दीक्षा और उसका स्वरूप

प्रगति के कदम-प्रतिज्ञाएँ

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दो कदम जीवन की उन्नति और प्रगति के लिए हैं। उनमें से एक- एक कदम उसी समय बढ़ा लेना चाहिए   
१- पाप घटाएँ-     विचार करना चाहिए कि हमारे शारीरिक- मानसिक और आध्यात्मिक पाप क्या- क्या हैं? और जो पाप अब तक हम करते रहे हैं ? उनमें से एक पाप को छोड़ ही देना चाहिए।   

    शारीरिक पापों में मैं हमेशा ऐसे तीन पापों को प्रमुखता देता रहा हूँ। एक पाप- मांस खाना। मांस खाना मनुष्यता के विरुद्ध है। हृदयहीन मनुष्य ही मांस खा सकता है। हृदयवान व्यक्ति और दयावान व्यक्ति मांस नहीं खा सकता है। इसीलिए मांस खाना छोड़ना चाहिए। दूसरे पाप भी इसी तरह के हैं, जो मनुष्य को खोखला बनाते हैं। मनुष्य को शारीरिक, मानसिक और आर्थिक स्थिति से कमजोर करते हैं, आदमी को इससे कुछ फायदा नहीं है। नशे की बात और माँसाहार की बात, व्यभिचार की बात, स्त्रियों को पतिव्रता होना चाहिए और पुरुषों को पत्नीव्रत होना चाहिए।    

    शारीरिक पाप ! शारीरिक पापों में समय का दुरुपयोग करना और आलसी आदमी के तरीके से पड़ा रहना। आलस्य एक बहुत बुरे किस्म का पाप है। इससे समाज का उत्पादन घटता है, मनुष्य की क्षमताएँ नष्ट होती है और समय का अपव्यय होता है। एक- एक साँस और एक- एक क्षण भगवान् ने जो हमको जीवन हीरे और मोतियों के तरीके से दिया है, उन्हें हम पैरों के तले रौंद डालते हैं और हम आलसी के तरीके से जीते हैं और समय का अपव्यय करते हैं।   

    हममें से हर आदमी को आलस्यरहित होना चाहिए। दिनचर्या बनाकर चलना चाहिए और काम करना चाहिए। हमारे स्वभाव के बहुत सारे दोष और दुर्गुण हैं।  इसमें खास तौर से क्रोध करना और आवेश में आ जाना, दूसरों को कड़वे वचन कह देना और बेकाबू हो जाना। ये तो बुरी बात है और आदमी का लोभ उतना करना, जिससे कि सारे के सारे अपने धन और क्षमता को केवल अपने शरीर व अपने कुटुम्ब के लिए खर्च करे। जिसकी ये हिम्मत न पड़े कि हमको समाज के लिए खर्च करना चाहिए और समाज के लिए अनुदान देना चाहिए। ऐसे आदमी को लोभी, कंजूस और कृपण कहा जाता है। आदमी को कृपण, कंजूस और लोभी नहीं होना चाहिए।   

    समाज के प्रति व्यक्ति को उत्तरदायित्वों को पूरा करना चाहिए। काम वासना का अर्थ है कि नारियों के प्रति और दूसरे लिंग के प्रति, मनुष्य को दुर्भावनाएँ और पापवृत्तियाँ नहीं रखनी चाहिए। स्त्रियाँ हैं तो क्या? पुरुष हैं तो क्या? इनसान तो हैं। इनसान, इनसान के प्रति अच्छे भाव रखे। उनमें सरसता के भाव रखे, तो इसमें क्या बुरा है? काम वासना की बात सोचे, ये क्या बात है? स्त्री है, इसका मतलब कि ये सिर्फ काम- वासना के ही लिए है क्या? हमारी माँ भी तो स्त्री है, बहिन भी तो स्त्री है, हमारी बेटी भी तो स्त्री ही है। क्या हम काम- वासना के भाव रखते हैं? स्त्री- पुरुष के बीच एक काम- वासना का ही रिश्ता है क्या? नहीं, ये बहुत बुरी बात है। दिमाग में काम- वासना के विचारों को रखे रहना और क्रोध का आचार, बात- बात में आवेश में आ जाना, दूसरों की गलतियों के ऊपर आपे से बाहर आ जाना ठीक नहीं।   

