इन्हीं मान्यताओं को अपनाये रहने वाले हमारे पूर्वज विश्व विजय कर सकने और चक्रवर्ती धर्मी साम्राज्य स्थापित कर सकने में समर्थ हुए थे ।। उनकी गौरव- गरिमा के सामने संसार के मानव- समाज ने अपना मस्तक झुकाया था और जगद्गुरु स्वीकार किया था ।। किसी समय हमारा देश प्रगति के उच्च शिख्रर पर था । यहाँ धन, बल, कौशल, शिल्प, ज्ञान- विज्ञान किसी बात की कमी न थी ।। समस्त विश्व को हमने बहुत कुछ दिया था ।। देवताओं जैसा अपना उच्चस्तर बना सकने और संसार को अपने समय भारतवासियों ने प्राप्त किया था, उसके पीछे उनकी पुरुषार्थवादी कर्मठता ही थी ।। वे जानते थे कि वे कर्मठ व्यक्ति के पीछे ईश्वर की सहायता सन्निहित रहती है ।। शुभ कर्मों के साथ तो ईश्वर का सहायता सुनिश्चित ही है ।। कहने वाले तो यहाँ तक कहते हैं कि अशुभ और अशुभ और अनुचित दिशा में पुरुषार्थ करने वाले कर्मनिष्ठ को भी ईश्वरीय सहायता मिलती है ।। डाकू और तस्कर तक अपने पुरुषार्थ के बलबूते पर एक सीमा तक आश्चर्य जनक सफलताएँ प्राप्त करते रहे हैं ।। उनके बुरे कर्म का दण्ड मिलेगा ।। यह दूसरी बात है, पर पुरुषार्थ का लाभ अपनी कतिपय सफलताओं के रूप में आये दिन प्राप्त करते रहते हैं ।। कहने का तात्पर्य इतना भर है कि पुरुषार्थ की सार्मथ्य अपरिमित है ।। ईश्वर को पुरुषार्थी ही सबसे अधिक प्रिय है ।। इसी से तो वह हर कर्मठ व्यक्ति को उसके प्रयत्न एवं श्रम के अनुरूप सफलता प्रदान करता है ।।
प्राचीन काल में यही भारतीय दर्शन था ।। यहाँ का हर व्यक्ति इसी ढंग से सोचता था और इन्हीं भावनाओं के आधार पर अपनी नस- नाड़ियों को प्रगति के लिए अपार उत्साह और अनौचित्य को हटा- मिटा डालने के लिए प्रचण्ड शौर्य भरे रहता था ।। हमारी इन्हीं आस्थाओं ने तो हम तेतीस कोटि भारतवासियों को समस्त विश्व में तैंतीस कोटी देवताओं के नाम से विख्यात कराया था और यह भारत- भूमि ''स्वर्गादपि गरीयसी'' कहकर सम्मानित की जाती थी ।।