गायत्री से संकट निवारण

गायत्री द्वारा संकट-निवारण

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परमाद्या, पराम्बा श्री गायत्री की साधना बड़ी चमत्कारी और सर्वोपरि साधना है। इसके द्वारा मनुष्य को साधारण लौकिक और पारलौकिक लाभ तो प्राप्त होते ही हैं, और अनेक कामनाओं की पूर्ति भी होती है; पर अनेक समय इसके प्रभाव से मनुष्य की इस प्रकार रक्षा हो जाती है कि उसे दैवी चमत्कार के सिवाय और कुछ नहीं कहा जा सकता। कारण यही है कि इस साधना के कारण साधक में कुछ दैवी तत्वों का भी विकास हो जाता है जो ऐसी आकस्मिक आवश्यकता अथवा संकट के समय अदृश्य रूप से उसके सहायक बनते हैं। प्रायः यह भी देखा गया है कि जो व्यक्ति साधना करके अपने मन और अन्तर को शुद्ध तथा निर्मल बना लेते हैं और ईर्ष्या-द्वेष के भावों को त्याग कर दूसरों के प्रति कल्याण की भावना रखते हैं, उनकी रक्षा दैवी शक्तियां स्वयं भी करती हैं। इस पुस्तक में अनेक गायत्री उपासकों के जो अनुभव दिये गये हैं उनसे यह भली प्रकार प्रमाणित होता है कि जिन लोगों को गायत्री माता के आदेशानुसार आत्मशुद्धि और जगत के मंगल की भावना को अपना लिया है, उनकी रक्षा बड़ी-बड़ी आयात्रियों से भी सहज में हो जाती है।

श्री. मदनगणेश रामदेव पूना से लिखते हैं—

मेरे गांव से तीन कोश की दूरी पर श्री सुन्दरा देवी का स्थान है। यह हमारे प्रान्त का सुप्रसिद्ध स्थान है। मैं इसे गायत्री माता का ही रूप मानता हूं। एक दिन मैंने दर्शन करने का निश्चय लिया। वर्षा ऋतु थी । जिस दिन प्रातः जाने का विचार निश्चित था उसके रात में ही काफी वर्षा हुई थी, अतः हमारे साथ जाने वालों में से सभी ने, पहाड़ की चढ़ाई और फिसलन के भय से आना निश्चय बदल लिया। मैंने उस दिन दर्शन करने का अविचल संकल्प कर लिया था अतः मैं प्रातः ही जाने की सारी तैयारी करके माता के चरणों में प्रणाम कर गायत्री जपते हुए चल पड़ा। गांव के अनेकों व्यक्तियों ने वर्षा के समय जल की धारा में बह जाने तथा पहाड़ से फिसल गिरने का भय, जो कि वास्तविक ही था, मुझे दिखाया पर मैंने अपने मातृ दर्शन का निश्चय बदलना अनुचित समझा और प्रस्थान कर ही दिया। सभी खिसक गये पर मेरे साले (पत्नी के भाई) ने बड़े ही साहस और प्रेम से मेरा साथ दिया। तीन मील चलने के उपरान्त शेष तीन माईल पहाड़ की ही चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। पहाड़ पर चढ़ने के प्रथम एक सरिता की धारा को पार करना पड़ता है, यह धारा कभी सूखती नहीं। इस नदी में वर्षा के जल से सहसा ही वेग से बाढ़ आती है और पार होने वालों को बहा ले जाती है। हम दोनों ने भोजनादि सामान, वस्त्र एवं पूजा स्वाध्याय की वस्तु सिर पर रक्खीं और नदी में उतर पड़े। नदी का लगभग अधिकांश भाग पार कर चुके कि सहसा ही भयंकर वेग से नदी में बाढ़ आयी। हम दोनों माता का स्मरण करते हुए किसी भांति किनारे पर आ गये। उलट कर देखा तो चार पुरुष उस भयंकर प्रवाह में बहते हुए जा रहे थे, जिसे अपना प्राण देकर भी बचाने का उपाय नहीं था।

माता की कृपा से इस मृत्युधारा से हम दोनों ऊपर निकल आये। अब आगे दो पहाड़ों के मध्य से होकर जाने का पथ था। हम लोगों ने आगे चलने के लिये सोचा और पहाड़ के ऊपर दृष्टि दौड़ाई। देखा तुरत ही घनघोर बादलों से घिरकर पहाड़, रात से भी अधिक श्याम बन गया और मूसलाधार वर्षा होकर फिर आकाश स्वच्छ हो गया। कुछ ही देर फिर बादलों के दल, वही घनघोर कालिमा, और पुनः प्रकाश का आगमन। यह क्रम वहां निरन्तर चल रहा था। देख कर एक बार चित्त कांप उठा पर माता की सहायता की याद आते ही फिर साहस से भर उठा और आगे की ओर चल दिया। वर्षा के कारण भयंकर आवाज के साथ पहाड़ के शिखरों से अनेकों धारा बहती चली जाती है। हमने ऐसी भयावह स्थिति देखने की तो कोई बात ही नहीं, कल्पना भी अपने जीवन में नहीं की थी। माता की कृपा की आशा से ही आगे बढ़ते जा रहा था। कुछ दूर जाने के बाद देखा कि आगे मन्दिर तक जाने के लिये अत्यधिक वर्षा के कारण कोई भी रास्ता नहीं रह गया था। फिर पीछे की ओर देखा तो अब लोटने का भी उपाय नहीं था। तब हम दोनों ने भी निश्चय किया कि यदि हमें मरना ही बदा है तो माता के दर्शनों के लिए चलते हुए ही हम प्रसन्न हृदय से मौत का भी आलिंगन कर लेंगे पर दर्शन किये बिना हर्गिज नहीं लौटेंगे। गायत्री जप करते हुए हम रास्ते से 50 गज ऊपर चढ़ते हुए ही चलने लगे। कभी कभी ऊपर की जल सीधे हमारे शिर पर गिरती थी, उस समय हृदय में मां की याद लिये साहस पूर्वक पत्थर पकड़ते हुए हम पार कर जाते थे। माता की कृपा से उस समय हमारे हृदयों में इतना उत्साह उमड़ा पड़ता था कि इससे चौगुने संकट का भी हम लोग सामना करने में जरा भी नहीं घबराते—वरन् और भी हमारा साहस एवं उत्साह बढ़ जाता।

अब एक मील की दूरी रह गयी थी। वारिस भी क्रमशः हलकी होती जा रहा थी। कुछ दूर बढ़ने पर देखा कि एक भयंकर पहाड़ी सर्प दौड़ता हुआ हमारी ओर ही आ रहा था। हम लोग कहां भागते, खड़े रहे, वह दौड़ता आया हमें कुछ भी बिना क्षति पहुंचाये नजदीक से ही निकल गया। अब हम मन्दिर में पहुंच चुके थे। मन्दिर के पुजारी जी ने हम लोगों के इस समय पहुंचने की बात असम्भव मान कर अत्यन्त आश्चर्य किया और हम लोगों को तब आश्चर्य हुआ जब कि हमने मन्दिर पहुंच कर देखा कि सिवाय ऊपरी वस्त्र के, उसमें बन्धी पूजा सामग्री, भोजन सामान (आटा आदि) तथा पुस्तकें, सम्पूर्ण की सम्पूर्ण सूखी ही थीं।

वर्षा छूट जाने पर हम निर्विघ्न रूपेण घ्र वापस लौटे।

श्री बैजनाथ प्रसाद सौनकिया, दिगौड़ा से लिखते हैं—

पूज्य आचार्य जी ने मुझे चैत्र नवरात्रि में गायत्री तपोभूमि मथुरा आने का अनुग्रह प्रसाद दिया था, पर मैं प्रारब्धवश उत्पन्न परिस्थिति को लांघ कर वहां नहीं जा सका। फिर भी गायत्री माता की अज्ञात प्रेरणा से हम चौदह उपासकों ने मिलकर दिगौड़ा के जगदम्बा मन्दिर में 24000 चौबीस हजार मन्त्र जपने का संकल्प प्रत्येक ने लिया और निष्ठा सहित जप करने लगे। प्रति दिन उस मन्दिर में बैठ कर अपना-अपना जप पूरा कर सभी घर जाते।

31 मार्च (1955) को जप करने के उपरान्त मैं घर आया तो दोपहर हो गई थी। धूप तीखी हो रही थी। मैंने शीघ्रता के विचार से उस दिन केवल चावल पका लेने का ही निश्चय किया, रसोई घर में बैठ चूल्हा जलाया और चावल सिद्ध होने के बाद मैंने सोचा कि केवल भात कैसे खाया जायगा, अतः अन्दर से थोड़ा गुड़ ले आना चाहिये। मेरे बगल में ही लालटेन रखा हुआ था। मैंने लैम्प जलाया और उसे लेकर गुड़ लेने चला। उस समय मुझे इसकी जरा भी सुध नहीं थी कि यह दोपहर है और इस समय लैम्प जलाने में आश्चर्य तो यह कि उस घर में जाते और आते समय मैंने अब तक कभी रात में भी प्रकाश का सहारा नहीं लिया और आज दिन को लैम्प जला कर, गुड़ लाने जा रहा था। जब गुड़ वाले घर के देहली पर गया तो देखा कि उसके प्रवेश द्वार पर एक सर्प बैठा है, जैसे किसी की प्रतीक्षा कर रहा हो। मैंने जैसे ही सर्प को घर के दरवाजे पर बैठा हुआ देखा कि मुझे अचानक ही दिन को लैम्प जलाना, और गायत्री माता कृपा का एक साथ ही ज्ञान हुआ और सर्प देखकर भागने के स्थान पर मैं ठठाकर हंस पड़ा और उल्लास में भर कर ताली पीटने लगा। सर्प महाराज पता नहीं किधर भाग गये।

