भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व

नास्तिक भी उपासना करें

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 गणना की जाय तो संसार में इस समय एक तिहाई से भी अधिक जन संख्या ऐसी होगी जो ईश्वर का अस्तित्व समझने से ही इन्कार करती हैं ।। विज्ञान कहता है कि- ''कसौटी पर वर्तमान ईश्वर का ढाँचा खरा नहीं उतरा ।। विभिन्न संम्प्रदायों, पैगम्बरों और भक्तजनों ने ईश्वर का जैसा वर्णन किया है, वह परीक्षा के समय अवास्तविक प्रामाणिक हुआ ।। ईश्वरीय चमत्कारों की अनेक गाथायें जो विभिन्न देश- जातियों में प्रचलित हैं, वे अति रन्जि, अलंकारिक एवं काल्पनिक ठहराई जा चुकी हैं ।। भजन- मगन सज्जनों का शारीरिक और मानसिक परीक्षण करने पर उनमें कोई विशेषता, महत्ता उपलब्ध नहीं हुई है ।। जिसके आधार पर भजन- मगन होने की उपयोगिता स्वीकार की जा सके ।''

वर्तमान युग के भौतिक, मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक विधान को ही ऐसी आशंका हुई हो, सो बात नहीं है ।। यह सन्देह बहुत प्राचीनकाल से विद्यमान है ।। श्रुति, शेष, शारदा, ऋषि, मुनि सब ने ईश्वर का यथासंभव वर्णन किया है पर अन्त में वे 'नेति- नेति कहकर चुप हो गये ।। इतना ही नहीं अभी और है, इस स्वीकारोक्ति का भाव यह है कि हमें उसकी पूरी जानकारी नहीं ।। हमारा जो ज्ञान है वह अधूरा है ।। मन, वाणी, बुद्धि से अतीत, अगम, अगोचर नैवेद्य बताकर शास्त्रकार अपनी मर्यादा को निष्कपट भाव से प्रकट कर देते हैं ।। प्रचण्ड तार्किक 'न्याय कुसुमान्जलि' कार ने ईश्वर का तर्कों द्वारा सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, पर उसने भी यह स्वीकार कर लिया है कि इस बहाने कुछ हरि चर्चा कर रहे हैं, ईश्वर को सिद्ध करने का हमारा दावा नहीं है ।। सांख्यकौर ने भी स्वीकार किया है- 'ईश्वरा सिद्धे' अर्थात- ईश्वर साबित नहीं हो सकता ।। देवताओं के गुरु बृहस्पति के मत से जो परिचित हैं, वे जानते हैं कि अपने युग के वे अद्वितीय विद्वान नास्तिक थे ।। चार्बिक मत उन्हीं की प्रेरणा से प्रचलित होने की चर्चा पुराणों में उपलब्ध होती है ।।

आज इस तर्क युग में जब की बुद्धिसंगत तत्वों को ही आश्रय मिल रहा है, हर पल विचारवान व्यक्ति इस सोच विचार में पड़ा हुआ है कि सचमुच ईश्वर कुछ है भी या यों ही एक हौआ बना रखा है ।। ऐसी दशा में हम किसी व्यक्ति को ''नाना वाक्यं प्रमाणम'' मानकर संतोष कर लेने के लिए नहीं कहते ।। ईश्वर है या नहीं? है तो कौन है? कहाँ है? कैसा है? इस सम्बन्ध में तर्क और प्रमाणों से परिपूर्ण चर्चा पाठक इसी पुस्तक के अन्तर्गत अगले पृष्ठों में पढ़ेंगे ।। इस समय तो हमें केवल यही बताना है कि इस पेचीदगी के होते हुए भी शास्त्रकार ईश्वर उपासना की बात करना किस प्रकार युक्तिसंगत हो सकता है?

शास्त्रकारों में ईश्वर उपासना का आदेश मनुष्य मात्र के लिए है ।। मनुष्य मात्र में अनीश्वरवादी भी आ जाते हैं, फिर सार्वभौम व्यवस्था तो वही हो सकती है जिसे दोनों पक्ष स्वीकार करें ।। इसलिए हमें, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इसकी विवेचना करनी होगी, जिसे अनीश्वरवादी भी स्वीकार करते हों ।। असल में यह आदेश उन्हीं लोगों के लिए है जो उपासना नहीं करते ।। करने वाले तो करते हैं, उसके लिए तो कहना ही कुछ नहीं है ।। 'पढ़ने जाना चाहिए' यह उपदेश उन्हीं बालकों के लिए है जो पढ़ने नहीं जाते ।। जो परिश्रम से पढ़ रहे हैं, उनके लिए तो यह शिक्षा कुछ विशेष महत्त्व नहीं रखती, क्योंकि वे तो पहले से ही उस पर अमल कर रहे हैं ।। अनीश्वरवादी को उन्हीं के दृष्टिकोण से उपासना की उपयोगिता बताना यहाँ अधिक उपयुक्त होगा ।।

