धर्म तत्त्व का दर्शन और मर्म भाग 1

धर्मं शब्द से संप्रदाय से भिन्न, बड़ी व्यापक परिभाषा लिए हुए है. जहाँ संप्रदाय उपासना विधि,कर्मकाण्डों और रीती - रिवाजो  का समुच्चय है वहाँ  धर्म  एक प्रकार  से जीवन जीने की  शैली का  ही दूसरा नाम है ,संप्रदायपरक  मान्यताए  देश ,काल ,क्षेत्र परिस्थिति  के अनुसार बदलती रह  सकती  है, परंतु धर्म शाश्वत - सनातन  होता  है | जिन्हें परस्पर  संबंद्ध  करने पर ही समग्र बनता  है - ये .है तत्वदर्शन -ज्ञानमीमांसा ,नीतिशास्त्र  एवं अध्यातम | धर्मधारणा हरेक के लिए अनिवार्य है  एवं उपयोगी भी| धर्म का अवलम्बन निज की सुरक्षा ही नही, समाज की अखण्डता के लिए भी जरुरी  है | 

परमपूज्य गुरुदेव  ने धर्म की परिभाषा व्यक्ति की संवेदना को परिष्कृत करने वाली  विधा के रूप में की है | धर्म एक परिष्कृतदृष्टिकोण का नाम है| धर्म को मार्क्स ने जो अफीम की गोली का नाम देकर अनुपुयोगी बताया था वह सभी धारणाएं अब साम्यवाद का किला ढहने के साथ विस्मार हो गयी है, परन्तु पूज्य गुरुदेव ने उसे १९४० से प्रारंभ से ही विज्ञानसम्मत एक विधा के रूप में प्रमाणित करते आये हैं

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