गुरू नानक ने देश और विदेशों की जितनी व्यापक यात्राएँ की थी। उतनी अन्य किसी संत ने नहीं की। उन्होंने १५ वर्ष तक भारतवर्ष की चारों दिशाओं में सभी प्रमुख स्थानों की यात्राएँ की और अंत में अफगानिस्तान, ईरान अरब और इराक तक हो आये। इससे उनको भारतीय समाज की गहरी जानकारी पैदा हो गई और जिन देशों के आक्रमण भारत पर हो रहे थे, उनकी सामाजिक और राजनैतिक परिस्थिति को भी उन्होंने समझ लिया। इसी अनुभव के आधार पर वे सिख- समुदाय का ऐसा संगठन कर सके, जो समयानुकूल था। हिंदुओं में घुसे हुये जिन दोषों ने समाज को अस्त- व्यस्त और निर्बल बना रखा था, जैसे अछूत प्रथा, हजारों प्रकार की जातियाँ, हजारों ही प्रकार के देवी- देवता, दान के नाम पर निकम्मे लोगों का पालन, अनगिनती हानिकारक रस्म- रिवाजें तथा रूढ़ियाँ परस्पर विरोधी धर्मग्रंथों, संप्रदाओं तथा पूजा- उपासना पद्धतियों की भरमार आदि इन सबको उन्होंने दूर हटा दिया। साथ ही एकेश्वरवाद को इतने स्पष्ट रूप में अपनाया कि कुछ लोगों को इस्लाम में जो विशेषता जान पड़ती थी उसकी भी पूर्ति हो गई।
इस प्रकार गुरू नानक ने एक ऐसे सुसंगठित, सुदृढ़ और परस्पर में समता तथा भाईचारे का भाव रखने वाले पंथ की नींव डाली जिसने हिंदू समाज के सम्मुख उद्धार का प्रभावशाली उदाहरण उपस्थित कर दिया। उन्होंने स्वयं इन सब सिद्धांतों का पालन किया और अपने संगठन के सब नियम इतने सरल और सर्वोपयोगी बनाये कि उनका अनुसरण कर सकना किसी के लिए कठिन न जान पड़े। आगे चलकर जब मुसलमानों कादौरात्म्य बढ़ा और औरंगजेब ने विशेष रूप से हिंदु- धर्म को ध्वस्त करके इस्लाम को सर्वव्यापी बनाने की चेष्टा की तो दशम गुरू गोविंद सिंह जी ने उसे सैनिक- समुदाय के रूप में परिवर्तित कर दिया और उसने इस्लाम की बढ़ती हुई सर्वग्रासी लहर को रोकने में एक बहुत मजबूत बाँध का काम किया। इसका बीज नानक देव ही संगठन करके बो गये थे।