गायत्री के १४ रत्न

ऊँ ईश्वरीय सत्ता का तत्त्वज्ञान ओमित्येव सुनामध्येयमनद्यं विश्वात्मनो ब्रह्मण: सर्वेष्वेव हि तस्य नामसु वसोरेतत्प्रधानं मतम्। यं वेदा निगदन्ति न्यायनिरतं श्रीसच्चिदानन्दकम् लोकेशं समदर्शिनं नियमिनं चाकारहीनं प्रभुम्।। अर्थ- जिसको वेद न्यायकारी, सच्चिदानंद, संसार का स्वामी, समदर्शी, नियामक और निराकार कहते हैं। जो विश्व की आत्मा है। उस ब्रह्म के समस्त नामों से श्रेष्ठ नाम, ध्यान करने योग्य 'ऊँ' यह मुख्य नाम माना गया है। गायत्री स्मृति के प्रथम श्लोक के अनुसार 'ऊँ भू: भुव: स्व:' का भावार्थ इस पुस्तक के आरंभ में (भूमिका में) दिया जा चुका है। गायत्री गीता में इन प्रणव और व्याहृतियों के चार पदों के लिए अलग- अलग- चार श्लोक हैं। उन चारों की विवेचना अब इन पृष्ठों पर की जा रही है। इस प्रकार प्रणव और व्याहृतियों का दोहरा अर्थ जानने का सुअवसर पाठकों को प्राप्त होगा। गायत्री मंत्र के आरंभ में 'ऊँ' लागाया जाता है। 'ऊँ' परमात्मा का प्रधान नाम है। ईश्वर को अनेक नामों से पुकारा जाता है। 'एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति' उस एक ही परमात्मा को ब्रह्मवेत्ता अनेक प्रकार से कहते हैं। विभिन्न भाषाओं और संप्रदायों में उसके अनेक नाम हैं। एक-एक भाषा में ईश्वर के पर्यायवाची अनेक नाम हैं, फिर भी वह एक ही है। इन नामों में ऊँ को प्रधान इसलिए माना है कि प्रकृति की संचालक सूक्ष्म गतिविधियों को अपने योगबल से देखने वाले ऋषियों ने समाधि लगाकर देखा है कि प्रकृति के अंतराल में प्रतिक्षण एक ध्वनि उत्पन्न होती है, जो 'ऊँ' शब्द से मिलती-जुलती है। सूक्ष्म

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