भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व

देव संस्कृति भाग्यवादी नहीं कर्मवादी

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भारत जैसे कृषि प्रधान देश में जहाँ तीन महीने ही वर्षा होती है और वो भी अनिश्चित- सी ।। अतः वन संरक्षण की ओर पूरा ध्यान नहीं दिया गया तो हमें निकट भविष्य में अकाल का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए ।। विशेषतः भारत जैसे कृषि प्रधान देश के लिए तो वन ही अन्नदाता हैं ।। प्राचीनकाल में जबकि देश में वनों की बहुलता थी, वनवासी तपस्वियों को समस्त योगक्षेम वनों पर ही आधारित था ।। भोजन, छाजन यहाँ तक कि वस्त्र भी जंगलों से ही प्राप्त होते थे ।। कन्द- मूल, फल- पत्ते आदि का सात्विक आहार, बाँस, ताड़ एवं वन आदि से कुटी, भोजन- पत्र से वस्त्रों की आवश्यकता पूरी की जाती थी ।। गुरु कुलों के आचार्य और राजकुलों के राजकुमार, अभिजात्य वर्ग के छात्र अपने अध्ययन काल में तत्कालीन समाज का प्रबुद्ध वर्ग अपने जीवन का अधिकांश समय वनों में ही व्यतीत करता था ।।

राज्यों की सीमाओं के वन प्रदेश अलंघ्य होते थे ।। सुरक्षात्मक दृष्टि से किसी भी राज्य के लिए वनों को अत्यन्त महत्त्व था, इसलिए वनों की रक्षा के लिए विशेष चौकी पहरे का प्रबन्ध होता था ।। सेना के वाहनों घोड़े तथा हाथियों का चारा- पानी पूर्णतः इन्हीं जंगलों से प्राप्त होता था ।। यदि यह कहें कि प्राचीन भारत के समस्त निवासियों को भरण- पोषण जंगलों पर ही आधारित था तो कोई अतिश्योक्ति न होगा ।।
आज भी ईंधन, इमारती लकड़ी, औषधि, जड़ी- बूटीं, गोद, लाख, मधु तथा अन्य महत्त्वपूर्ण उद्योगों को कच्चा माल वनों से प्राप्त होता है ।। बीड़ी का तो समस्त उद्योग जंगलों पर ही निर्भय है ।। इस भाँति देश की जनसंख्या के अधिकांश भाग की रोटी- रोजी जंगलों से ही चलती है ।।

विदेशी पर्यटकों के लिए भारत के जंगल अफ्रीका महाद्वीप के जंगलों से अधिक विचित्र और अधिक मनोहर हैं ।। जंगलों के शान्त और निरापद वातावरण में भारतीय तत्त्व- दर्शियों ने प्रकृति के गहनतम रहस्यों को अध्ययन किया है ।। श्री समृद्धि के कुबेर इन वन प्रदेशों को संरक्षण जनता एवं सरकार दोनों को अनिवार्य उत्तरदायित्व है, किन्तु यह उत्तरदायित्व केवल सरकार पर ही नहीं छोड़ा जा सकता ।। सरकार के काम ढंग से होते हैं और सरकार भी तो जनता के आदमियों द्वारा ही चलती है ।। वनों का महत्त्व समझ लेने पर सरकार व जनता दोनों की तरफ से वन संरक्षण का काम हो सकता है ।। सरकार भी वनों से लाभ उठाने के लिए ठेकेदारों को लकड़ी कटाई के ठेके देती है ।। उनमें भी पूरी- पूरी सावधानी रखने की आवश्यकता है, नहीं तो वन की सघनता को खतरा उत्पन्न हो सकता है ।।

वनों की अन्धाधुन्ध कटाई रोक कर उन्हें सघन बनाने का प्रयास होना चाहिए ।। यदि हम वन क्षेत्र को बढ़ा न सकें तो कम से कम उन्हें विरल होने से तो रोकना ही चाहिए ।। अभी तक अधिकांश जनता खाना पकाने के लिए लकड़ी तथा लकड़ी के कोयले जलाती है ।। इससे हमारी वन- सम्पदा को बहुत हानि पहुँचती है ।। इसी गति से यदि ईंधन की खपत होती रही तो निकट भविष्य में हमारे सामने ईंधन की समस्या विकराल होकर आयेगी ।। अतः भोजन पकाने में कम से कम ईंधन लगे ऐसी पद्धति को अपनाया जाना आवश्यक है ।। भाप द्वारा पकाये जाने की विधि में लगभग एक तिहाई ईंधन खर्च होता है ।। नगरवासियों के लिए भाप द्वारा भोजन पकाने के उपकरण महंगे होते हुए भी ईंधन की बचत हो देखते हुए सस्ते ही पड़ते हैं ।। अतः इनका उपयोग करना लाभकारी है ।।
    