उस दिन स्थानीय सभी उपासकों ने मिलकर एक सभा का आयोजन किया और उस सभा में गायत्री माता का गुणगान किया।

मैं यह सदैव सोचा करता हूं कि यदि गायत्री माता की कृपा से मैंने दोपहर दिन में लैम्प जलाने की मूर्खता न की होती, तो आज मैं अकाल मृत्यु ग्रस्त होकर किसी अन्य ही लोक का भोग कर रहा होता।

श्री. शिव शंकर शर्मा, कामठी से लिखते हैं—

माता की कृपा की अनेक घटनाएं मेरे जीवन में अवश्य घटीं। पर सबसे आश्चर्यकारी चमत्कारी यही घटना है जिसमें मेरे प्राण बचा लिए गए। सर्प दंशन से बच जाना; वृक्ष गिरते समय उससे बच निकलना और—इंजिन से कटते-कटते बच जाना ये भी मेरे जीवन में आश्चर्य  घटना ही है पर मुझे सब अधिक आश्चर्य और माता की साक्षात करुणा दीख पड़ती है।

उस दिन बंगले से लौटा आ रहा था, सहसा ही पथ में जोरों का तूफान आया। घोर अन्धकार छा गया। मैं साइकिल लेकर आगे बढ़ता ही गया। रास्ते में पल्टनों की छावनी पड़ती थी, मैं सन्तरी की ओर बढ़ता जा रहा था। उसने कई बार आवाजें भी दीं पर मैं सुन न सका। कुछ निकट जाने पर देखा सन्तरी मेरी ओर बन्दूक सीधा किये खड़ा है। मैं देखते ही हठात् रुका और कहा मैं तो यहीं का ठेकेदार हूं। सन्तरी ने कहा कि अब तो हमने भी तुम्हें पहचान लिया है, पर जिस समय उस तूफान में कई बार आवाज देने पर भी तुम नहीं रुके, उस समय मैंने सरकारी अनुशासन के अनुसार दो बार तुम्हारे ऊपर बन्दूक चलाई, आश्चर्य कि दोनों बार घोड़ा दबाने पर भी बन्दूक न छूटी। तुम्हारे सौभाग्य ने तुम्हारा प्राण बचा लिया। माता की याद करते ही मेरा हृदय गदगद हो उठा और वहां से अश्रु पुष्प मातृ चरणों पर चढ़ाता हुआ घर आया।

श्री दत्तात्रेय पुरुषोत्तम हरदास ए.एम.आई.टी. इटारसी से लिखते हैं—

उपनयन संस्कार के थोड़े ही दिन बाद मैंने उपासना को व्यर्थ की भावुकता तथा अनर्थक-पुरुषार्थ समझकर त्याग दिया। कुछ दिन उपरान्त मैंने ‘‘प्राचीन भारत में शिक्षा की प्रणाली’’ एक अंग्रेजी पुस्तक पढ़ी और उसमें मुझे गायत्री उपासना में प्रवृत्त कर दिया। फिर पू. आचार्य श्रीराम शर्मा लिखित गायत्री विज्ञानादि ग्रन्थ पढ़ कर तो मैं इसका अनुरक्त बन गया।

मैं सरकारी कर्मचारी हूं। मेरे इन ईर्ष्यालु-साथियों ने मुझे स्थान-च्युत या स्थानान्तरित करने के लिए षड़यन्त्र रचा। हमारे उच्चाधिकारियों के पास मेरी झूठ-मूठ की बनी-बनाई अनेकों शिकायतें लिख भेजी। उसी समय मेरी पारिवारिक स्थिति भी संकटपूर्ण हो गई। बारिश के दिन थे। बच्चे सभी मोतीझरा से आक्रांत थे। मुझे जरा भी चैन नहीं था। चिन्ता से जर्जर हो रहा था। एक दिन अत्यन्त पीड़ित होकर माता से विनय किया—‘‘मां! मुझे इन संकटों से अब उबार ले।’’ उसी रात स्वप्न में एक दिव्य स्त्री के रूप में माता का दर्शन हुआ, मुझे कहा—‘‘तुम्हारा स्थानान्तर रुक जायगा, चिंता छोड़ दो।’’

आश्विन—नवरात्रि का अवसर आया। मैं अनुष्ठान में संलग्न हो गया। उसी बीच सहसा उच्च अधिकारी का आदेश पत्र मिला—जिसमें मेरा स्थानान्तर लिखा था, मैं हतप्रभ हो गया। सोचने लगा—क्या वह स्वप्न मेरी कल्पना था?

पुनः उसी रात में दिव्य तेजोमयी माता ने स्वप्न में आश्वासन दिया ‘‘घबड़ाओ नहीं, बदली तुम्हारी नहीं, तेरे विद्वेषियों की ही होगी।’’

एक सप्ताह के बाद ही मेरे सारे ईर्ष्यालु मित्र, वहां से स्थानान्तरित कर दिये गये और मैं आज भी उसी स्थान पर काम करता हुआ दिनानुदिन प्रकाश और आनन्द का बढ़ता हुआ स्वरूप अपने में पा रहा हूं।

श्री गोमतीबाई दुबे, दमोह से लिखती हैं—

एक बार मैं रसोई बना रही थी। मेरे अनजाने में साड़ी में आग लग गई। आधी साड़ी जलने के बाद मुझे पता लगा—पर मेरे अंग के किसी भाग में जरा आंच न आई।

दूसरी बार मैं बाहर गृहकार्य में संलग्न थी। खाट पर छोटी बच्ची सो रही थी। रजाई का एक कोना नीचे लटक रहा था। सहसा घर की बड़ी बच्ची ने एक धधकते हुए अंगारे से भरे तसले को ले जाकर खाट के नीचे रख दिया और चली आई। रजाई का वह भाग तसले से सटा हुआ था, पर अग्नि के स्पर्श से जरा सा ही अलग था। यह गायत्री माता की ही कृपा थी जो वह अबोध शिशु जलने से बच सकी।

हमारे पड़ोस के एक दम्पत्ति निःसन्तान थे। अनेक उपाय किये जा चुके थे, पर कोई परिणाम नहीं हुआ। एक दिन वह नारी मर्महित-हृदय लिये मेरे पास आई और अपनी सारी व्यथा कह सुनाई। मैंने माता का स्मरण कर गायत्री से अभिमन्त्रित कर उसे जल पिला दिया और उसे भी जप करने के लिए निवेदन किया। आज वह सन्तानवती बन गई है। इस घटना से मैं स्वयं ही आनंद विभोर हूं। अन्तर देश में जो कुछ देख और पा रही हूं—वह लिख नहीं सकती केवल भाव दृष्टि देख-देख मुग्ध हो रही हूं।

श्री मदनलाल जोशी, गंगधर से लिखते हैं—

अखण्ड ज्योति ने मुझे बिना किसी आवश्यकता के—खींच कर गायत्री उपासना में प्रवृत्त कर दिया और शायद यह अकारण ही दया करने वाली माता की अपार करुणा थी, जिसके कारण मैं भविष्य में आने वाले अटल संकट से निस्तार पा सका।

दुर्भाग्यपूर्ण प्रारब्ध के कारण मेरे दुश्मनों ने पुलिस को पक्ष में कर लिया और मेरे ऊपर ऐसे अभियोग लगाये, कि जिसकी सफलता होने में मेरा सर्वनाश उपस्थित था। एक सप्ताह के अन्दर मुकद्दमों की जटिलता इतनी बढ़ गई कि मैं दुश्चिन्ता के कारण सो नहीं सकता था। रुपयों तथा उच्च पद स्थित साथियों की सहायता लेने का विचार मन में उत्पन्न हुआ, पर उसी समय अन्तर में एक आवाज आई—‘‘अपना हित चाहते हो तो सारे भरोसों को छोड़कर गायत्री उपासना करो।’’ उसी दिन मैंने विधि पूर्वक उपासना प्रारम्भ करदी। इस सप्ताह में मुझे चिंता से नींद नहीं आती थी, पर उपासना करने की रात्रि में इतनी निश्चिन्तता का बोध हुआ कि मैं सूर्योदय तक बेखबर पड़ा रहा। कलक्टर साहब से मिलने की प्रेरणा हुई। जाकर मिला।

माता के अनुग्रह से, उन विद्वेषियों को पांच-पांच सौ रुपये का मुचलका देना पड़ा। हथकड़ियां पहननी पड़ी। इतने पर भी उन लोगों के अन्तर की द्वेषाग्नि शान्त नहीं हुई थी, उन लोगों ने पांच सात गुण्डों को रुपये का प्रलोभन देकर अप्रगट रूप से मुझे सताने की योजना बनाई। मेरा अनुष्ठान चल ही रहा था कुछ दिन बाद मुकदमे में मेरी शानदार विजय हुई, उसी समय मुझे बदल कर गंगधार आ जाना पड़ा। मन में आया, इस परदेश में शायद गुण्डों को मेरे ऊपर आघात करने का अनुकूल अवसर न मिल जाय? पर माता की कृपा! एक गुण्डे की माताजी बीमार पड़ गई, उसके रुपये उसी में खर्च होने लगे। दो गुण्डों को मारपीट केस में सजा हो गई और शेष यों ही ठण्डे हो गये।

