गायत्री-परिवार का लक्ष्य

राष्ट्र निर्माण के लिए

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राष्ट्र निर्माण के लिये आज अनेक प्रयत्न हो रहे हैं। सम्पत्ति और समृद्धि बढ़ाने के लिए कितनी ही योजनाएं बन रही हैं। इनके सफल होने तथा उनसे उत्पन्न धन द्वारा सुख शांति बढ़ने की तब तक आशा नहीं की जा सकती, जब तक कि जन साधारण का नैतिक स्तर ऊंचा न उठाया जाय। जिन व्यक्तियों के हाथ में आज योजनाओं को कार्यान्वित करने तथा न्याय, शासन, अर्थ, व्यवसाय, यातायात, निर्माण, कर वसली आदि को चलाने आदि की जिम्मेदारी हैं उनमें से बहुत कम ऐसे हैं जो ठीक तरह अपना काम करते हैं। इन कार्यों से जनता को या सरकार को जो लाभ होना चाहिये उसका एक बड़ा अंश इन कार्यकर्ताओं द्वारा ही अपहरण कर लिया जाता है। जनता की भी मनोवृत्ति यही है। बीज, कुआ, उद्योग धंधे चलाने आदि के नाम पर लिया हुआ सरकारी ऋण, विवाह शादियों की धूमधाम में फूंक दिये जाते हैं। आर्थिक क्षेत्र में ही नहीं, सामाजिक, शारीरिक, राजनैतिक धार्मिक सभी क्षेत्रों में यह भ्रष्टाचारी मनोवृत्ति ऐसी कठिनाई उत्पन्न करती है जिससे राष्ट्रीय उन्नति के लिये किये हुए अनेक प्रयत्नों के परिणाम आशाजनक नहीं हो पाते।

हम हजारों वर्षों के अज्ञानान्धकार युग को पार कर राजनैतिक दृष्टि से स्वाधीन हुए हैं। अब निर्माण कार्य हमें स्वयं करना है। इसके लिये सरकारी और गैर सरकारी भौतिक प्रयत्न चल रहे हैं यह सन्तोष की बात है, किन्तु साथ ही जन साधारण का मानसिक, नैतिक चरित्र का, अध्यात्मिक स्तर ऊंचा उठाने की भी भारी आवश्यकता है। इसके बिना आर्थिक उन्नति का लक्ष पूरी तरह सफल नहीं होगा, यदि किन्हीं अंशों में सफलता मिली भी तो इससे लोगों की विलासिता एवं फिजूलखर्ची ही बढ़ेगी, वह पैसा उनमें दोष और दुर्गुण ही पैदा करेगा। सम्पत्ति का सच्चा लाभ भी वही उठा सकते हैं जिनमें विवेकशीलता और दूरदर्शिता हो, इन दो वस्तुओं के अभाव में बढ़ी हुई समृद्धि, स्वयं मनुष्य के लिये एक विपत्ति ही बन सकती है।
राष्ट्र के स्वस्थ विकास के लिए—अविद्या, दरिद्रता एवं कुरीतियों के बंधनों से छुटकारा प्राप्त करने के लिए—सामाजिक एवं बौद्धिक क्रांति के लिए—निश्चित रूप से जन साधारण का नैतिक स्तर ऊंचा करना होगा। इसकी अपेक्षा करके अन्य मार्गों से प्रगति के पथ पर आगे बढ़ सकना कठिन है। भारतीय संस्कृति—नैतिकता एवं मानवता की सार्वभौम संस्कृति है। इस देश की महान् परम्पराओं में से प्रत्येक का निर्माण मनुष्य को सदाचारी संयमी एवं समाज सेवी बनाने की दृष्टि से ही हुआ है। हमारा प्राचीन इतिहास, दर्शन, धर्मशास्त्र, समाज तंत्र, कर्मकाण्ड, शिष्टाचार, आहार विहार, विचार प्रवाह, आचार, विधान, वेश विन्यास, आदर्श, उद्देश्य, सभी कुछ ऐसा है कि जिसे अपनाने वाला उन नैतिक तत्वों का सहज ही अनुचर बन जाता है जो विश्व में शान्ति, सुरक्षा, उन्नति और प्रसन्नता की स्थिति बनाये रखने के लिए आवश्यक हैं।

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