भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व

बहुदेव वाद

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सदा भवानी दाहिनी, सन्मुख रहे गणेश ।।
पांच देव रक्षा करें, ब्रह्मा विष्णु महेश॥

(१)ब्रह्मा- भगवान के नाभि कमल से चतुर्मुख ब्रह्मा के साथ सृष्टि हुई शरीर के अन्यान्य अंगों में से नाभि की के साथ सृष्टि कार्य का संबंध अधिक है, इसलिए परमात्मा की नाभि सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी का उत्पन्न होना विज्ञान सिद्ध है ।। कमल अव्यक्त से व्यक्त अर्भिमुखी प्रकृति का रूप है और उसी से ब्रह्मा की उत्पत्ति होती है ।। ब्रह्मा जी प्रकृति के अन्तर्गत राजसिक भाव पर अधिष्ठान करते हैं, इसलिए ब्रह्माजी का रंग लाल है ।। क्योंकि रजोगुण का रंग लाल है ।।

''अजामेकां लोहितशुक्ल कृष्णाम्'' (श्वेताश्वनर उपनिषद्)
त्रिगुणमयी प्रकृति लोहित शुक्ल और कृष्णवर्ण है ।। रजोगुण लोहित, सतोगुण शुक्ल और तमोगुण कृष्णवर्ण है ।। समष्टि- अंतःकरण ब्रह्माजी का शरीर और उनके चार मुख माने गये हैं क्योंकि- मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार- ये अंतःकरण के चार अंग हैं ।। क्रियाकलाप में ज्ञान की अप्रधानता रहने पर भी ज्ञान की सहायता बिना क्रिया ठीक- ठीक नहीं चल सकती है ।। इसलिए नीर- क्षीर विवेकी हंस को ब्रह्मा जी का वाहन माना गया है ।।

ब्रह्माजी की मूर्ति की ओर देखने से, उसमें निहित सूक्ष्म व स्थूल भावों पर विचार कर देखने से पता लग जायेगा कि प्रकृति के राजसिक भाव की लीला के अनुसार ही ब्रह्माजी की मूर्ति- कल्पना की गई हैं ।।

(२) विष्णु -विष्णु शास्त्रों में शेषशायी भगवान विष्णु का ध्यान इस प्रकार किया गया है कि-
ध्यायन्ति दुग्धादि भुजंग भोगे ।।
शयानमाधं कमलासहायम्॥
प्रफुल्लनेत्रोत्पलमंजनाभ, चर्तुमुखेनाश्रितनाभिपद्म ।। आम्नायगं त्रिचरणं घननीलमुद्यछ्रोवत्स कौन्तुभगदाम्बुजशंखचक्रम् ।।
हृत्पुण्डरीकनिलयं जगदेकमूलमालोकयन्ति कृतिनः पुरुषं पुराणम्॥
अर्थात्- भगवान क्षीर सागर में शेषनाग पन सोये हुए हैं, लक्ष्मी रूपिणी प्रकृति उनकी पादसेवा कर रही है, उनके नाभिकमल से चतुर्मुख ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई है, उनका रंग घननील है, उनके हाथ हैं जिनमें शंख, चक्र, गदा और पद्म सुशोभित हैं- वे जगत् के आदि कारण तथा भक्त- जन हृत्सरोज बिहारी हैं ।।
इनके ध्यान तथा इनकी भावमयी मूर्ति में तन्मयता प्राप्त करने से भक्त का भव-भ्रम दूर होता है ।।
क्षीर का अनंत समुद्र सृष्टि उत्पत्तिकारी अनन्त संस्कार समुद्र है जिसको कारणवीर करके भी शास्त्र में वर्णन किया है ।। कारणवीर जन्म न होकर संसारोत्पत्ति के कारण अनन्त संस्कार है ।।

संस्कारों को क्षीर इसलिये कहा गया है कि क्षीर की तरह इनमें उत्पत्ति और स्थिति विधान की शक्ति विद्यमान है ।। ये सब संस्कार प्रलय के गर्भ में विलीन जीवों के समष्टि संस्कार हैं ।।
अनन्त नाश अथवा शेषनाग अनंत आकाश को रूप है जिसके ऊपर भगवान् विष्णु शयन करते हैं ।।
शेष भगवान् की सहस्रेण महाकाश की सर्वव्यापकता प्रतिपादन करती है, क्योंकि शास्त्र में ''सहस्र '' शब्द अनन्तता- वाचक है ।।

