अपने सामाजिक पक्ष में भी भारतीय संस्कृति वैज्ञानिक आधारों पर खड़ी हुई है ।। भारतीय तत्त्व ज्ञानियों ने सामाजिक क्षेत्र में बहुत खोज- बीन करके ऐसे नियम निर्धारित किए थे, जो प्रचुर फल देने वाले हैं और आज भी जिनसे समग्र हिन्दू जाति लाभ उठा रही है ।। हमारे शास्त्रों में आचार को परम धर्म कहा गया है ।। भारतीय तत्त्ववेत्ता यह मानते हैं कि जो सिद्धांत अथवा विचार आचरण में नहीं आ सकते, वे उपयोगी नहीं हैं और जो धर्म व्यवहार में नहीं आता, जिससे हमारा दैनिक जीवन और समस्याएँ हल नहीं होती, जीवन सुख- शान्तिमय नहीं बनता, हम उसे ''धर्म'' नहीं कह सकते ।। हमारी संस्कृति में धर्म के अन्तर्गत उन सिद्धांतों को स्थान दिया गया है, जिनसे हमारा नैतिक और आध्यात्मिक ही नहीं, वरन् सामाजिक जीवन भी उन्नत बनता है ।। वर्तमान युग संक्रान्ति और संघर्ष का युग है ।। यदि हम भारतीय आचार परम्परा को बचाना चाहते हैं, तो हमें अपनी संस्कृति में घुसे हुए दोषों को दूर कर पूरी श्रद्धा से पूर्वजों की परिपाटी को ग्रहण करना होगा ।।
एक युग ऐसा आया था कि भारतीय संस्कृति को वाम- मार्ग से कड़ा मुकाबला करना पड़ा था ।। आर्य संस्कृति के समर्थकों ने अपने उज्ज्वल चरित्र के बल पर वाम- मार्ग के प्रभाव को रोक दिया था ।। आज पुनः वही विचारधारा नूतन रूप में पाश्चात्य संस्कृति की वेश- भूषा में हमारे सम्मुख आई है ।। भौतिकवाद और कम्यूनिज्म के प्रचारक खुले आम पुराने आचार- विचार का विरोध कर रहे हैं, लेकिन हमारा विश्वास है कि भारतीय संस्कृति के पुष्ट सामाजिक पक्ष के सम्मुख इस भौतिकवाद की बालू की दीवार न ठहर सकेगी ।।
भारतीय समाज की आधार- शिला सदाचार पर ही आसीन है, इसलिए उसका धर्म बतलाते हुए प्रथम सूत्र ''आचारः प्रथमो धर्म'' कहा गया है ।। हमारे यहाँ चार वर्ण और चार आश्रमों की व्यवस्था रही है ।। इसकी उत्कृष्टता पर यहाँ संक्षेप में विचार प्रस्तुत किए जाते है ।।
(भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व पृ.सं. ४.१)