आप सोच सकते हैं कि यदि मैंने गायत्री उपासना का आश्रय न लिया होता, तो आज मैं जेल में पड़कर सड़ता रहता और जीविका के भी लाले पड़ जाते। माता की असीम कृपा से सारी उलझनों से बाहर निकल कर आज हम निर्द्वन्द भाव से अपना काम करते हुए जीवन यापन कर रहे हैं।

श्री ए.पी. श्रीवास्तव, गार्ड, सी. रेलवे, दमोह स्टेशन से लिखते हैं—

मैं एक मालगाड़ी का गार्ड था। दमोह जंक्शन से कटनी जंक्शन तक मेरे ऊपर संरक्षण का उत्तरदायित्व था। एक बार लगभग साढ़े सात बजे रात में सलैया स्टेशन पर एक डिब्बे से चोरों ने चोरी करली। मैंने उसी समय, ये बातें सभी को जता दी, तार भी कर दिया। फिर भी छः महीने के उपरान्त हमारे विभाग वालों ने मुझे ‘गार्ड’ पद से च्युत कर ‘नम्बर टेकर’ बनाने का प्रयत्न किया। पुलिस विभाग वालों ने झूठा लांछन लगाने का षड़यन्त्र किया, पर उन सबों की सारी चेष्टायें व्यर्थ हो गयीं। मैंने अपने भाई शारदा कान्त के कहने तथा वीना ड्रायवर भगवती दीन जी जो एक अनुभवी गायत्री उपासक हैं, के निर्देशानुसार, स्वयं गायत्री उपासना प्रारम्भ कर दिया। थोड़े दिनों के उपरान्त मैंने अपील की और माता की कृपा से ये संकट विनष्ट हो गये और जिन लोगों ने द्वेषवश, बिना अपराध के मुझे गड़ढे में ढकेलने का प्रयत्न किया था, वे स्वयं ही दण्डित होकर अपना फल भुगत रहे हैं। अब तो माता की कृपा से मेरे ऊपर आये संकट अनायास ही टल जाया करते हैं।

श्री राम, कोलसा, आजमगढ़ से लिखते हैं—

यद्यपि हमने बहुतों से सुना था कि गायत्री बड़ा शक्तिशाली मन्त्र है, पर उसे जीवन में प्रत्यक्ष देखने का अवसर नहीं आया था। पर आगामी वर्षों से एक गायत्री उपासक श्री मन्नूलाल जी के साथ रहकर जो कुछ देखा और अनुभव कर सका, वह इसलिए छापने की इच्छा हुई कि यह पढ़कर यदि एक भी व्यक्ति गायत्री माता का आश्रय ग्रहण कर अपना कल्याण कर लेंगे तो मैं अपने को कृतार्थ समझूंगा।

दानापुर के श्री रामदास धोबी की पत्नी को प्रेत लगता था। एक बार मेरे सामने एक व्याकुल आदमी मन्नूलाल जी को बुलाने आया। मैंने उस बुलाने वाले से उसकी छटपटी का कारण पूछा—उसने बताया कि वर्षों से रामदास की पत्नी को प्रेत लग रहा है। जब वह आता है तो इसके हाथ पैर ऐंठ से जाते हैं, आंखें उलट जाती हैं तथा शरीर मुर्दे समान स्थिर और ठण्डा हो जाता है। उत्सुकता वश मैं भी मन्नूलाल जी के साथ गया। इन्होंने जाकर गायत्री माता का ध्यान किया और उपरान्त प्रार्थना की कि हे माता। इस गरीब दुखियारी के कष्ट हर ले। मैं पन्द्रह दिन तक इसके लिए 10 माला गायत्री महामन्त्र का जप और अन्त में उसका हवन करूंगा। उनकी प्रार्थना मात्र से वह औरत तुरंत ही अपनी स्वाभाविक दशा को प्राप्त हो गई और फिर उसे प्रेतावेश नहीं आया।

श्रीशिव प्रसाद शुक्ल समदा, घुमनी से लिखते हैं—

मैं प्रथम साधारण रूप से गायत्री उपासना कर लिया करता था। मैं प्रतिष्ठापूर्ण-स्थिति प्राप्त कर अपना सुखद-जीवन व्यतीत कर रहा था। सहसा ही एक व्यक्ति ने वह स्थान अधिकृत करने के लिये, मुझे उस स्थान से च्युत करने के लिये भयंकर षडयंत्र किया। मैंने विचार किया—देखा, उसका षडयंत्र सफल होकर मुझे प्रतिष्ठा और जीविका दोनों से वंचित कर देगा। ऐसा अनुभव करते ही मैं व्याकुल हो उठा पर अपनी यह अन्तः व्यथा किससे कहता? चिन्ता से प्राण-मन आच्छन्न हो रहे थे। नींद का कहीं पता नहीं था। ठीक मध्य निशा थी। सभी सो चुके थे। सोचा, इस महान् संकट का निवारण, सिवाय गायत्री माता को छोड़कर और कौन करने वाला है? इतना सोचते ही मेरी आंखों से धारा बह निकली। घन्टों तक उस निस्तब्ध-निशा में मां के आगे रोता रहा। हिचकियां बंध गयीं। रोते हुए मुझे कब नींद आ गयी—कुछ याद न रहा। तुरंत देखता हूं, मेरी माता जो स्वर्गीय हो चुकी हैं, मेरे सामने खड़ी होकर कह रही हैं—‘बेटा! चिन्ता क्यों कर रहे हो? दुःख छोड़ो और यह माला लो। सवालक्ष गायत्री जपने से तेरे संकट स्वतः ही निवृत्त हो जायेंगे।’

तुरन्त ही आंखें खुलीं। देखा—कहीं कोई नहीं था। ब्राह्मी मुहूर्त्त उपस्थित था। मैंने समझ लिया कि माता के रूप में स्वयं गायत्री माता ही थी। और मैं उठकर आदेश पालन की तैयारी में लग गया।

सवालक्ष का दो अनुष्ठान किया। एक बार पुनीति सरयू नदी के तट पर बैठकर भगवान राम की जन्म भूमि अयोध्या में और दूसरी बार ऋषि-मुनि सेवित, पुण्य सलिला भागीरथी के पावन-पुलिन पर स्थिर होकर ऋषिकेश में और मेरी प्रतिष्ठा एवं अन्य स्थितियां पूर्व के रूप में रहते हुए ही उज्ज्वल और गहरी हो गयी हैं। षड़यन्त्रकारी महोदय अपना दिवस—‘‘नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं।’’ का अनुभव लेते हुए काट रहे हैं।

श्री अम्बाराम पन्ढरीसा, भावसार से लिखते हैं—

शुक्रवार ता. 8-4-55 के दोपहर की घटना है। ‘‘गायत्री आश्रम, खण्डवा’’ का साइनबोर्ड फ्रेम निर्माण कर्त्ता की दुकान से लाने जा रहा था। दुकान समीप थी। मैं गायत्री स्मरण में आनन्द मग्न होता सा जा रहा था। वहां, एक मदोन्मत्त सांड़, जो बिना अपराध के ही सामने वालों को अपनी झोंक में, सींग से उठा कर फेंक देने का अभ्यासी था, मेरे पीछे जोरों से दौड़ता हुआ आया और मेरी पीठ में सींग लगाया। किन्तु न जाने मां गायत्री ने उसके अन्तर में कौन सी प्रेरणा दी कि मेरे शरीर का स्पर्श करते ही वह पीछे हट गया और मुझे छोड़, मेरी बगल से आगे आकर एक साइकिल वाले को जोरों से ठोकर दे दिया। उस विचारे को चोट तो लगी किन्तु कोई विशेष खतरा नहीं हुआ।

यह घटना क्षण मात्र में ही हो गई। मैं सोचता हूं, यदि उस समय मैं गायत्री का स्मरण नहीं कर रहा होता, तो वह उन्मत्त सांड़, मेरा कचूमर निकाल देता और मैं किसी अन्य ही लोक का वासी हो गया होता।

आज माता के प्रति मेरा हृदय कृतज्ञता से भरा हुआ है, सोचता हूं मैं अब इस जीवन को गायत्री माता की सेवा में समर्पित कर सकूं तो मेरे और शायद सबों के लिये बड़ा ही कल्याणकारी सिद्ध हो।

श्री शिवशंकर शर्मा, शिवपुरी से लिखते हैं—

लगभग दो वर्ष हुये, मुझे अखण्ड ज्योति पढ़ने को मिली। उससे प्रभावित होकर मैं अखण्ड ज्योति का ग्राहक बना। आचार्य जी से अपने जीवन को सफल बनाने का मार्ग पूछा। उन्होंने श्रद्धापूर्वक गायत्री उपासना करने का आदेश दिया। मैंने तदनुसार माता की उपासना आरम्भ करदी। माता की कृपा से मेरे स्वभाव एवं विचारों में सात्त्विकता का संचार हुआ और मन में अत्यधिक शान्ति उत्पन्न हुई छबढ़ा निवासी श्री मेरुलाल जी की पत्नी गंगाबाई को भूत बाधा सताया करती थी। उसने मुझसे कहा। मैंने आचार्य जी का नाम ले गायत्री से उसे झाड़ा लगाया और मन्त्र से अभिमन्त्रित जल पिलाया। इस प्रकार गायत्री माता की महान अनुकम्पा से उसको भूत बाधा से छुटकारा मिल गया। एक दिन अचानक श्री कल्याण प्रसाद की धर्मपत्नी फूल कुंवारी को भूत का सामना करना पड़ा जिससे वह बेहोश हो गई। मैं पहुंचा और उसको गायत्री मन्त्र से अभिमन्त्रित जल पिलाया एवं उसी से झाड़ा लगाया। कुछ मिनटों के बाद वह पूर्ण स्वस्थ हो गई। माता की उपासना का ऐसा ही फल होता है।

