्रसिद्ध हो जायें तो उससे कोई उद्देश्य पूरा नहीं हो सकेगा। सामान्य जनता चाहे उनको बहुत ‘ऊँचा’ अथवा‘‘अलौकिक’’ समझने लगे, पर तो भी वह उनका अनुकरण करने को तैयार नहीं हो सकती। इसके बजाय जब मनुष्य सब लोगों के साथ मिल- जुलकर रहता है तो लोग धीरे- धीरे उसके जीवन से स्वयं ही सच्चाई की शिक्षा ग्रहण करते रहते हैं और उसके उपदेशों पर अमल करने को भी तैयार हो जाते हैं।

गुरू नानक ने देश और विदेशों की जितनी व्यापक यात्राएँ की थी। उतनी अन्य किसी संत ने नहीं की। उन्होंने १५ वर्ष तक भारतवर्ष की चारों दिशाओं में सभी प्रमुख स्थानों की यात्राएँ की और अंत में अफगानिस्तान, ईरान अरब और इराक तक हो आये। इससे उनको भारतीय समाज की गहरी जानकारी पैदा हो गई और जिन देशों के आक्रमण भारत पर हो रहे थे, उनकी सामाजिक और राजनैतिक परिस्थिति को भी उन्होंने समझ लिया। इसी अनुभव के आधार पर वे सिख- समुदाय का ऐसा संगठन कर सके, जो समयानुकूल था। हिंदुओं में घुसे हुये जिन दोषों ने समाज को अस्त- व्यस्त और निर्बल बना रखा था, जैसे अछूत प्रथा, हजारों प्रकार की जातियाँ, हजारों ही प्रकार के देवी- देवता, दान के नाम पर निकम्मे लोगों का पालन, अनगिनती हानिकारक रस्म- रिवाजें तथा रूढ़ियाँ परस्पर विरोधी धर्मग्रंथों, संप्रदाओं तथा पूजा- उपासना पद्धतियों की भरमार आदि इन सबको उन्होंने दूर हटा दिया। साथ ही एकेश्वरवाद को इतने स्पष्ट रूप में अपनाया कि कुछ लोगों को इस्लाम में जो विशेषता जान पड़ती थी उसकी भी पूर्ति हो गई।

इस प्रकार गुरू नानक ने एक ऐसे सुसंगठित, सुदृढ़ और परस्पर में समता तथा भाईचारे का भाव रखने वाले पंथ की नींव डाली जिसने हिंदू समाज के सम्मुख उद्धार का प्रभावशाली उदाहरण उपस्थित कर दिया। उन्होंने स्वयं इन सब सिद्धांतों का पालन किया और अपने संगठन के सब नियम इतने सरल और सर्वोपयोगी बनाये कि उनका अनुसरण कर सकना किसी के लिए कठिन न जान पड़े। आगे चलकर जब मुसलमानों कादौरात्म्य बढ़ा और औरंगजेब ने विशेष रूप से हिंदु- धर्म को ध्वस्त करके इस्लाम को सर्वव्यापी बनाने की चेष्टा की तो दशम गुरू गोविंद सिंह जी ने उसे सैनिक- समुदाय के रूप में परिवर्तित कर दिया और उसने इस्लाम की बढ़ती हुई सर्वग्रासी लहर को रोकने में एक बहुत मजबूत बाँध का काम किया। इसका बीज नानक देव ही संगठन करके बो गये थे।

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