आकाश ही सबसे सूक्ष्म भूत है, उसकी व्यापकता से ब्रह्म की व्यापकता अनुभव होती है और उससे परे ही परम- पुरुष का भाव है इस कारण महाकाशरूपी अनन्तशैया पर भगवान सोये हुए हैं ।।
लक्ष्मी अर्थात् प्रकृति उनकी पादसेवा कर रही है । इस भाव में प्रकृति के साथ भगवान का सम्बद्ध बताया गया है ।। प्रकृति रूप माया परमेश्वर की दासी बनकर उनके अधीन होकर उनकी प्रेरणा के अनुसार सृष्टि स्थिति, प्रलयंकारी है ।।
इसी दासी भाव को दिखाने के अर्थ में शेषशायी भगवान की पादसेविका रूप से माया की मूर्ति बनाई गई है ।।
भगवान के शरीर का रंग घननील है ।। आकाश रंग नील है ।। निराकार ब्रह्म का शरीरनिर्देश करते समय शास्त्र में उनको आकाश शरीर कहा है, क्योंकि सर्वव्यापक अतिसूक्ष्म आकाश के साथ ही उनके रूप की कुछ तुलना हो सकती है ।।
   
अतः आकाश शरीर ब्रह्म का रंग नील होना विज्ञान सिद्ध है ।।
भगवान के गलदेश में कौस्तुभ मणि विभूषित माला है ।। उन्होंने गीता में कहा है :-
मनः परतरं नान्यत् किंचिदरित्र धनंजय ।।
मुचि सर्वमिद प्रोक्तं सूत्रे मणिगणा इव॥
भगवान की सत्ता को छोड़कर कोई भी जीव पृथक नहीं रह सकता, समस्त जीव सूत्र में मणियों की तरह परमात्मा में ही ग्रथित है ।। सारे जीव मणि है, परमात्मा सारे जीवों में विराजमान सूत्र है ।।
गले में माला की तरह जीव भगवान में ही स्थित हैं ।। इसी भावन को बताने के लिए उनके गले में माला है ।।
उक्त माला की मणियों के बीच में उज्जवलतम कौस्तुमणि नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त स्वभाव कूटस्थ चैतन्य है ।।
ज्ञान रूप तथा मुक्त स्वरूप होने से ही कुटस्थरूपी कौस्तुभ की इतनी ज्योति है ।। माला की अन्यान्य मणियाँ जीवात्मा और कौस्तुभ कूटस्थ चैतन्य है ।।
यही कौस्तुभ और मणि से युक्त माला का भाव है ।।
भगवान के चार हाथ धर्म अर्थ, काम और मोक्ष रूपी चतुर्वर्ग के प्रदान करने वाले है ।।
शंक, चक्र,गदा और पद्म भी इसी चतुर्वर्ग के परिचायक है ।।

(३) शिव- योग शास्त्र में देवाधिदेव महादेव जी का रूप जो वर्णन किया गया है, वह इस प्रकार है-
ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिमं चरूचन्द्राऽवतंसम् ।।
रत्नाकल्पोज्जवलांगं परशुमृगवराऽभीतिस्त्रं प्रसन्नम्॥
पद्मासीनं समान्तात् स्तुतममरगणैवर्याघ्र कृतिंवसानम् ।।
विश्वद्यं विश्वबीजं निखिलभयहरं पंचवक्त्रं त्रिनेत्रम्॥

भगवान् शिव के इस ध्यान में वे चाँदी के पर्वत के समान श्वेतवर्ण तथा चन्द्रकला से भूतिषत है ।।
वे उज्ज्वलांग, प्रसन्नचित्त तथा चतुर्हस्तं में परशु, मृग, वर और अभय के धारण करने वाले हैं ।।

(४) दुर्गा- शक्ति की माता भवानी के विभिन्न रूपों में देवी का रूप तमोगुण को सिंहरूपी रजोगुण ने परास्त किया है ।। ऐसे सिंह के ऊपर आरोहण की हुई सिंहवासनी माता दुर्गा हैं जो कि शुद्ध गुणमयी ब्रह्मरूपिणी सर्वव्यापिनी और दशदिगरूपी दस हस्तों में शस्त्र धारण पूर्वक पूर्ण शक्तिशालिनी है ।।

(५) गणेश- शास्त्रों में गणपति को ब्रह्माण्ड के सात्विक सुबुद्धि राज्य पर अधिष्ठात्री देवता कहा गया है ।। गणपति परमात्मा के बुद्धि रूप है, सूर्य- चक्षुरूप है, शिव आत्मारूप और आद्या- प्रकृति जगदम्बा शक्ति रूप है ।। गणेश भगवान का शरीर स्थूल है, मुख गजेन्द्र का है और उदर विशाल है, आकृति सर्व है, जिनके गण्डस्थल से मदधरा प्रवाहित हो रही है और भ्रमरगण मंत्रलोभ से चंचल होकर गण्डस्थल में एकत्रित हो रहे हैं, जिन्होंने अपने दन्तों के आघात से शत्रुओं को विदीर्ण करके उनके रुधिर से सिन्दूर शोभा को धारण किया है और उनका स्वरूप समस्त कर्मों में सिद्धि प्रदान करने वाला है ।।

(भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व पृ. सं. ३.४६- ४७)

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