अन्न को ब्रह्म का एक रूप कहा गया है। काया का समूचा ढाँचा प्रकारान्तर से भोजन की ही परिणति है। अन्न से प्राणी का जन्म, विकास परिपुष्टता और अन्नमय कोष बनता है। भोजन मुख में रखते ही उसका स्वादानुभव होता है और पेट में उसके सूक्ष्म गुण का अनुभव होता है। गीता में आहार के सूक्ष्म गुणों को लक्ष्य करके उसे तीन श्रेणियों में (सात्विक, राजसिक एवं तामसिक) में विभाजित किया गया है। अन्न के स्थूल भाग से शरीर के रस, रस से रक्त, रक्त से माँस, माँस से अस्थि और मज्जा, मेद, वीर्य आदि बनते हैं। इसलिए शरीर शास्त्री और मनोवैज्ञानिक इस सम्बन्ध में प्रायः एक मत हैं कि जैसा आहार होगा वैसा ही मन बनेगा। अनीति से प्राप्त धन अथवा पाप की कमाई आकर्षक तो लगती है परन्तु वही जीवन में कुसंस्कार और रोगों का कारण बनती है। हमारा आहार जिस स्रोत या साधन से हमको उपलब्ध होता है वही यदि अशुद्ध, दूषित अथवा पापयुक्त है तो उसका बुरा प्रभाव निश्चित रूप से हमारे मन और बुद्धि पर पड़ेगा। उससे छुटकारा पा सकना वैसा सहज नहीं है।