श्री जगदीश स्वामी कटनी से लिखते हैं—

लगभग दो वर्ष हुए मुझे ‘‘अखण्ड ज्योति’’ पत्रिका पढ़ने को मिली। मैं इस पत्रिका से ऐसा प्रभावित हुआ कि इसका ग्राहक बन गया। मैंने परम पूज्य आचार्य जी द्वारा बताए हुये नियमानुसार गायत्री उपासना प्रारम्भ कर दी। प्रारम्भ में मन नहीं लगता था, अब उन्हीं की कृपा से स्थिरता बढ़ रही है। दैवयोग से आपस में कुछ कलह हो जाने से मुझे दो मुकदमों में फंसना पड़ा। कुछ महीनों के बाद मुकदमा समाप्त हुये और फैसले में असफलता मेरे भाग में आई। मैं दुःखी रहने लगा। मैंने गुरुदेव को पत्र लिखा और संकट निवृत्ति के लिये प्रार्थना की। उन्होंने अधिक श्रद्धा एवं विश्वास के साथ गायत्री साधना में लग जाने को कहा। मैंने तदनुसार संकल्प सहित उपासना बढ़ा दी। माता की कृपा से मुझे साहस बढ़ा प्रेरणावश मुकदमों की अपील कर दी कुछ माह बाद तारीख पड़ी। मुकदमा नये सिरे से चलाये गये। सच्चाई प्रगट हो गई और अन्त में मुझे सफलता प्राप्त हुई।

श्री नन्द किशोर तिवारी, धवोली (सागर) लिखते हैं—

तपोभूमि के महायज्ञ की पूर्णाहुति करके घर लौटा जा रहा था। मेरे गुरुवर गायत्री के परम उपासक श्री परमा नन्द मिश्र जी साथ ही थे। बीना स्टेशन पर उतरकर वे प्लेटफार्म पर बैठकर सन्ध्या करने लगे,—मैं उसी जगह खड़ा रहा। उसी समय एक ठेला पर चार बारूद की पेटी ट्रेन से उतार कर कुली लिये आ रहा था। सहसा एक पेटी फूट गई और स्टेशन में आग लग गई। गुरुदेव के निकट ही छः व्यक्ति अत्यधिक जल गये जिनमें तीन अस्पताल में जाकर मर गये। मेरा सारा वस्त्र और शिखा तक जल गये—शरीर में दो जगह थोड़े थोड़े जलने के निशान बन गये, पर मेरे गुरुदेव को जरा सी आंच भी न आयी। उनके निकट के अन्य काफी जल गये। मैं खड़ा होकर माता की संरक्षण लीला आंखें फाड़कर देख रहा था।

श्री भगवान सिंह (एक्कलवारा) मनावर, (धार), अपना अनुभव लिखते हैं—

मैंने अबतक करीब साढ़े पन्द्रह लाख गायत्री मन्त्र जप किया है। इससे मैं दानव से मानव, दरिद्रता तथा डाइजेक्शन की बीमारी मुक्त हुआ हूं। 30 अक्टूबर 1956 को मैं अपने मकान के ऊपरी छत पर बैठकर भोजन कर रहा था। अचानक मकान के नीचे का खम्भा टूट जाने से सारा मकान गिर गया। मैं भी उसके साथ ही ऊपर से नीचे गिरा। दीवारें गिरीं, चांदनी के पतरे गिरे, पाट-खपड़ आदि सब ही मेरे ऊपर गिरे, पर न तो मुझे कुछ चोट आई, और न कुछ लगा ही। गांव के लोग दौड़े आये और मुझे सुरक्षित देखकर सभी गायत्री माता की जय-जयकार करने लगे।

श्री शिवशंकर मिश्रा, कामठी नागपुर से लिखते हैं—

कुछ समय पहले की बात है कि मेरे मामा सख्त बीमार हो गये और कई महीने रुग्णावस्था में रहकर स्वर्गवासी हुए। मृत्यु होने के करीब 20 दिन पहिले डॉक्टर ने उनको नागपुर ले जाकर परीक्षा कराने की राय दी। इसके लिए अस्पताल की बीमार ले जाने वाली मोटर का प्रबन्ध एक दिन पहले ही कर लिया गया। मामा ने मुझे बुलाकर कहा कि तुम्हें मेरे साथ चलना है सो देर न लगाना, मोटर सुबह ठीक सात बजे आ जायेगी। मैं चलने को कहकर घर आकर सो गया। मुझे स्वप्न में यह मालूम हुआ कि कल मोटर दुर्घटना होगी। परन्तु उस पर ज्यादा ध्यान न देकर मैंने यह समझा कि कहीं से दुर्घटना का समाचार सुनने में आयेगा। मैं सुबह यथा संभव जल्दी उठा और नित्य नियम के अनुसार गायत्री जप व हवन करने लगा। इतने में मोटर नागपुर से आ गई। दो बार मामा का लड़का बुलाने आया कि मामा और ड्राइवर जल्दी कर रहे हैं। घर के लोग भी नाराज हो रहे थे कि इस समय पूजा लेकर बैठ गये, जाते नहीं। पर मैंने निश्चय किया कि नित्य नियम पूरा करके जाऊंगा। इस कारण मैं कुछ देर में पहुंचा और मामा को लिटा कर नागपुर आया और वहां उनकी जांच कराई। लौटते समय अस्पताल से कुछ दूरी पर फल लेने को उतरा। फिर मैं जब बैठने लगा कि मोटर चलदी और मैं धड़ाम से जमीन पर गिरा वह ऐसी जगह थी कि जहां बड़ी तेज चढ़ाई थी। अगर मोटर जरा भी पीछे को सरकती तो मेरी हड्डियां चूर-चूर कर देती और अगर आगे निकल जाती तो ऊपर से आते हुए सैकड़ों रिक्शों और तांगे, मोटर आदि से दबकर मैं चटनी बन जाता। गिरने से मुझे चोट तो काफी लगी, पर लोगों ने उठाकर मोटर में लिटा दिया। घर पहुंच कर भी मुझ से स्वयं चला नहीं गया और लोगों ने ही घर में भीतर पहुंचाया। पन्द्रह बीस दिन बाद मैं कुछ चलने फिरने लायक हुआ। गायत्री माता ने मुझसे पहले से ही दुर्घटना की सूचना देकर सावधान किया और मेरे असावधानी करने पर भी मेरी प्राण-रक्षा की। यह उनकी अपार कृपा का प्रमाण है।

श्री भागीरथ जी हरदिया, कसरावद अपने अनुभव की घटना लिखते हैं—

मेरे यहां भाई एवं बहन की शादी थी। मैं अपने दो साथियों के संग पानी की कोठी भरने के लिए कुएं पर जा रहा था साथ में मेरी बुआ का आठ वर्ष का लड़का भी था। एक पत्थर पर गाड़ी के चढ़ जाने के कारण वह आठ सात मन भारी कोठी उस बालक पर गिर पड़ी और बालक गिरकर चक्के के नीचे आ गया। उसके पेट पर से चक्का निकल गया। लड़के को वमन होने लगा और छटपटा कर कराहने लगा। मैं व्याकुल होकर माता की प्रार्थना कर रहा था। तुरंत बालक को डाक्टर के यहां लेकर गया। डॉक्टर ने भली भांति जांचकर कहा—लड़का अब पूरा स्वस्थ है। सभी आश्चर्य में थे कि इतनी भारी गाड़ी का भार सहकर वह कैसे पूरा स्वस्थ रह सका! मैं विवाह अवसर पर इस महाविघ्न से बचा लेने के लिये माता को धन्यवाद दे रहा था।

अतर्रा (बांदा) से श्री रामसिंह जी लिखते हैं—

मैं मोटर ठेला से इलाहबाद होता हुआ कानपुर से अतर्रा आ रहा था। दुर्भाग्य से अतर्रा से 28 मील पर हमारा मोटर ठेला उलट गया। ठेले में 170 मन वजन भरा था। मोटर उलटने से ड्राइवर तो 5 मिनट के अन्दर मर गया। दूसरे आदमी का पैर टूट गया। मुझे गायत्री माता ने बचाया। सिर में मामूली चोट आई। एक ही जगह बैठे हुये लोगों में से मेरा इस प्रकार बच जाना माता का अनुग्रह ही है।