ईश्वर उपासना का मानसिक विश्लेषण करते हुए मनःशास्त्र के विशेषज्ञ डॉ. एटकिम्सन से लिखा है कि ''भक्त के मन में भगवान के सम्बन्ध में अपनी मनोभूमि के अनुसार एक दिव्य कल्पना चित्र होता है, उस चित्र में तन्मय होने के प्रयत्न को उपासना कहते हैं ।। यह कल्पना चित्र हर व्यक्ति के पृथक होते हैं इसलिए श्री विवेकानन्द जी महाराज कहा करते थे कि व्यक्ति का एक अलग ईश्वर है ।। आधुनिक विद्वान देवताओं का अर्थ संत पुरुष नहीं करते ।। उनका कहना है कि पुराने समय में भारत की आबादी जब तैंतीस करोड़ थी हर व्यक्ति के मन में ईश्वर सम्बन्धी धारण एक दूसरे से कुछ न कुछ भिन्नता लिए होती थी ।। इसलिए कवि ने तैंतीस करोड़ स्वतंत्र देवताओं की बात कहकर इसी आधार पर उनका अलंकार पूर्ण विस्तृत वर्णन कर दिया था, तभी से हिन्दू जाति में तैंतीस करोड़ देवताओं की मान्यता को आश्रय मिला ।।

आइये, कुछ ईश्वर भक्तों को बुलावें और उनकी मानसिक स्थिति का जाँचे ।। एक हिन्दू को लीजिए, भारतीय वेश- भूषा में, सुसज्जित, पूर्ण स्वस्थ, सद्गुणी, दयालु, न्यायी, सर्व- शक्तिमान देवता की मूर्ति का मन ही म ध्यान करता है ।। कृष्ण, राम, विष्णु, शंकर आदि सुन्दर चित्र जो बाजार में बिकते हैं, उन्हीं से मिलती- जुलती किसी मूर्ति की रचना उसने अपने मस्तिष्क के अन्तर्गत कर रखी है ।। अब एक मुसलमान लीजिए उसके मन में खुदाबन्द करीम का ऐसा चित्र है जो चौथे आसमान में फरिश्तों के कन्धों पर रखे हुये, तख्त पर बैठा है, लम्बी सफेद दाढ़ी, सुथरा टर्की टोपी, अचकन या ऐसी ही कुछ पोशाक है, गुणों में, हिन्दू के राम के समान ये भी सर्वशक्तिमान हैं ।। एक ईसाई को लीजिए, उसका गौड़ पूरा साहब बहादुर है, रंग का गोरा चिट्ठा, कोट पतलून पहने हुए हैं इसी प्रकार हब्शियों का ईश्वर नंग- धड़ंग, काला- कलूटा, मोटे होठ वाला होगा ।। यदि बैल ईश्वर का ध्यान करता हो तो उसका ईश्वर एक अच्छे साँड़ जैसा होगा इसी प्रकार यदि अन्य पशु-पक्षी ईश्वर का ध्यान करने में समर्थ होंगे, तो वे अपनी ही विचार मर्यादा के अन्तर्गत ईश्वर की रचना करते होंगे।।

एक वैज्ञानिक इन सब मानस चित्रों की विभिन्नता पर विचार करता है, तो वह उलझ जाता है कि सब चित्र वास्तविक ईश्वर के नहीं हैं, क्योंकि सभी लोग उसे एक और सर्वव्यापक मानते हैं, तो यह आकृति भेद क्यों है? या तो सभी के ध्यान में दाढ़ी और टर्की टोपी वाला ईश्वर होना चाहिये या फिर वंशी बजाने वाला हो ।। पृथकता इस बात की घोषणा करती है कि यह रचना मानवीय कृति है ।। इसकी पुष्टि इसलिए भी हो जाती है कि गुण, कर्म, स्वभाव और विश्वास भी इन ईश्वरों के अलग- अलग पाये जाते हैं ।। खुदाबन्द करीम कुर्बानी की गायों को चट कर जाते हैं, पर भगवान कृष्ण गौ वध से अत्यन्त दुःखी और नाराज हो जायेंगे ।। हब्शी का खुदा पीली चिड़िया का अण्डा पाकर आशीर्वाद देता पर बौद्धों का उपास्य देव इसे स्वीकार नहीं करेगा ।। ईश्वरीय धर्म पुस्तकें वेद, कुरान, बाइबिल, तौरैत, धम्मपद, जिन्दाबस्ता में जो धर्मोपदेश हैं वे एक- दूसरे से बहुत अंशों में विरुद्ध पड़ते हैं ।। यह सब प्रमाण इस बात से हैं कि भक्तों का उपास्यदेव एक कल्पित प्रतिमा है, जिसका निर्माण यह अपने ज्ञान, मर्यादा आवश्यकता इच्छा और कामना के आधार पर करता है ।। हाँ, एक बात में ये सब ईश्वर समान हैं, कि वे भक्त से अधिक सशक्त हैं और उन ईश्वरों में से सब योग्यतायें मौजूद हैं, जिनकी कामना भक्त अपने लिए करता है ।।