जहाँ फलों के बगीचे लगने की सुविधा है, जलवायु अनुकूल है, वहाँ खाद्यान्न तथा अन्य फसलें न उगाकर फलों की बगीचे लगाने पर ही कृषकों को ध्यान देना चाहिए । यों भी कम उपजाऊ भूमि पर आम, अमरूद, बेर आदि के बाग लगाकर अधिक व स्थाई लाभ कमाया जा सकता है ।। इस प्रकार देश की वानस्पतिक सम्पदा में अभिवृद्धि होगी ।।

देश की घटती हुई वन- सम्पदा को दृष्टिगत रखकर स्वर्गीय कन्हैयालाल माणिकलाल मुन्शी ने वन महोत्सव कार्यक्रम प्रतिवर्ष मनाने का अभियान चलाया था, किन्तु वह अभियान अभी तक सरकारी क्षेत्रों तक ही सीमित होकर रह गया है ।। यों यह अब भी प्रति वर्ष मनाया जाता है ।। पेड़ लगाये जाते हैं, किन्तु यह मात्र आँकड़े करने की बात बनकर रह गई है ।। इसे जनता का अभियान बनाने की आवश्यकता है ।। प्रत्येक समझदार व्यक्ति को अपने इस दायित्व को समझना चाहिए ।।

हम अपने खाने जितना अन्न उगाते हैं, या नहीं उगाते तो उसे मेहनत यह भी कर्तव्य है कि हम जितनी प्रकृति प्रदत्त लकड़ी जलाते हैं, उतनी प्रकृति प्रदत्त लकड़ी जलाते ही वन- सम्पदा की वृद्धि भी करें नहीं तो एक प्रकार का प्रकृति द्रोह व भावी सन्तति के हित मे अपराध होगा ।। हम उनके हक पर डाका डाल गये ।।

जनता के सजग सचेष्ट रहने की आवश्यकता है कि वर्तमान वन कटने व विरल होने से बचे रहें ।। वृक्षारोपण परम पुनीति कार्य है ।। पुण्य लाभ हर कोई व्यक्ति कर सकता है ।। कम से कम जितनी लकड़ी काम में लेते हैं, उतनी क्षति तो हमें करनी ही चाहिए ।। १५ वीं शताब्दी में जबकि देश पर मुस्लिम शासकों को आधिपत्य था ।। शेरशाह, अकबर, जहाँगीर आदि मुस्लिम सम्राटों ने समस्त राजपथ के दोनों ओर विशाल और सघन छायादार वृक्ष लगवाये ।। स्थान- स्थान पर नवीन उद्यान लगाकर देश की श्री और सुषमा की अभिवृद्धि की ।। काश्मीर का शालीमार एवं निशाग बाग आज भी इसके साक्षी हैं ।। पिछली दो शताब्दियों में वृक्षों को बड़ी निर्दयता से काटा गया है, जिसका दुष्परिणाम आज हमारे सामने है ।। किसी समय वृक्ष के स्वतः सूख जाने पर उसकी लकड़ी काम में लाई जाती थी किन्तु पिछली इन दो- तीन शताब्दियों में तो सैकड़ों वर्ग मील में फैले वनों को काटकर काश्त की जा रही है, जो कि राष्ट्रीय स्तर पर कोई अधिक मुनाफे को सौदा साबित नही हुआ है ।। बढ़ती हुई आबादी को पैदा करने की दृष्टि से यदि इसे उचित मान भी लिया गया तो दूसरी ओर मरुस्थल का बढ़ना, चरागाहों की कमी तथा वर्षा की कमी घोर व्यापक विभीषिका बनती जा रही है ।। किन्तु संतोष है कि देश के कुछ मनीषियों को ध्यान इस ओर आकृष्ट हुआ ।। उन्होंने वर्षा तथा वनों को एक- दूसरे का पूरक सिद्ध करके सरकार का ध्यान इस ओर आकर्षित किया ।।

रोम, बेबीलोन तथा फारस के विद्वानों ने भी वर्षा के लिए वनों के संरक्षण को प्रमुख उत्तरदायित्व बताया और अपने देश की सरकारों को इस बात के लिए बाध्य किया कि राष्ट्र की समृद्धि के लिए वृक्षारोपण एवं वन संरक्षण को प्रमुख राजकीय उत्तरदायित्व समझा जाय ।। भारतवर्ष में भी पूर्व खाद्य मंत्री श्रीकन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने वृक्षारोपण की योजना बनाई और अधिक वर्षा के लिए वन महोत्सव आन्दोलन का शुभारंभ किया ।। आज परिस्थितियों का तकाजा है कि हम इस आन्दोलन को अपना पुनीत कर्तव्य एवं अनिवार्य उत्तरदायित्व समझें और तन- मन से सरकार को सहयोग देकर राष्ट्र को सुखी एवं समृद्ध बनाने में भागीदार बनें ।।
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