धर्म तत्त्व का दर्शन और मर्म भाग 3

वैसे  तो धर्म शब्द नाना अर्थों से व्यवहृत होता है पर दार्शनिक दृष्टि से धर्म का अर्थ स्वाभाव ठहरता है| अग्नि का धर्म गर्मी है अर्थात अग्नि का स्वाभाव उष्णता है| हर एक वास्तु का एक धर्म होता है जिसे वह अपने जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत धारण किये रहती है | मछली की प्रकृति जल में रहना, सिंह स्वभावतः माँसाहारी है| हर एक जीवित एवं निर्जीव पदार्थ एक धर्म को अपने अन्दर सहारण किये हुए है | धातुएं अपने-अपने स्वाभाव धर्म के अनुसार ही काम कराती है | धातु विज्ञान के जानकार समझ्हते हैं की अमुक प्रकार का लोहा इतनी आग में गलत है और इतना मजबूत होता है, उसे के अनुसार वे साड़ी व्यवस्थाएं बनाते हैं | यदि लोहा अपना धर्म छोड़ दे, कभी कम आग से गले कभी ज्यादा से, इसी प्रकार उसकी मजबूती का भी कुछ भी भरोसा न रहे तो निःसंदेह लोहाकारों का कार्य असंभव हो जाय| नदिया कभी पूरब को बहे कभी पश्चिम को, अग्नि कभी गर्म हो जाय कभी ठंडी तो आप सोंचिये कि दुनिया कितनी अस्थिर हो जाय | परंतु ऐसा नही होता , विश्वाश का एक -एक परमाणु अपने नियम धर्म का पालन करने में लगा हुआ हैं , कोई तिल भर भी इधर से उधर नही हिलता |धर्म रहित कोई भी वस्तु इस विश्व मैं स्थिर नही रह सकती |

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