भारतीय संस्कृति यह मानती है कि मृत्यु से जीवन का अन्त नहीं होता, जीव नाना योनियों में जन्म लेता है ।। चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करने के पश्चात् जीव मनुष्य जैसे दुर्लभ शरीर को प्राप्त करता है ।। योनियों में क्रमशः विकासवाद के सिद्धांत का पालन किया जाता है ।। अर्थात् स्वेदज, उद्भिज, अण्डज, जरायुज क्रमशः एक के बाद दूसरी कक्षा की योग्यता और शक्ति बढ़ती जाती है ।। स्वेदज जीव में जितना ज्ञान और विचार है, उसकी अपेक्षा उद्भिजों की योग्यता बढ़ी हुई है ।। इसी प्रकार योग्यता बढ़ते- बढ़ते शरीरों की बनावटी में भी अन्तर होने लगता है और पूर्ण उन्नति एवं विकास होने पर मानव शरीर प्राप्त हो जाता है ।। मनुष्य योनि इस संसार की सर्वश्रेष्ठ योनि है ।। अन्ततः इसी जीव नीचे से ऊपर की ओर या तुच्छता से महानता के ओर लगातार बढ़ते चले आ रहे हैं ।। आत्मवादी तो यह मानते हैं कि आत्मा ही बढ़ते- बढ़ते परमात्मा हो जाती है ।।
इस मान्यता की धुरी नैतिकता में रखी गई है जिससे समाज तथा व्यक्ति दोनों को ही लाभ होता है ।। इस मान्यता में विश्वास करने वाला व्यक्ति यह मानता है कि 'मेरी जैसी ही आत्मा सबकी है और सबकी जैसी ही मेरी आत्मा है ।' इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि ''मेरी आत्मा की अवस्था भूतकाल में अन्य जीवों जैसी हुई है और भविष्य में भी हो सकती है ।। सभी जीव किसी न किसी समय मेरे- माता आदि सम्बंधी रहे हैं और भविष्य में भी रह सकते हैं ।''
इस प्रकार इस मान्यता से मनुष्य का सब जीवों के प्रति प्रेम और भ्रातृत्व भाव बढ़ता है । हम एक- दूसरे के समीप आते हैं इससे यह भी स्पष्ट होता है कि जीव की कोई योनि शाश्वत नहीं है ।। हिन्दू धर्म के अनुसार परलोक में अनन्तकालीन स्वर्ग या अनन्तकालीन नरक नहीं है, जीव के किसी जन्म या किन्हीं जन्मों के पुण्य या पापों में ऐसी शक्ति नहीं है कि सदा के लिए उस जीव या भाग्य निश्चित कर दे ।। वह पुरुषार्थ से सुपथगामी होकर आत्म- उन्नत अवस्था को प्राप्त कर सकता है ।।
(भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व पृ. सं. २.१)