श्री गंगाप्रसाद सिंह जी बरिया घाट (मिर्जापुर) से लिखते हैं—

ता. 9 सितम्बर 54 को दिन के 3।। बजे वर्षा हो रही थी, घर में सब भाई भतीजे चारपाई पर बैठे थे। अचानक घर पर आकाश से भयंकर गड़गड़ाहट के साथ बिजली गिरी। औरतें जोर से रोने लगीं मेरे मुंह से गायत्री माता की पुकार निकली। बिजली गिरने से छप्पर की खपडैल टूट गई घर में धुआं भर गया, बारूद की सी तेज गंध आ रही थी, दीवाल व नीचे की जमीन जहां लड़के बैठे थे बुरी तरह फट गई, मकान से सटा हुआ नीम का पेड़ जल गया। इतना सब होते हुए भी घर के किसी व्यक्ति को कोई क्षति न पहुंची। जहां सब लोग बैठे थे, ठीक उनके नीचे की जमीन का बिजली के भयंकर प्रहार से फटना और किसी का बाल भी बांका न होना सभी दर्शकों के लिए एक आश्चर्य की बात थी। तब से हम लोगों को गायत्री माता पर अनेक गुनी श्रद्धा बढ़ गई है।

श्रीदेवीशंकर शुक्ल, श्यौपुर कलां लिखते हैं—

अखण्ड-ज्योति से सम्पर्क जोड़ने के बाद मैं गायत्री उपासना करने लगा था। मैं प्रतिदिन साइकिल पर एक पुल पार करते हुये पढ़ाने जाया करता था। वर्षा का मौसम था। पुल के बगल में जो मुड्डियां लगी हुई थीं, वह बरसात में टूट फूट गयी थीं। पुल के नीचे पत्थरों के ढेर थे। एक दिन वेतन लेकर वापिस आ रहा था। अचानक पुल पर से साइकिल फिसली और अगला चक्का किनारे पर जाकर नीचे लटक गया। प्राण संकट के अवसर पर मैंने गायत्री माता का स्मरण किया और स्मरण करते ही मेरा एक पैर एक मुड्डी पर स्थिर हो गया और उसी क्षण एक हाथ से मैंने साइकिल का पिछला चक्का पकड़ लिया। इस भांति साइकिल सहित मेरी रक्षा माता की कृपा से हो गयी, नहीं तो दोनों के चकनाचूर होने में पल मात्र की देरी थी।

श्री पूरनमल जी गौतम, कोटा से लिखते हैं—

मैं मोटर ड्राइवर हूं। गत मास सांगोद जाते समय धानाहोड़ा गांव के पास एक दुर्घटना हुई। तीन औरतें आपस में ठठोली करती हुई सड़क पर चली जा रही थी। जैसे ही मोटर बराबर आई कि एक औरत ने दूसरी को धक्का मारा जो मोटर के पहिये के बिलकुल आगे आ गई। मैंने बहुत बचाया मगर उस के मडगार्ड की ठोकर लग गई और वह पहिये के नीचे आ गई। मैंने सोचा एक पहिये के नीचे कुचली तो भी यदि पीछे के पहिये से बच जावे तो शायद इस की जान बच जाय। माता का नाम लेकर गाड़ी तेजी से घुमाई। लारी बबूल के पेड़ से टकराई। मैं बुरी तरह घबरा रहा था कि औरत भी मरी गाड़ी भी टूटी। जब नीचे उतरा तो देखा कि वह औरत मोटर के नीचे से खुद ही निकल कर बाहर आ रही है। औरत के हाथ पैरों के जिन जेवरों पर होकर पहिया गुजरा था वे तो टूट गये पर उसको जरा भी चोट न आई। लारी में ठसाठस भरी हुई सवारियों में से भी किसी का बाल बांका न हुआ। माता की इस कृपा को जितना धन्यवाद किया जाय कम है।

दिगौड़ा (टीकमगढ़) से श्री गोविन्द दास भार्गव सूचित करते हैं—

श्री ब्रह्मचारी जी की प्रेरणा से ललितपुर जिला झांसी में एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया गया। यज्ञ की पूर्णाहुति बड़े उत्साह पूर्वक हुई। पूर्णाहुति के उपरान्त सभी नर-नारी अपने-अपने घर वापिस जाने लगे। इसी बीच में अचानक एक कुत्ता हवन कुण्ड में आ गिरा। यह दुर्घटना देखकर सभी लोग परेशान थे। परन्तु एक पंडित जी साहस पूर्वक हवन कुण्ड में सीढ़ी लगाकर घुस गए, तत्काल उन्होंने उस कुत्ते को बाहर निकाला। कुत्ता एवं पंडित जी पुर्ण सुरक्षित थे, यह दृश्य देखकर सभी लोग वेद माता की दया का अनुभव करके प्रसन्न चित्त थे। वह कुत्ता आज कल ब्रह्मचारी जी के साथ ही रहता है। माता का ऐसा प्रत्यक्ष अनुभव देखकर सभी जन समूह प्रभावित हुआ।

सुश्री प्रेमलता गुप्ता, मसूरी से माता के वात्सल्य का वर्णन करती हुई लिखती हैं—

गायत्री उपासक श्री वानप्रस्थी जी मेरे सम्बन्धी हैं। एक बार उनके यहां जाने पर उनके पास का गायत्री साहित्य मैंने खूब अध्ययन किया। गायत्री के प्रत्यक्ष चमत्कार पढ़ कर गायत्री उपासना की इच्छा प्रबल हो उठी। तभी से उपासना करने लग गयी।

हमारे निवास स्थान से जंगल लगा हुआ ही है। मैं जब जप करने बैठती तो एक पड़ोसी का कुत्ता भी आकर बैठ जाता और जप समाप्त होने पर चला जाता। एक दिन छत पर बैठ ब्राह्मी मुहुर्त्त में मैं जप कर रही थी। वह कुत्ता भी आकर बैठ गया। जंगल होने से जंगली जानवरों का भय सदा हमें लगा ही रहता है। उस दिन सहसा एक बघेरा आया और कुत्ते पर ताक लगा ही रहा था कि उसके मालिक ने उसे पुकारा और वह तुरन्त भागा चला गया। उस बघेरे की दृष्टि बच्चे और मेरे ऊपर थी मेरे तो प्राण सूख गये। मैंने मां से प्रार्थना की—मां तेरे सिवाय अब इस क्षण में रक्षा का कोई उपाय नहीं। ठीक दूसरे ही क्षण बघेरे ने हम लोगों पर एक बार दृष्टि डाली—कूद कर झाड़ी में छिप गया। माता के चरणों में, मैं न्यौछावर हूं।

श्री सुधाराम महाजन विलासपुर से लिखते हैं—

गत मास कार्यवश रायपुर से कबर्धा जाने को ‘बस’ में सवार हुआ। शायद भावी दुर्घटना की पूर्व सूचना मुझे अव्यक्त रूप से हो रही थी, इससे रायपुर के ‘‘वेटिंग रूप’’ में ही मैंने चालीसा के पांच पाठ कर डाले। मोटर में भी मानसिक जप चल रहा था। जगभग 14 मील निकल जाने पर अचानक मोटर का अगला चक्का टूटकर अलग जा गिरा। हमारी गाड़ी बगल के खड्डे की ओर बढ़ चली और सभी यात्रियों की आंखों के आगे अंधेरा छा गया। ड्राइवर ने कुशलता से ब्रेक लगाई और किसी भी यात्री को तनिक भी धक्का न लगते हुए गाड़ी सड़क के किनारे ऐसे रुक गई मानो किसी ने टेक लगाकर खड़ी कर दी हो। ईश्वर का नाम लेते हुए सभी यात्री उतर पड़े। लोग कह रहे थे कि गाड़ी में कोई नेक आदमी जरूर है, जिसके कारण सब बाल-बाल बच गये।

श्री ज. मा. गवली, थाना (बम्बई) माता की कृपा का वर्णन करते हैं—

नौकरी से घर वापिस आ रहा था। स्टेशन पहुंचकर चलती ट्रेन पकड़ने की कोशिश की। हैण्डल पकड़कर पांवदान पर खड़ा ही हुआ था कि मेरे हाथ से हैण्डल छूट गया और मैं गाड़ी के नीचे लुढ़क गया। पर पता नहीं कैसे मेरे गिरते ही गाड़ी सहसा रुक गई और मैं थोड़ी सी चोट मात्र खाकर बाल-बाल बच गया। लोग मेरे भाग्य की सराहना कर रहे थे और मैं प्राण रक्षिका अपनी इष्ट देवी गायत्री माता की याद में आंसू बहा रहा था।

श्री रामकिसन वडाले, मालेगांव (नासिक) लिखते हैं—

गणेश उत्सव की तैयारी में मैं सीन बनाने में लगा हुआ था। एक बिजली का तार वहां नीचे लगा हुआ था। अचानक मेरे हाथ का पंजा उस तार पर जा पड़ा और चिपक गया। बिजली का करंट मेरे सारे शरीर में फैल गया और मेरे प्राणों को खींचने लगा। मेरे बड़े भाई और मित्रगण भी वहीं थे, पर कुछ नहीं कर सके। मेरा प्राण जाने ही वाला था—मैंने माता को व्याकुलता से याद किया। बोलने की सामर्थ्य थी ही नहीं। याद करते ही जिस होल्डर में से यह वायर आया हुआ था, वह होल्डर टूट कर नीचे गिर पड़ा और मेरे प्राण बच गये। ठीक उसी क्षण में होल्डर का गिर पड़ना माता की साक्षात् कृपा नहीं तो क्या है?