    दूसरों में गलतियाँ हैं। ये कौन नहीं कहता? लेकिन दूसरों की गलतियों को प्रेम से सुधारा जाना चाहिए ,  उनको बताया जाना चाहिए, उसको संतुलित होकर के ठीक किया जाना चाहिए। नहीं होता, तो बिलकुल दिल में नहीं रखना चाहिए, आवेश में नहीं आना चाहिए। बात- बात में गुस्से की क्या बात है? काम, क्रोध, लोभ और केवल एक कुटुम्ब से, एक घर से, एक शरीर से अपनापन जोड़ लेना, इसको मोह कहते हैं। आदमी एक शरीर से क्यों जुड़ा हुआ रहे? सभी शरीरों में अपनी आत्मा को समाया हुआ क्यों नहीं देखे। सारे समाज को एक कुटुम्ब क्यों नहीं माने? चंद आदमियों को ही कुटुम्ब क्यों माने? इस तरीके से ये संकीर्णता की भावना को मोह कहते हैं और ये काम, क्रोध, लोभ और मोह मानसिक विकार हैं और ये मानसिक पाप कहे जाते हैं। इससे आदमी को अपने आपको उठाना चाहिए।  

    हराम की कमाई खाना भी एक बहुत बड़ा पाप है। बिना परिश्रम किये आप क्यों खायें? आपने मजदूरी करने के लिए प्रतिज्ञा की है, पूरी मजदूरी क्यों नहीं करें? पूरी मजदूरी का अर्थ है- पसीने की कमाई खानी चाहिए और हराम का पैसा नहीं ही खाना चाहिए। आज कल जुआ खेलने का रिवाज, सट्टा खेलने का रिवाज, लॉटरी लगाने का रिवाज बहुत बुरी तरह से बढ़ रहा है और बाप- दादों की हराम की कमाई उत्तराधिकार में खाने का रिवाज भी बुरी तरह से बढ़ रहा है। इन बुरे रिवाजों को बंद करना चाहिए। आदमी को सिर्फ अपनी मेहनत- मशक्कत की कमाई खानी चाहिए।

    बिना मेहनत- मशक्कत की कमाई क्यों खायें? लॉटरी २० रुपये की लगायी और पाँच लाख रुपये मिल जाए। ये क्या बात हुई? फिर आदमी की परिश्रम की कीमत क्या रही? आदमी की मेहनत क्या रही? न कोई मेहनत, परिश्रम करके फोकट में ही पैसा मिल जाता है, तो फिर परिश्रम को साथ- साथ में क्यों जोड़ा जाए? परिश्रम का मतलब ही तो पैसा होता है और पैसा किसे कहते हैं? आदमी की शारीरिक और मानसिक मेहनत का नाम पैसा है। बात ठीक है, यहाँ तक अर्थ सिद्धान्त सही है। लेकिन जो बिना पैसे का है, जब कभी पैसा मिलता है, तो ये मानना चाहिए कि अर्थ सिद्धान्त जिसके लिए पैसे का निर्माण किया गया था, उन सिद्धान्तों को ही काट दिया गया। जुआ खेलना, लॉटरी लगाना, सट्टा खेलना ये हराम की कमाई है। उसको नहीं किया जाना चाहिए।     

    इसी प्रकार के अपने सामाजिक पाप अपने हिन्दू समाज में न जाने कहाँ से कहाँ भरे पड़े हैं। अपने समाज में अन्धविश्वासों का बोलबाला है। इसमें से सामाजिक कुरीतियों में आपने देखा होगा, वर्ण व्यवस्था का विकृत रूप। जन्म से आदमी ब्राह्मण और जन्म से आदमी शूद्र। ये क्या जन्म से क्यों? कर्म से क्यों नहीं? कर्म से आदमी ब्राह्मण होना चाहिए, कर्म से शूद्र होना चाहिए। लेकिन लोग जन्म से मानने लगे हैं। ये कैसी ये अंधविश्वास की बात है? और कैसी अंधविश्वास की बात है कि स्त्रियों के ऊपर ऐसे बंधन लगाये जाते हैं, उनको पर्दे में रहना चाहिए।  पुरुषों को क्यों पर्दे में नहीं रहना चाहिये? नहीं, स्त्रियों के सिर की रक्षा की जानी चाहिए। फिर पुरुषों के सिर की रक्षा क्यों नहीं की जानी चाहिए?  पुरुषों के सिर की रक्षा की जानी चाहिये। उनको भी घूँघटों में बंद किया जाना चाहिए। उनको भी घर में बंद किया जाना चाहिए। कोई स्त्री देख लेगी, तो उसका सिर खराब हो जाएगा। स्त्री के ऊपर सिर की रक्षा, पुरुषों के ऊपर नहीं, बिलकुल वाहियात बात है। ऐसी बात है जिसमें अन्याय की गंध आती है। इसमें बेइंसाफी की गंध आती है, आदमी की संकीर्णता की गंध आती है।     

