भारतीय संस्कृति परमार्थ और परोपकार को प्रचुर महत्त्व देती है ।। जब अपनी सात्विक आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाय, तो लोक- कल्याण के लिए दूसरों की उन्नति के लिए दान देना चाहिए ।। प्राचीनकाल में ऐसे निःस्वार्थ लोक- हित ऋषि, मुनि, ब्राह्मण, पुरोहित, योगी, संन्यासी होते थे, जो समस्त आयु लोक -हित के लिए दे डालते थे ।। कुछ विद्यादान, पठन- पाठन में ही आयु व्यतीत करते थे ।। उपदेश द्वारा जनता की शिक्षा, स्वास्थ्य, उद्योग, सहयोग, सुख, सुविधा, विवेक, धर्मपरायणता आदि सद्गुणों को बढ़ाने का प्रयत्न किया करते थे ।। माननीय स्वभाव में जो सत् तत्व है, उसी की व्रद्धि में वे अपने अधिकांश दिन व्यतीत करते थे ।। ये ज्ञानी उदार महात्मा अपने आप में जीवित- कल्याण की संस्थाएँ थे, यज्ञ रूप थे ।। जब ये जनता की इतनी सेवा करते थे, जो जनता भी अपना कर्तव्य समझकर इनके भोजन, निवास, वस्त्र, सन्तान का पालन- पोषण का प्रबंध करती थी ।। जैसे लोक- हितकारी संस्थाएँ आज भी सार्वजनिक चन्दे से चलाई जाती है, उसी प्रकार ये ऋषि, मुनि, ब्राह्मण भी दान, पुण्य, भिक्षा आदि द्वारा निर्वाह करते थे ।।
प्राचीन भारतीय ऋषि- मुनियों का इतना उच्च, पवित्र और प्रवृत्ति इतनी सात्विक होती थी कि उनके संबंध में किसी प्रकार के संदेह की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी, क्योंकि उन्हें पैसा देकर जनता उसके सदुपयोग के विषय में निश्चित रहती थी ।। हिसाब जाँचने की आवश्यकता तक न समझती थी ।। इस प्रकार हमारे पुरोहित, विद्यादान देने वाले ब्राह्मण, मुनि, ऋषि दान- दक्षिणा द्वारा जनता की सर्वतोमुखी उन्नति का प्रबंध किया करते थे ।। दान द्वारा उनके जीवन की आवश्यकताएँ पूरी करने का विधान उचित था ।। जो परमार्थ और लोक- हित जनता की सेवा सहायता में इतना तन्मय हो जाय कि अपने व्यक्तिगत लाभ की बात सोच ही न सके, उसके भरण- पोषण की चिन्ता जनता को करनी ही चाहिए ।।
इस प्रकार दान देने की परिपाटी चली ।। कालान्तर में उस व्यक्ति को भी दान दिया जाने लगा ।। जो अपंग, अंधा, लंगड़ा लूला, अपाहिज या हर प्रकार से लाचार हो, जीविका उपार्जन धारण करने के लिए अन्य कोई साधन ही शेष नहीं रहता ।। इस प्रकार दो रूप में दूसरों को देने की प्रणाली प्रचलित रही है- १. ऋषि- मुनियों, ब्राह्मणों, पुरोहितों, आचार्यों, संन्यासियों को दी जाने वाली आर्थिक सहायता को नाम रखा गया दान ।। २. अपंग, लँगड़े, लूले, कुछ भी कार्य न कर सकने वाले व्यक्तियों को दी जाने वाली सहायता को भिक्षा कहा गया ।। दान और भिक्षा दोनों का ही तात्पर्य दूसरे की सहायता करना है ।। पुण्य, परोपकार सत्कार्य, लोक- कल्याण सुख- शान्ति की वृद्धि, सात्विकता का उन्नयन तथा समष्टि की, जनता की सेवा के लिए ही इन दिनों का उपयोग होना चाहिए ।।
दूसरों को देने का क्या तात्पर्य है ।। भारतीय दान परम्परा और कुछ नहीं उधार देने की एक वैज्ञानिक पद्धति है ।। जो कुछ हम दूसरों को देते हैं, वह हमारी रक्षित पूँजी की तरह जमा हो जाता है ।। अच्छा दान जरूरतमंदों को देना कुछ विशेष महत्त्व नहीं रखता ।। कुपात्रों को धन देना व्यर्थ है जिसका पेट भरा हुआ हो, उसे और भोजन कराया जाय, तो वह बीमार पड़ेगा और अपने साथ दाता को भी अधोगति के लिए बहुत ही उत्तम धर्म- कर्म है ।। जो, अपनी रोटी दूसरों को बाँट कर खाता है, उसको किसी बात की कमी नहीं रहेगी ।।
मृत्यु बड़ी बुरी लगती है, पर मौत से बुरी बात यह है कि कोई व्यक्ति दूसरे का दुःखी देखे, भोजन के अभाव में रोता चिल्लाता या मरता हुआ देखे, और उसकी किसी प्रकार भी सहायता करने में अपने आप को असमर्थ पावे ।। हिन्दू शास्त्र एक स्वर से कहते है कि मनुष्य- जीवन में परोपकार ही सार है हमें जितना भी संभव हो सदैव परोपकार में रहना चाहिए ।। किन्तु यह दान अभिमान, दम्भ, कीर्ति के लिए नहीं, आत्म कल्याण के लिए ही होना चाहिए ।। मेरे कारण दूसरों का भला हुआ है, यह सोचना उचित नहीं है ।। दान देने से स्वयं हमारी ही भलाई होती है ।। हमें संयम का पाठ मिलता है ।। आप यदि न देंगे, तो कोई भिखारी भूखा नहीं मर जायेगा ।। किसी प्रकार उसके भोजन का प्रबंध हो ही जायेगा, लेकिन आपके हाथ से दूसरों के उपकार को करने का एक अवसर जाता रहेगा ।। हमारी उपकार भावना कुण्ठित हो जायेगी ।। दान से जो मानसिक उन्नति होती, आत्मा को जो शक्ति प्राप्त होती, वह दान लेने वाले को नहीं, वरन् देने वाले को प्राप्त होती है ।। दूसरों का उपकार करना मानों एक प्रकार से अपना ही कल्याण करना है ।। किसी को थोड़ा सा पैसा देकर भला हम उसका कितना भला कर सकते हैं? हमारी उदारता का विकास हो जाता है ।। आनंद- स्रोत खुल जाता है ।।
(भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व पृ.सं.३.१९३)