डेरापुर (कानपुर) से श्री सतीशचन्द्र लिखते हैं—

इसी नवरात्रि में जबकि मेरा 24000 का अनुष्ठान चल रहा था, एक दिन मैं खेत में ट्रैक्टर चलाने गया और भूल से नेकर आदि न पहिन कर धोती ही पहने रहा। न मालूम कैसे धोती का एक अंश साइलैंसर पर पहुंच गया और उसमें भयंकर आग लग गई। मुझे गर्मी जान पड़ी पर मैं उस तरफ ध्यान न देकर खेत जोतता रहा। पर जब एक दम लौ उठी तो मैं घबराकर चलते हुए ट्रैक्टर से कूदकर अलग खड़ा हो गया। उसी समय आग अपने आप बुझ गई। पर ट्रैक्टर चलता जा रहा था। मैं दौड़ा पर एक झांखर से टकराकर गिर पड़ा, जिससे बहुत से कांटे मेरे बदल में लग गये। पर इस ओर ध्यान न देकर मैं उठा और दौड़ कर उसका स्विच बन्द किया। कितनी भीषण दुर्घटना हो जाती यदि मैं ट्रैक्टर को रोक न पाता। दस हजार रुपये का ट्रैक्टर और मैं वहीं पर समाप्त हो जाते। माता ने हमें सब तरह से बचा लिया। मेरे शरीर पर पांच-सात छालों के अतिरिक्त कोई हानि नहीं हुई।

श्री फूलवती शर्मा देहरादून से लिखती हैं—

मेरे मन में अनायास ही गायत्री उपासना के प्रति प्रेम उत्पन्न हुआ था और नित्य प्रेम से माता की आराधना किया करती थी। एक बार मेरे पतिदेव एक ऊंचे पहाड़ पर गये थे, चढ़ने का रास्ता संकीर्ण और खतरों से भरा था। संभल-संभल कर पग रखना पड़ता था, पर पता नहीं क्या होनहार था। सारी सावधानता के वर्तते हुये भी आखिर इनके पैर फिसल ही गए। मीलों की ऊंचाई थी। शरीर के चकनाचूर हो जाने के सिवाय और कोई बात नहीं हो सकती थी, पर माता को अपनी बेटी का सौभाग्य सिन्दूर जो बचाना था। थोड़ी दूर तक गिरने पर वे बीच में ही अटक गए। जैसे किसी ने उन्हें अपनी गोद में ले लिया हो। केवल हाथ में थोड़ी चोट आयी, सुरक्षित होकर आकर मुझ से मिले। उस माता के चरणों में हजार-हजार न्यौछावर हूं।

श्री बसन्ती लाल श्रीवास्तव, भितरवा (म.प्र.) से लिखते हैं—

एकबार मैं अपने गांव की एक पहाड़ी नदी में तैर रहा था। अकस्मात् गहरे पानी में चला गया और पानी के तेज बहाव में बहने लगा यह देखकर मेरे साथ के अन्य युवक डरकर गांव को भाग गये। इतने में ऊपर से पानी भी बरसने लगा। मैं 25 मिनट तक बहते-बहते एक ऐसे स्थान पर पहुंचा जहां नदी का पानी 175 फीट ऊपर से नीचे की तरफ बड़े वेग से गिरता था। यह देखकर मेरे भीतर शून्यता छा गई और मेरी जबान बन्द हो गई। मेरे मन में एकाएक यह भाव आया कि गायत्री माता मेरे प्राण ले। मैं इतना ही संकल्प कर पाया कि ठीक उसी जगह जा पहुंचा जहां से नदी नीचे गिरती थी। आधी मिनट में ही मेरी यह संसारयात्रा समाप्त होने वाली थी, पर अचानक मैं एक बड़े पत्थर से जाकर रुका जो पानी में एक हाथ डूबा हुआ था। वहां मैं बड़े आराम से बैठ गया। मैं नहीं कह सकता था कि मुझे किस प्रकार यह भान हुआ कि यहां चट्टान है और इससे मैं बच जाऊंगा। उस दिन से गायत्री माता का जप ही मेरे जीवन का प्रधान कार्य बना हुआ है।

श्री. शेरसिंहजी प्रधानाध्यापक बेसिक स्कूल, कानाखजड़ी (अजमेर) से लिखते हैं—

ता. 16-5-55 को मैं अजमेर रोड पर दो मोटरों के बीच साइकिल समेत दब गया था, पर गायत्री माता की कृपा से मेरी प्राण रक्षा हो गई। वह घटना मुझे और मेरे अफसरों को अब भी याद है। इसी प्रकार ता 9-12-56 को एक शेर ने दो अन्य आदमियों को चीर डाला। मैं भी बन्दूक लेकर वहां गया, शेर को घायल कर दिया, पर वह जख्मी होकर भी मेरे ऊपर टूट पड़ा। शेर के दोनों अगले पंजे मेरे कन्धों पर थे और मुंह गले पर। मैं जख्मी तो हो गया और मेरा गर्म कोट शेर के पंजे से फट गया, पर गायत्री माता ने मेरी प्राण-रक्षा की। मेरे पीछे दो आदमी और खड़े थे वे भी भाग गये। उस समय का दृश्य सचमुच ही एक चमत्कार था।

श्री राम कुमार शर्मा, कनवास (कोटा) माता की रक्षा शक्ति के बारे में लिखते हैं—

दीपावली के दूसरे दिन राजस्थान में बैल पूजा का उत्सव खूब धूमधाम से मनाया जाता है। इस उल्लास में पटाखे, बन्दूक और गाड़ी में बांधकर छोटी तोपें भी छोड़ी जाती हैं। मैं उस उत्सव में शामिल होने जा रहा था। एक जगह गाड़ी में बंधे तोप में 10-12 मुट्ठी बारूद भरकर उसमें बत्ती जलाई जा चुकी थी। बत्ती जलाने वाले आग लगाकर वहां से दूर हट गये थे। मैं तोप के करीब तीन हाथ फासले पर अनजाने चला गया था—मुझे देखते ही मेरे परिचित हटने की ध्वनि में चिल्ला उठे तब तक तोप छूट गई और मुझे जोर का धक्का लगा। सिर घूम गया। दिल धड़-धड़ करने लगा। मैं बैठ गया पर माता की याद करना नहीं भूला। सभी मेरी रक्षा हो जाने पर आश्चर्यित थे। मुझे उस धक्के के सिवाय और कोई भी चोट नहीं पहुंची थी।

श्री राजवंशजी, मसौढ़ी (पटना), माता के वात्सल्य का वर्णन करते हैं—

हमारे अनेकों संतान मरे हुए पैदा हुईं और कुछ ने दुनिया को एकबार देखकर सदा के लिये आंखें बन्द करलीं। व्यथा से सन्तप्त हम सभी माता की प्रार्थना करते रहते थे। इस बार 17 फरवरी 56 के मध्यान्ह में अस्पताल में मेरी धर्मपत्नी ने माता की कृपा से संरिक्षत पुत्ररत्न प्रसव किया। हम लोग उल्लसित हो उठे। अस्पताल से डिस्चार्ज होने पर चाची जी के साथ बच्चे सहित उसकी मां गाड़ी पर घर जा रही थी कि एक दूसरी गाड़ी जोरों से टकरा गयी। यह गाड़ी उलट कर टूट-फूट गयी। मैंने समझ लिया यह बच्चा भी गया—पर माता ने गाड़ी उलटने के समय ही जच्चा बच्चा सहित हमारी चाची को करीब 6 फीट दूर फेंक दिया। हलकी सी चोट लगी और सभी तरह से सुरक्षित ही रहे। गाड़ी से इतनी दूर फेंके जाने एवं सुरक्षा में हम साक्षात माता की कृपा का दर्शन कर गदगद हो रहे थे।

श्री कपिलदेव पाण्डेय, मिर्जापुर लिखते हैं—

‘मेरे पड़ोस के श्री सदानन्द जी सपत्नीक गायत्री उपासना करते हैं। एक दिन रात में उनके घर में चोर घुसा। उनके वस्त्रादि उठा ले गया। खड़खड़ सुन कर उनकी पत्नी की भी नींद टूट गयी और उसने पति को जगाया। आवाज सुन चोर भी शीघ्रता से भाग गया। उन लोगों ने देखा—वस्त्र गायब थे। पुनः वे लोग सो गये। उनकी पत्नी को स्वप्न हुआ कि तुम्हारा वस्त्र चोर नहीं ले जा सका है। तुरन्त लैम्प जलाकर खोजने से घर के पीछे सभी वस्त्र मिल गये।

श्री गोकुलचन्द शर्मा, मोडक (कोटा) सपरिवार प्राण रक्षा की कृपा के बारे में लिखते हैं—

कृष्णाष्टमी की दूसरी रात में हम लोग पति, पत्नी एवं बच्चों सहित एक कत्तलपोश तिवारी के नीचे सो रहे थे। अचानक दरवाजे का पत्थर टूट जाने से वह पत्थर और उसके ऊपर का कत्तल सभी एक साथ ही नीचे गिर पड़े, जिस पलंग और खाट पर हम लोग सोये थे वह चूर चूर हो गये। हमारे ऊपर भी कत्तलों के ढ़ेर थे, पर हम लोग बाल बाल सुरक्षित थे। सभी लोग गायत्री माता की आश्चर्य भरी रक्षा की सराहना कर रहे थे। हम लोग बाहर निकल कर कृतज्ञता के आंसुओं से भर रहे थे।

श्री वेणीप्रसाद जी ट्रालीमैन, चिचौड़ा (बैतूल) गायत्री मन्त्र की शक्ति के बारे में लिखते हैं—

