गायत्री प्रार्थना

प्रार्थना का महत्त्व गायत्री मंत्र का अर्थ इस प्रकार है: ऊँ (परमात्मा) भू: (प्राण स्वरूप) भुव: (दु:खनाशक) स्व: (सुख स्वरूप) तत् (उस) सवितु: (तेजस्वी) वरेण्यं (श्रेष्ठ) भर्ग: (पापनाशक) देवस्य (दिव्य) धीमहि (धारण करे) धियो (बुद्धि) यो (जो) न: (हमारी) प्रचोदयात् (प्रेरित करें)। अर्थात उस प्राणस्वरूप, दु:खनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अंतरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग पर प्रेरित करें। इस अर्थ का विचार करने से उसके अंतर्गत तीन तथ्य प्रकट होते हैं। १- ईश्वर का दिव्य चिंतन, २- ईश्वर को अपने अंदर धारण करना, ३- सद्बुद्धि की प्रेरणा के लिए प्रार्थना। ये तीनों ही बातें असाधारण महत्त्व की हैं। (१) ईश्वर के प्राणवना, दु:खरहित, आनंदस्वरूप, तेजस्वी, श्रेष्ठ, पापरहित, दैवी गुण संपन्न स्वरूप का ध्यान करने का तात्पर्य यह है कि इन्हीं गुणों को हम अपने में लाएँ। अपने विचार और स्वभाव को ऐसा बनाएँ कि उपयुक्त विशेषताएँ हमारे व्यावहारिक जीवन में परिलक्षित होने लगें। इस प्रकार की विचारधारा, कार्यपद्धति एवं अनुभूति मनुष्य की आत्मिक और भौतिक स्थिति को दिन-दिन समुन्नत एवं श्रेष्ठ बनाती चलती है। (२) गायत्री मंत्र के दूसरे भाग में परमात्मा को अपने अंदर धारण करने की प्रतिज्ञा है। उस ब्रह्म, उस दिव्य गुण संपन्न परमात्मा को संसार के कण-कण में व्याप्त देखने से मनुष्य को हर घड़ी ईश्वर दर्शन का आनंद प्राप्त होता रहता है और वह अपने को ईश्वर के निकट स्वर्गीय स्थिति में रहता हुआ अनुभव करता है।

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