इस मनोविश्लेषण के उपरांत यह जानना आसान हो जाता है कि यह वस्तु क्या है? बीमारी के लक्षण मालूम हो जाने पर उसके कारण का परिचय प्राप्त करना कुछ विशेष कठिन नहीं रह जाता ।। लार्ड टाटनहम का मत है कि- ''भक्त भगवान के जिस रूप का ध्यान करता है, वास्तव में वह उसका आदर्श है, मनुष्य क्या बनने का प्रयत्न कर रहा है, यह उसके उपास्यदेव की आकृति स्वभाव और शक्ति के आधार पर से जानना चाहिए, इष्टदेव से जितना अधिक प्रेम होगा, प्रगति उसी गति से होगी ।'' उनका तात्पर्य यह बताने का है कि जाने या अनजाने में जिस मूर्ति की उपासना मनुष्य करने लगता है, उसकी मानसिक चेतना उसी ढाँचे में ढलती चली जाती है ।। गीता का भी यही मत है- 'प्रेतों का भजने वाले प्रेतों को, देवताओं को भेजने वाले देवताओं को और मुझे भजने वाले मुझे प्राप्त होते हैं ।' यह कथन भी उसी भाव का द्योतक है ।।

जो व्यक्ति जिस वस्तु को प्राप्त करना चाहता है पहले उसका एक नक्शा बनाकर तैयार करता है ।। इसी नियम पर कोई बड़ी इमारत बनाते हैं तो इसका एक मॉडल बनाते हैं, व्यापारी नय व्यापार करते समय उसकी रूपरेखा बनाता है, सरकारें विधान बनाती हैं, बजट पास करती हैं, नेता योजना बनाते हैं, तब उनके अनुसार काम होता है ।। विद्यार्थी जब निश्चय कर लेता है कि मुझे वैद्य बनना है ।। तब वह आयुर्वेद की पुस्तकें लाकर पढ़ना आरंभ करता है ।। यदि वह निश्चय न करे कि मुझे क्या बनना है और यों ही आज आयुर्वेद, कल, मुनीमी, परसों, लुहारी, अगले दिन सुनारी सीखे ।। जब तो मन में आये वह करे, तो उसका प्रयत्न चला जायेगा और कुछ भी लक्ष्य प्राप्त न कर सकेगा ।। यात्री आज पूरब, कल पश्चिम, परसों दक्षिण को नहीं कदम चलता, वरन एक लक्ष्य बनाकर उसी पर कदम बढ़ाता है और निर्धारित योजना के अनुसार बढ़ता जाता है ।।

ध्यानावस्था में जिस ईश्वर का प्रेमपूर्वक ध्यान करके उसमें तन्मय होने की भावना की जाती है, उसका मनोवैज्ञानिक रहस्य यह है कि भक्त वैसा ही बनना चाहता है ।। जैसा कि भगवान की प्रतिमा उसके मस्तिष्क में है ।। श्रीकृष्णचन्द्र का हथौड़ों से गढ़ा हुआ शरीर, कामदेव को लज्जित करने वाला सौन्दर्य, कुवलियापीड, योगेश्वर पदवी का तत्त्वज्ञान, सब कुछ करने में समर्थ यही सब योग्यताएँ उस ध्यान चित्र के अंतराल में निहित होती हैं, जिसका ध्यान करने वाला भी धीरे- धीरे वैसा ही बनता है ।। गीता कहती है- ''जो जैसा चिंतन करता है, वह वैसा ही हो जाता है'' सर स्काट न कहा- यदि मुझे यह मालूम हो जाय कि अमुक व्यक्ति की भावना क्या है, तो मैं बता दूँगा कि आगे चलकर वह क्या होगा ।। भृंग के सत्संग से कीड़े का भृंग बन जाने की जो किंवदन्ती प्रचलित है, वह कहाँ तक ठीक है अभी यह नहीं जाना जा सकता, पर शत्-शत् मूर्खों से मनः शास्त्र के पण्डितों ने यह स्वीकार किया है कि जा जैसा ध्यान करता है ,, वह वैसा ही होता जाता है ।। दिव्य गुणों से सम्पन्न कृष्ण का तीव्र संवेदना के साथ ध्यान करने वालों की योग्यताएँ उसी प्रकार की बनने लगेंगी यह एक असंदिग्ध मनोवैज्ञानिक सच्चाई है, जिससे कोई इंकार नहीं कर सकता ।। ईश्वर उपासना से किसी प्रकार आश्चर्यजनक लाभ प्राप्त कर सकते हैं, इसकी चर्चा हम अगले पृष्ठों में करेंगे ।।




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