लोकरंजन के समर्पित
लोकरंजन के समर्पित, सूत्रधारों! सोच लो।
दे रहे क्या देश को तुम, कलाकारों! सोच लो॥
वह गढ़ो प्रतिमा कि हो सत्कर्म की प्रस्तावना।
जन्म- भू के प्रति जगे जिससे समर्पण भावना॥
मूर्तियों में हो न पाएँ नारियाँ अब निर्वसन।
हों न जिनको देखकर लज्जित जननि, बेटी, बहन॥
आधुनिकता का नशा मत दो कला के नाम पर।
मूर्तिकारों! श्रेष्ठ भावों को उभारो, सोच लो॥
फिल्म- टी.बी. आदमी को आत्मघाती हो रहे।
नित जनमते दुर्गणों का दोष दर्शक ढो रहे॥
शिष्टता, शालीनता, संकोच, सब खोने लगे।
और हम हिंसक, अनाचारी बहुत होने लगे॥
तुम अगर चाहो, नई पीढ़ी पुनः जीवंत हो।
जाग सकता देश सारा, फिल्मकारों! सोच लो॥
दृश्य, अभिनय, गीत, भड़काएँ नहीं दुष्वृत्तियाँ।
हों विनिर्मित लोकसेवी सज्जनों की मूर्तियाँ॥
लोकहित हो लक्ष्य टी.वी और हर चलचित्र में।
हो भरी शुभ प्रेरणाएँ हर कैलेंडर- चित्र में॥
मिट रहे हैं मूल्य साँसें संस्कृति की घुट रही।
दुर्दशा से तुम मनुजता को उबारो! सोच लो॥