मैं एक दिन निमौटी गांव जा रहा था। रास्ते में वर्धा नदी किनारे सांप के डसने से एक गाय छटपटा रही थी। बहुत लोग अनेक उपचार कर रहे थे, पर कोई लाभ नजर नहीं आता था। मैं गायत्री जपता तो था, पर उसका प्रयोग कभी नहीं किया था। उस समय अन्तर से प्रेरणा पाकर मैंने थोड़ा-सा जल मंगाकर गायत्री मंत्र से अभिमंत्रित कर गाय को पिला दिया शेष उसके शरीर पर छिड़क दिया। जल छिड़कते ही गाय एक दम उठ कर खड़ी हो गयी। फिर अभिमंत्रित जल पिलाने पर वह चरने लग गयी। इस मन्त्र शक्ति को देख मेरे सहित सभी लोग चकित हो रहे थे।

श्री कृष्णराम हरिभाऊ घोन्डे, वापी। (गुजराज) से लिखते हैं—

हम लोक वापी से 30 मील दूर घने जंगल में एक आवश्यक काम के लिए बैलगाड़ी में जा रहे थे। रात अंधेरी थी, जंगल बहुत घना था। इस सुनसान में डाकुओं ने हमें घेरा और गाड़ी रोकली, हमारे पास कुछ धन भी था। बहुत घबराहट हुई। अन्त में माता का नाम लेकर गाड़ी के बैलों को जार से भगाया, उन कमजोर बैलों में न जाने कहां से इतनी ताकत आई कि इशारा देते ही घुड़दौड़ करने लगे। डाकू बराबर दो मील तक पीछा करते रहे पर पकड़ न सके। अन्त में पुलिस स्टेशन आ गया, वहां आकर हम लोगों ने शरण ली और जान बचाई। माता जिसकी रक्षा करती है उसे कौन मार सकता है?

श्री दुर्गालालजी रिटायर्ड मजिस्ट्रेट बूंदी से लिखते हैं—

गायत्री उपासना से मेरी अनेकों उलझनें दूर हुई हैं। पेन्शन मिलने में बड़ी कठिनाइयां थीं वे हल हुईं। ज्येष्ठ पुत्र की आजीविका संबंधी समस्या सुलझी। कन्या के प्रसव काल में जो प्राण घातक संकट उपस्थित था वह टला। पौत्री की अत्यंत भयंकर ज्वर एवं मूर्छा से जीवन रक्षा हुई। इस प्रकार मैंने अपने जीवन में गायत्री मंत्र के प्रयोग द्वारा अनेक चमत्कारी लाभ होते देखे हैं।

श्री विश्वनाथ पाण्डेय, दानापुर (पटना) लिखते हैं—

मैं एक बार अपनी छोटी बहिन के यहां आरा गया था। वहां उस पर प्रेत का आक्रमण हुआ करता था। उस दिन भी हुआ। उसकी सास ने कहा—बेटा! सुना है तुम गायत्री जपते हो, सो जरा अपनी बहन को जाकर देखो। मैंने गायत्री मन्त्र से अभिमन्त्रित जल के छींटे मारे। वह झूमने लगी—कुछ देर बाद अपने होश में आ गई। शाम को फिर आक्रमण हुआ। तब मैंने अपने बड़े भाई को, जो निष्ठावान गायत्री उपासक हैं, बुला लाने के लिए एक आदमी को दानापुर भेजा। वे खबर मिलते ही यज्ञ भस्म लिये यथा शीघ्र आये। उनके आने पर वह आक्रमित दशा में थीं। उन्होंने भस्म लगाकर अभिमंत्रित अच्छतों के छींटे मारे। अच्छत लगते ही वह मूर्छित हो गयी। फिर होश में आ गयी। उनके श्वसुर ने डाक्टरों से हिस्टीरिया रोग कह कर बहुत इलाज कराये थे—पर कभी आराम नहीं हुआ। भाइजी के द्वारा आक्रमण दूर होने पर फिर कभी भूत लौट कर नहीं आया। अब वह पूरी स्वस्थ है।

श्री ब्रजगोपाल शर्मा, सवांसा अपने जीवन में सुख-शान्ति पाने के विषय में लिखते हैं—

मैं चारों ओर शत्रुओं से घिरा था। सभी मेरी बुराई करने की ताक में रहते। मुझे जरा भी चैन नहीं था। प्रशंसा सुन कर ही मैं भी गायत्री तपोभूमि गया था। वहां से अनुष्ठान करके लौटने के बाद ही मेरे सारे दुश्मन ठण्डे हो गये। मैं उसी प्राइमरी स्कूल के साधारण अध्यापक से अनायास प्रधानाध्यापक बना दिया गया। आज हम सभी तरह से सुखी हैं और दुश्मन के बदले दोस्तों से घिरे रहते हैं। ऐसी माता के चरणों पर हम सदा न्यौछावर हैं।

श्री नर्मदाशंकर ब्रह्मचारी राजकोट से लिखते हैं—

‘‘कुछ समय पहले मैं ‘सीतालानु कालापड़’ नामक काठियाबाड़ के एक गांव में गया था। वहां मेरे दो मित्र बल्लभदास और जमनादास नाम के रहते हैं। उन दोनों की स्त्रियों पर अमरेली के किसी पापी ब्राह्मण का आवेश होता था, जिससे घर भर को बड़ा कष्ट था। इसके लिए सैकड़ों उपाय कराये पर कोई फल न निकला। जमनादास की माता ने मुझे भी सब हाल सुनाया और विलाप करने लगी। मैंने उनको विश्वास दिलाया कि वेद माता गायत्री के प्रयोग से सब प्रकार की बाधा दूर हो सकती है। तब मैंने उनको पंचाक्षर मन्त्र का 108 जप नित्य करने को बताया और अपने मन में संकल्प किया मैं इसके निमित्त सवालक्ष जप का अनुष्ठान करूंगा और इस अवसर पर नमक, मिर्च, तेल आदि त्याग कर केवल सात्विक भोजन करूंगा। यह सब कहके मैं तो दूसरे दिन की गाड़ी से राजकोट वापस आ गया। वहां जब उन स्त्रियों को भूत बाधा हुई तो जमनादास ने गायत्री मन्त्र पढ़ कर पानी पिला दिया। वह भूत कहने लगा ‘‘मैं जाता हूं’’—‘‘मैं जाता हूं।’’ तब से वे सब कुशल से रहने लगे।

कचनरा मन्डी (पो. नवाबगंज, बरेली) से श्री विद्याराम गंगबार लिखते हैं—

मैं ता. 15-7-57 को फावड़ा लेकर अपने खेत पर बांध बांधने गया। एक बांध बांधकर दूसरी तरफ जा रहा था कि एक सांप ने पैर में डस लिया। मैंने उसे फावड़े के नीचे दबा दिया और 4 खेत की दूरी पर लाठी लेने गया। वहां से लौटा तो सांप को वहीं पाया और लाठी से मार दिया। इसके बाद गायत्री मन्त्र से वहां चीरा दिया और मन्त्र पढ़कर बन्द लगा दिया। उस समय मुझे ठीक होश नहीं था, पर शाम तक माता की दया से मैं बिल्कुल चंगा हो गया।

दानापुर कैन्ट (पटना) के श्री त्रियुगी नारायण केसरी लिखते हैं—

मेरे यहां एक जमींदार के लड़के को सदैव ही कभी-कभी एक प्रेत आकर परेशान करता था। कभी-कभी तो ऐसा प्रतीत होता था कि उसका जीवन भी खतरे में है। ऐसी दशा देखकर मुझे बड़ी दया आई। एक दिन अचानक ही यह घटना मेरे ही समक्ष हो गई। मैंने तत्काल ही गायत्री मन्त्र अभिमन्त्रित कर जल का छींटा मारा एवं थोड़ा सा जल पिला भी दिया। अब वह प्रेत बाधा सदा के लिये दूर हो गई है।

शाहदरा (देहली) से श्री राधेश्याम गुप्ता लिखते हैं—

अभी दो मास पहले मैं हनुमानजी के दर्शन करके वापिस आ रहा था कि ट्रक पैर पर से उतर गया। साइकिल टूट गई पर मुझको कतई चोट नहीं आई। यह गायत्री उपासना का प्रत्यक्ष प्रमाण है। इसी प्रकार मेरे दस वर्ष से सन्तान नहीं होती थी अब माता की उपासना और प्रार्थना करने से पुत्र उत्पन्न हुआ। गायत्री जप द्वारा मैंने कितने ही लोगों के बुरे व्यसन छुड़ा दिये।

श्री हरगोविन्द त्रिपाठी बीसापुर (सुल्तानपुर) से लिखते हैं—

मैं लगातार 3 वर्ष से माता की उपासना कर रहा हूं। बैसाख सुदी पंचमी सं. 2014 को माताजी का दिन था। हवन के बाद रात्रि में चालीसा का पाठ व रामचरित मानस पर प्रवचन हुआ। घर के सभी व्यक्ति हवन-स्थल में ही थे कि घर में चोरों ने सेंध लगाना शुरू किया। हवन से आकर हम सब लोग सो गये और उधर चोरों ने सेंध पूरी करके भीतर घुसने की तैयारी की। उसी समय मेरी माताजी की नींद टूट गई और चोर भाग गये। यह सब गायत्री माता के प्रभाव से ही हो सका यह हम सबका विश्वास है।

