भक्त के जीवन में यह एक तत्त्व उसके भगवान् होते हैं। उसका हृदय सदा अपने
आराध्य की स्मृति से स्पन्दित होता है। अपने आराध्य के प्रति उसकी भावनाएँ
इतनी सघन होती हैं कि उसे यह अभ्यास करना नहीं पड़ता, बल्कि अपने आप बरबस
होता चलता है। ध्रुव हो या प्रह्लाद, मीरा हो या रैदास इनके मन-प्राण,
विचार- भावनाएँ सदा अपने भगवान् में रमे रहते हैं। श्री रामकृष्ण परमहंस को
माँ कहते ही भाव समाधि घेर लेती थी। सच तो यह है कि भक्तों के लिए बड़ा सहज
होता है—अपने भगवान् में रमना। वह अपने भगवान् में इतनी प्रगाढ़ता से रमता
है कि सभी अवरोध अपने आप ही विलीन होते जाते हैं। बात मीरा की करें, तो
उनके कृष्ण प्रेम की डगर सहज नहीं थी। इस डगर पर चलने वाली मीरा को राणा
जी कभी साँप का पिटारा भेजते थे, तो कभी विष का प्याला, लेकिन इन विघ्रों
से मीरा को कभी घबराहट नहीं होती। वह तो सदा यही कहती रहती- ‘मेरे तो गिरधर
गोपाल दूसरो न कोई’। सच तो यह है कि भक्त के जीवन का दर्शन ही ‘दूसरो न
कोई’ है। किसी और का चिन्तन उसे सुहाता नहीं है। तभी तो गोपियाँ ज्ञान
सिखाने आए उद्धव को समझाने लगती हैं- ‘ऊधौ मन नाहीं दस-बीस, एक हुतो सो गयो
स्याम संग को आराधै ईस’।