    अब अपने समाज में ब्याह- शादियों का जो गंदा रूप है, वह दुनिया में सबसे खराब और सबसे जलील किस्म का है। ब्याह करे और आदमी रुपया- पैसा फूँके और दहेज दे। क्या मतलब? जिस कन्या को पिता दे रहा है, उससे बड़ा अनुदान और क्या हो सकता है? नहीं साहब, उसके साथ कुछ और लाइए। क्यों लायें? बेटी हम दे रहे हैं, तुम लाओ। बेटे वाले को बेटी वालों के लिए पैसे लाने की बात हो, तो समझ में भी आती है; लेकिन बेटी वाला लड़की भी देगा, पैसा भी देगा और खुशामद भी करेगा। ये बिलकुल गलत तरीके का रिवाज है।    

२- पुण्य बढ़ाएँ-


    ठीक इसी तरीके से बाप- दादा की मृत्यु हो जाए, घर में किसी की मृत्यु हो जाए, दावत खाई जाए। ये क्या वाहियात है? घर में जिसकी मृत्यु हो गई है तो सहायता की जानी चाहिए, उसकी आर्थिक स्थिति को मजबूत किया जाना चाहिए, उसकी हिम्मत बढ़ाई जानी चाहिए। घर में बेचारे के यहाँ दो मन अनाज है, उसको भी खा- पी करके, उसको भी दावत उड़ा करके मूँछों पर ताव दे करके भाग जाना चाहिए। ये जलील रिवाज है और हमारा समाज सब जलील रिवाजों से भरा हुआ पड़ा है। इस तरह के रिवाज जिनकी ओर मैंने आपको इशारा किया था। हमको देखना चाहिए कि हमारी बिरादरी, हमारी कौम और हमारे समाज में क्या- क्या सामाजिक बुराइयाँ हैं? उनमें से कोई न कोई छोड़ी ही जानी चाहिए।     

    इसी तरह से कोई एकाध अच्छाई इसी दीक्षा के समय में सीख लेनी चाहिए। अच्छाइयों में से एक अच्छाई ये है कि हम में से हर आदमी को गायत्री मंत्र का जप करना और भगवान् पर विश्वास करना आना चाहिए। भगवान् की पूजा के साथ भगवान् पर विश्वास बहुत सख्त जरूरी है। बहुत से मनुष्य ऐसे हैं, जो पूजा तो करते हैं, पर भगवान् पर विश्वास बिलकुल नहीं करते हैं। भगवान् पर विश्वास करते, तब उनको पाप करने की इच्छा क्यों होती? भगवान् पर विश्वास कर लिये होते, तो बात- बात में रोते- चिल्लाते, डरते और कमजोर होते क्यों? हानि जरा- सी हो जाती और आपे से बाहर हो जाते हैं, ये क्यों होता? भगवान् पर विश्वास करने वाला ऐसा नहीं कर सकता है। बड़ा धीर, वीर और गंभीर होता है। भगवान् पर विश्वास तो आदमी को होना चाहिए। भगवान् का पुजारी हो, तो वो भी अच्छी बात है। उसको मैं आस्तिक कहता हूँ। आस्तिकता को अपने मन में धारण करने वाली बात हर आदमी को करनी चाहिए। ये अच्छाई दीक्षा के समय ग्रहण की जानी चाहिए।     

    इसी प्रकार से आदमी को एक और बात शुरू करनी चाहिए कि हम अपनी संस्कृति का एक महत्त्वपूर्ण अंग जो बहुत छोटा है, उसको हम पालन किया करेंगे, पूरा किया करेंगे। एक महत्त्वपूर्ण अंग ये है कि हमको अपने बड़ों की- बुजुर्गों की इज्जत करनी सीखना चाहिए। मैं उनकी हर बात मानने के लिए नहीं कहता। जो बात मुनासिब नहीं है, बिलकुल नहीं मानना चाहिए। लेकिन बड़ों की इज्जत जरूर करनी चाहिए। बड़ों के पैर छूना चाहिए। सबेरे उठना चाहिए। ये हमारी शालीनतापरक प्रक्रिया है। इससे पारिवारिक वातावरण अच्छा होता है। छोटे और बड़ों के बीच प्रेम भाव पैदा होता है। परिवार प्रणाली में जहाँ जरा- जरा सी बात के ऊपर बार- बार मोह- मालिन्य पैदा होते रहते हैं, वह इससे दूर हो जाते हैं और हमारे बच्चों को ये सीखने का मौका मिलता है कि हमको बड़ों की इज्जत करना चाहिए।

