मानव कल्याण की महान् परम्पराओं में जितने भी आयोजन एवं अनुष्ठान है उनमें सबसे बड़ी परम्पराओं में जितने भी आयोजन एवं अनुष्ठान है उनमें सबसे परम्परा संस्कारों एवं पर्वों की है ।। संस्कारों धर्मानुष्ठानों द्वारा व्यक्ति एवं परिवार को और पर्व- त्यौहारों के माध्यम से समाज को प्रशिक्षित किया जाता है ।। इन पुण्य- परम्पराओं पर जितनी ही बारीकी से हम ध्यान देते हैं उतना ही अधिक उनका महत्त्व एवं उपयोग विदित होता है ।। पर्व- त्यौहारों की चर्चा अन्यत्र करेंगे, यहाँ तो हम षोडश संस्कारों की उपयोगिता एवम् आवश्यकता पर थोड़ा प्रकाश डालेंगे ।।
यो स्वाध्याय- सत्संग, प्रशिक्षण, चिन्तन, मनन आदि का प्रभाव मनुष्य की मनोभूमि पर पड़ता ही है ।। ओर उनसे व्यक्ति के भावना को विकसित करने में सहायता मिलती ही है और इनकी उपयोगिता को स्वीकार करते हुए सर्वत्र इनका प्रचलन रखा भी जाता है पर साथ ही एक बात यह भी ध्यान में रखनी चाहिए कि अन्तः चेतना को उच्च प्रयोजन के लिए उल्लसित एवं सूक्ष्म बनाने के कुछ वैज्ञानिक उपकरण भी हैं और उनका महत्त्व स्वाध्याय, सत्संग आदि चलित उपकरणों की अपेक्षा किसी भी प्रकार कम नहीं है । इन व्यक्तित्व निर्माण के वैज्ञानिक माध्यमों को ही संस्कार कहा जा सकता है ।। संस्कार वे उपचार हैं जिनके माध्यम से मनुष्य को सुसंस्कृत बनाना, सबसे अधिक सम्भव एवं सरल है कहने की आवश्यकता नहीं कि सुसंस्कारित व्यक्ति के निजी पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन में कितनी श्रेयस्कर एवं मंगलमय सिद्धि हो सकती है ।।
(भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व पृ.सं.१.१३७)