धर्म तत्त्व का दर्शन और मर्म भाग 4

सत्य को धर्म का प्रथम लक्षण माना गया है | पर उसका अर्थ मात्र सच बोलने तक ही सिमित नही किया जाना चाहिए | मोटेतौर पर सच बोलने के अर्थ में प्रयुक्त होता है| जो बात जेसी सुनी या समझी है ,उसे उसी रूप से कह देना सच बोलना माना जाता है सामान्य से प्रसंगों में यह ठीक भी हैं इस निति को अपनाने वाले भरोसेमंद माने जाते है| उनके कथन सुनने के उपरांत असमंजस विश्वास नही रह  जाता है और उस सन्दर्भ में जो किया जाता हैं उसे असमंजस में पड़े जो करना है ,उसे कर लिया जाता हैं |सामान्य व्यवहार को सरल बनाये रहने का यह अच्छा तरीका है ,सभी लोग सच बोले तो अविश्वाश -की सन्देह की जो उहापोह चलती रहती है ,यथार्थता जाचने के लिए जो खोजबीन करनी पड़ती है,उस झंझट में ढेरों समय बर्बाद करने का ,मन को शंकास्पद स्थिति में रखे रहने का अवसर न आये |सभी एक - दुसरे पर विश्वाश करें और व्यवहार की सरलता से सभी को सुविधा रहे | 







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