रहन सहन में खान पान में
रहन सहन में खान पान में, परिवर्तन स्वीकार।
फिर कुरीतियों को तजने से, क्यों करते इन्कार॥
किसी समय पगड़ियाँ पहनकर, मान बड़ा होता था।
कोई भी पगड़ी उतारकर, कलह खड़ा होता था॥
भोजन नहीं किया जाता था, तब चौके से बाहर।
ओढ़ा करती बहू- बेटियाँ, सिर ऊपर से चादर॥
पर अब नंगे सिर होटल में, खाता है परिवार॥
उन कुरीतियों, परम्पराओं के, क्यों दास बने हैं।
जिनके कारण सारे जग में, हम उपहास बनें हैं॥
बिना परिश्रम का दहेज धन, मृतक भोज को छोड़ें।
पुनर्विवाह कराकर विधवाओं, के बन्धन तोड़े॥
जादू टोना, भूत- प्रेत का, चक्कर है बेकार॥
युग से पीछे नहीं रहे हम, प्रगति पंथ अपनायें।
भौतिक, आध्यात्मिक विकास में, हम संतुलन बनायें॥
ध्वंस प्रलय से साज सजाता, युग पीड़ित है इससे।
उसे सृजन से ही आशा है, आशा करे वह किससे॥
युग स्रष्टा का स्वप्न हमें ही, करना है साकार॥