    अगर हम पिताजी, माताजी, बड़े भाई, चाचाजी सबके पैर छूयेंगे, तो हमारे छोटे बच्चे भी वैसा अनुकरण करेंगे और हमारे घर में श्रेष्ठ परम्पराएँ पैदा हो जायेंगी। इस तरीके से कोई न कोई काम करना चाहिए और कोई अच्छाई शुरू करनी चाहिए, कोई बुराई दूर करनी चाहिए। यही गायत्री मंत्रदीक्षा की गुरु दक्षिणा है और यही यज्ञोपवीत पहनने की गुरु दक्षिणा है। इस तरह की प्रतिज्ञा की जानी चाहिए। साधक को मन ही मन में ये भाव करना चाहिए कि मन में अमुक बुराई जो हमारे भीतर अब तक थी, उस बुराई को हम त्याग कर रहे हैं और अमुक अच्छाई जो हमारे भीतर नहीं थी, उसको हम प्रारम्भ कर रहे हैं। बहुत सी अच्छाइयाँ हैं- दया करना, प्रेम करना, समाज की सेवा करना, क्या- क्या हजारों अच्छाइयाँ हैं। कम से कम एक अच्छाई कि हम बड़ों के पैर छूआ करेंगे, स्त्री अपने पति और सास के पैर छूआ करें और पुरुष अपने भाई और बहिन और माता- पिता और चाचा- ताऊ और बड़ा भाई, बड़ी भाभी के पैर छूआ करेंगे। हमारे घर में उत्तम और श्रेष्ठ परम्पराएँ कायम हों।     

    दक्षिणा संकल्प- इसके बाद में दाहिने हाथ पर चावल, फूल और जल लेकर के जो संस्कार कराने वाले व्यक्ति हों, वे संकल्प बोलें, संकल्प बोलने के पीछे जो प्रतिज्ञा है, उसकी घोषणा की जाए अथवा लिख करके या छपे हुए पर्चे पर दोनों प्रतिज्ञा हमने क्या छोड़ा और क्या नहीं छोड़ा? वह दक्षिणा- पत्रक के रूप में लाकर के लाल मशाल के सामने- गायत्री माता के सामने प्रस्तुत कर देना चाहिए और विश्वास करना चाहिए कि अपने ज्ञानयज्ञ की लाल मशाल- यही अपना गुरु है। गायत्री माता ही अपना गुरु है। गायत्री माता को ही गुरु मानना चाहिए और लाल मशाल को ही गुरु माना जाना चाहिए, व्यक्तियों को नहीं।     

    व्यक्तियों के लिये अब मैं सख्त मना करता हूँ। कोई व्यक्ति गुरु बनने की कोशिश न करे, क्योंकि जहाँ तक मेरे देखने में आया है कि बहुत ही कम या नहीं के बराबर ऐसे लोग हैं, जो व्यक्तिगत रूप से गुरु दीक्षा देने में समर्थ हैं। खास तौर से अपने गायत्री परिवार की सीमा के अंतर्गत ये बातें बहुत ही मजबूती के साथ जमा देनी चाहिए कि अब कोई व्यक्ति उद्दण्डता न फैलाने पाए। ठीक है मैं जब तक रहा दीक्षा देता रहा। लेकिन मेरी जीवात्मा ने कहा- मैं इसका अधिकारी हूँ। तभी मैंने ये कदम उठाया। लेकिन मैं देखता हूँ, असंख्य मनुष्य जो बिलकुल अधिकारी नहीं हैं, इस बात के, अपने आपको झूठ- मूठ और दूसरों को ठगने के लिए अपने आपको ऐसा बताते हैं, हम गुरु हैं, हम इस लायक हैं, वह लोग इस योग्य बिल्कुल नहीं हैं। हमको इस झगड़े में पड़ने से बचना चाहिए। जिस तरीके से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का झण्डा ही गुरु होता है, जिस तरीके से सिक्खों में गुरुग्रंथ साहब ही गुरु होता है, इसी तरीके से अपनी गायत्री परिवार- युग निर्माण परिवार के अंतर्गत गुरु केवल लाल मशाल को माना जाना चाहिए।     

    ये दसवाँ अवतार है, आपको याद रखना चाहिए। नौ अवतार पहले हो चुके हैं, यह दसवाँ अवतार अपनी यह लाल मशाल है, इसको निष्कलंक अवतार भी कह सकते हैं। यह निष्कलंक अवतार और लाल मशाल अब हम सबका यही गुरु होगा। आइन्दा से यही गुरु होगा और आइन्दा से हरेक गायत्री परिवार के व्यक्ति और मेरे चले जाने के बाद में मुझे भी गुरु मानने वाले व्यक्ति केवल इस लाल मशाल को ही गुरु मानेंगे और यह मानेंगे यही हमारा गुरु है। श्रद्धा इसी के प्रति रखेंगे और ज्ञान के प्रकाश की ज्योति इसी से ग्रहण करेंगे। इसके पीछे भगवान् की और संभवतः मेरी भी कुछ प्रेरणा भरी पड़ी है। इस मर्यादा का पालन करने वालों को सबको लाभ मिलेगा। इस तरीके से गुरु दीक्षा और यज्ञोपवीत संस्कारों के क्रिया- कृत्य को पूरा किया जाना चाहिए।
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