श्री रतनसिंह गोहेल मिठापुर (सौराष्ट्र) से लिखते हैं—

गतवर्ष मेरे एक मित्र की मृत्यु मोटर दुर्घटना से हो गई थी। मुझे अनुभव हुआ कि उन की आत्मा अशान्त है और गायत्री उपासना का पुण्य फल चाहती है। मैंने उस आत्मा की शान्ति और सद्गति के लिये जप आरम्भ किया। बहुत दिन बाद फिर उस आत्मा का प्रत्यक्ष हुआ तो उसने बताया कि उस गायत्री जप से उसे पूर्ण शान्ति मिली है। उसकी एक कामना-वासना जो और शेष थी उसे पूर्ण करने का प्रयत्न कर रहा हूं। गायत्री माता जीवित और मृत सभी को शांति देती हैं।

श्री ब्रजबल्लभ जी, दिगौड़ा से लिखते हैं—

इस बार जब हमारे गांव की फसल तैयार हो चुकी थी ऐसे काले बादल उठे कि हम सब का हृदय कांप उठा। क्योंकि ऐसे समय ओला पड़ने की पूरी आशंका रहती है। उस समय हम सब सत्संग में बैठे थे। हमने वहीं माता से प्रार्थना की कि ‘रक्षा करो’। माता ने प्रार्थना सुनली और थोड़ा-सा पानी और जरा से ओले गिरकर आकाश खुल गया। माता कृपा न करती तो सैकड़ों किसानों का सर्वनाश हो जाता।

श्री हरदयालु जी श्रीवास्तव, गोहांड (हमीरपुर) माता की दयालुता का वर्णन करते हुए कहते हैं—

मेरा ज्येष्ठ पुत्र घर से बैरागी बनकर चुपचाप निकल गया। 15 महीने उसकी खोज करते बीत गए—कहीं पता न चला। सब तरफ से निराश होकर मैंने एक मात्र गायत्री माता का अंचल पकड़ लिया। सोलहवें मास में अचानक ही उसका पूरा पता हमें मिला। पता मिलते ही हम कुछ सज्जनों के साथ वहां गये। उसने लौटना स्वीकार कर लिया। गेरुआ वस्त्र छोड़कर गृहस्थ के रूप में हमारे साथ आकर रहने लगा। हमारे प्रयत्न और आशा से अधिक सफलता मिलने का कारण एक मात्र माता की ही कृपा है।

श्री जगदीरा प्रसाद भट्ट अध्यापक (पाला, मैहर बुन्देलखण्ड) से लिखते हैं -

कि मई 1957 में मुझे रक्त-पित्त रोग का बड़े जोरों से दौरा हुआ। रक्त-स्राव अधिक मात्रा में होने से मैं एक दम निर्बल हो गया। मेरी दशा देखकर घर के सब लोग घबड़ाने लगे। पर मैंने उनको धीरज बंधाया और गायत्री उपासना करने को कहा। इस पर सब बच्चे और स्त्री गायत्री जप करने लगे। माता की कृपा से एक सप्ताह के भीतर ही मेरा रोग पूर्णतया शांत होकर इस संकट से छुटकारा मिला।

पं. नत्थूलाल जी निगोही (शाहजहांपुर) से लिखते हैं—

ता. 9 सितम्बर को ग्राम महमदपूर (जि. पीलीभीत) के पंडित सुखलाल को एक भयानक सर्प ने टांग में काट लिया। लोगों ने केवल गायत्री मंत्र पढ़कर बन्द लगा दिये और इसी से झाड़ फूंक भी की। सुखलाल पहले तो बेहोश हो गया, पर तीसरे दिन गायत्री के प्रभाव से ही बिलकुल स्वस्थ हो गया। जो कोई चाहे महमदपुर के किसी भी व्यक्ति से इस घटना की सच्चाई की जांच कर सकते हैं।

श्री जगत राम पस्तोर टीकमगढ़ (म. प्र.) से लिखते हैं—

मेरी पाठशाला के समीप एक ट्रक ड्राइवर गिट्टी डालते थे, उनसे परिचय हो गया। एक दिन वे टीकमगढ़ वापस जा रहे थे कि मुझ से रास्ते में भेंट हो गई। ट्रक को ठहराकर वे कहने लगे कि—‘‘चलो, टीकमगढ़ चलते हो।’’ मैं आन्तरिक इच्छा न होते हुए ट्रक में बैठ गया। ट्रक के पिछले भाग में 16 बेलदार थे और मेरी बगल में सामने की सीट पर ट्रक मालिक के एक रिश्तेदार थे। ड्राइवर नशे में था और उसने कई बार ट्रक को गलत चलाने के बाद अन्त में एक बिजली के खम्भे से टकरा ही दिया। जिस समय ट्रक टकराया मैंने माता से रक्षा की प्रार्थना की और आश्चर्य है कि ट्रक में सवार 19 व्यक्तियों में मैं ही ऐसा था जिसके जरा भी चोट नहीं आई थी।

हांसलपुर गांव से भूतपूर्व जेल बार्डर श्री पंचमसिंहजी लिखते हैं—

डोल-ग्यारस के अवसर पर रात के समय ग्राम-निवासी ‘रुक्मिणी-हरण’ नाटक कर रहे थे। वहां कुंए के चबूतरे पर बैठकर 7-8 वर्ष की एक कन्या खेल रही थी। वह अचानक कुंए में गिर गई। आठ-दस मिनट बाद जब उसे ऊपर निकाला गया तो बेहोश थी। यह देखकर मैंने कहा—‘हे वेदमाता यह कन्या होश में आ जाय तो तेरी 100 माला फेरूंगा।’’ थोड़ी ही देर में उसे होश हो गया और सब लोग वेदमाता की जय-जयकार करने लगे।

चांपा (विलासपुर) से वैद्य पुनीराम जी लिखते हैं—

एक सज्जन, जो जाति के सुनार हैं, प्रेत बाधा के कारण बड़ा दुःख पा रहे थे। भूत सब चीजों को अस्त-व्यस्त कर देता था, जिससे अनेक बार पति-पत्नी में लड़ाई भी हो जाती थी। उन्होंने किसी से गायत्री-मंत्र का चमत्कारिक गुण सुनकर स्वयं ही जैसे बना तैसे ही गायत्री-उपासना आरम्भ करदी और एक दिन रात के सात बजे हजार आहुति का हवन करने भी बैठ गये। जिस समय रात के 12 बजे तो सफेद साड़ी पहिने एक काली-सी स्त्री खिड़की के पास प्रगट हुई और बोली—‘‘मैं जाती हूं, मुझे स्थान बतलाओ, अब मैं यहां एक पल भर नहीं ठहर सकती।’’ पर वे हवन करते ही रहे और नतीजा यह हुआ कि घण्टे भर बाद वह प्रेत-छाया अदृश्य हो गई। तब से उस घर में शांति है।

श्री कन्छोदी लाल यादव (सागर) से लिखते हैं—

मेरी माता के गले में कैंसर हो गया था। तकलीफ के कारण वे छटपटाती थीं। सिविल सर्जन और अन्य डाक्टर रोग को असाध्य बतला चुके थे। लोगों ने दूसरे बड़े शहर में जाकर इलाज कराने की सलाह दी। पर मैंने कहीं न जाकर गायत्री माता की शरण ली और इसके लिए सवालक्ष का पुरश्चरण किया। माता की कृपा से वह भयंकर रोग शीघ्र ही अच्छा हो गया।

श्री रामअवतार शर्मा, हस्वा से लिखते हैं—

मेरे एक सम्बन्धी पर मुकदमा चल रहा था विरोधी पक्ष के सबूत बहुत ही प्रबल हो रहे थे। सबों को विश्वास था कि अब यह फांसी से किसी भांति बच नहीं सकता। स्वयं मेरा भी यही विश्वास था नजदीक के सम्बन्धी होने के कारण मुझे भी उनके प्रति बड़ी ममता थी। हम ने इस सम्मुख प्राप्त मृत्यु से बचने के लिये एक मात्र गायत्री माता की शरण लेना सर्वोपयुक्त समझा और उसी की उपासना में जुट गये। सभी को आश्चर्य है कि अपने पक्ष के प्रमाण कमजोर होते हुए भी कैसे माता ने उसे बचा लिया।

श्री मदनलाल जी, पोस्टमैक अटरू (कोटा) माता के प्रेम का वर्णन करते हैं—

मेरी जमीन का कुछ हिस्सा दूसरे व्यक्ति के यहां रहन था। मैं छः वर्ष से प्रयत्न करता आ रहा था कि वह जमीन छोड़ दे और अपने रहन की रकम ले ले, पर वह किसी भांति राजी नहीं हुआ। माता की प्रेरणा से मैंने उसके ऊपर मुकदमा चलाया। दो ही पेशी बाद उस व्यक्ति ने मुझसे समझौता कर लिया और जमीन के साथ रहन की रकम भी छोड़ दी। इसमें भय-द्वेष नहीं था, स्नेह भरे चित्त से ही उसने इस बर्ताव को पूरा किया।

और भी हजारों व्यक्ति ऐसे मौजूद हैं जो गायत्री की शक्ति का ऐसा ही अनुभव कर चुके हैं। इनमें अविश्वास की कोई बात नहीं है। भगवान सदैव अपने भक्तों की रक्षा करते हैं, और निष्पाप व्यक्तियों को दैवी सहायता मिला करती है। गायत्री-साधना द्वारा मनुष्य के पापों और विकारों का नाश बहुत शीघ्रता से होता है और वह दैवी शक्तियों का कृपा पात्र बन जाता है।


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*समाप्त*



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