अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1

बिन इन्द्रिय जब अनुभूत होता है सत्य

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
        अन्तर्यात्रा विज्ञान के प्रयोग से अन्तस् में आध्यात्मिक अनुभव पल्लवित होते हैं। चित्त शुद्धि के स्तर के अनुरूप इन अनुभवों की प्रगाढ़ता, परिपक्वता एवं पूर्णता बढ़ती जाती है। सामान्य जानकारियों वाले ज्ञान से इनकी स्थिति एकदम अलग होती है। सामान्य जानकारियाँ या तो सुनने से मिलती हैं अथवा फिर बौद्धिक अनुमान से। ये कितनी भी सही हो, पर अपने अस्तित्व के लिए परायी ही होती हैं। इनके बारे में कई तरह की शंकाएँ एवं सवाल भी उठते रहते हैं। इनके बारे में एक बात और भी है, वह यह कि आज का सब कल गलत भी साबित होता रहता है। पर आध्यात्मिक अनुभवों के साथ ऐसी बात नहीं है। ये अन्तश्चेतना की सम्पूर्णता में घटित होते हैं। इनका आगमन किन्हीं ज्ञानेन्द्रियों के द्वारों से नहीं होता और न ही किन्हीं पुस्तकों में लिखे अक्षरों से इनका कोई सम्बन्ध है। ये तो अन्तर में अंकुरित होकर चेतना के कण- कण में व्याप्त हो जाते है।

        सामान्य क्रम में बुद्घि अस्थिर, भ्रमित एवं संदेहों से चंचल रहती है। इसमें होने वाले अनुभव भी इसी कारण से आधे- अधूरे और सच- झूठ का मिश्रण बने रहते हैं। ज्ञानेन्द्रियों का झरोखा भी धोखे से भरा है, जो कुछ दिख रहा है, वह सही हो यह आवश्यक तो नहीं है। जो अभी है कल नहीं भी हो सकता है। इस तरह कई अर्थों में आध्यात्मिक अनुभव अनूठे और पूरे होते हैं।

इसी सत्य को महर्षि ने अपने अगले सूत्र में कहा है-
        श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात्॥ १/४९॥

शब्दार्थ-

        श्रु्रतानुमानप्रज्ञाभ्याम्= श्रवण और अनुमान से होने वाली बुद्घि की अपेक्षा; अन्यविषया= इस बुद्घि का विषय भिन्न है; विशेषार्थत्वात्= क्योंकि यह विशेष अर्थावाली है।

भावार्थ-

        निर्विचार समाधि की अवस्था में विषय वस्तु की अनुभूति होती है, उसकी पूरी सम्पूर्णता में। क्योंकि इस अवस्था में ज्ञान प्रत्यक्ष रूप से प्राप्त होता है, इन्द्रियों को प्रयुक्त किए बिना ही।
   
        महर्षि पतंजलि के इस सूत्र में एक अपूर्व दृष्टि है। इस दृष्टि में आध्यात्मिक संपूर्णता है। जिसमें आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी स्वतः समावेशित हो जाता है। जिनकी दार्शनिक रुचियाँ गम्भीर हैं, जो आध्यात्मिक तत्त्वचर्चा में रुचि रखते हैं उन्हें यह सच भी मालूम होगा कि आध्यात्मिकता का एक अर्थ अस्तित्व की सम्पूर्णता भी है। बाकी जहाँ- कहीं जो भी है, वह सापेक्ष एवं अपूर्ण है। विज्ञान ने बीते दशकों में सामान्य सापेक्षिता सिद्धांत एवं क्वाण्टम सिद्धांत की खोज की है। ये खोजें आध्यात्मिक अनुभवों को समझने के लिए बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं। सामान्य सापेक्षिता सिद्धांत का प्रवर्तन करने वाले आइन्स्टीन का कहना है- वस्तु, व्यक्ति अथवा पदार्थ का सच उसकी देश- काल की सीमाओं से बँधा है। जो एक स्थल और एक समय सच है, वही दूसरे स्थल और समय में गलत भी हो सकता है। इस सृष्टि अथवा ब्रह्माण्ड के सभी सच इस सिद्धांत के अनुसार आधे अधूरे और काल सापेक्ष है।

        सच की सम्पूर्णता तो तभी सम्भव है, जब वह सम्पूर्ण अस्तित्व की अनन्तत्त्व के कण- कण में समाया हो। मनीषी वैज्ञानिक आइन्स्टीन के इस सिद्धांत का दूसरा पहलू क्वाण्टम सिद्धांत में हैं। इसका प्रवर्तन मैक्सप्लैंक एवं हाइज़ेनबर्ग आदि वैज्ञानिकों ने किया था। उनका कहना था कि पदार्थ का सच ज्यादा टिकाऊ नहीं है। उन्होंने बताया- पदार्थ एवं ऊर्जा निरन्तर एक- दूसरे में बदलते रहते हैं और जिस तरह से पदार्थ का सबसे छोटा कण परमाणु है, उसी तरह से ऊर्जा का सबसे छोटा पैकेट क्वाण्टम है। इस क्वाण्टा की स्थिति अनिश्चित है। इसमें वस्तु जैसा कुछ भी नहीं है। ऊपर इनमें परस्पर गहरा जुड़ाव है। यह जुड़ाव इतना अधिक है कि अभिन्न भी कहा जा सकता है।
        विज्ञान के इन दोनों सिद्धांतों ने ज्ञान- के खोजियों के सामने एक बात बड़ी साफ कर दी है कि अनुभव यदि पदार्थ के, वस्तु के ,, व्यक्ति के अथवा स्थिति के हैं और यदि इन्हें इन्द्रियों के झरोखों से पाया गया है, तो कभी सम्पूर्ण नहीं हो सकते। इतना ही नहीं, इन्हें सन्देह एवं भ्रम से परे भी नहीं कहा जा सकता। इस तरह के अनुभव में तो कई दीवारें है, अनेकों पर्दे हैं। एक दीवार इन्द्रियों की- एक पर्दा स्नायु जाल का। फिर एक दीवार मस्तिष्क की। फिर एक पर्दा विचार तंत्र का। हम ही सोच लें- कितनी अपूर्णता होगी इस अनुभव में।

        परम पूज्य गुरुदेव कहते थे कि अनुभव वह, जिसमें कोई दीवार या पर्दा न हो। अब यह क्या बात है कि आँख का देखा कुछ और, और यदि किसी सूक्ष्मदर्शी या दूरदर्शी यंत्र से देखा तो और। कानों ने एक खबर सुनायी और बुद्घि ने कुछ अनुमान सुझाए, पर अन्तःकरण अनुभव से रीता रहा। चेतना वैसी ही कोरी व सूनी बनी रही। लेकिन जिसकी प्रज्ञा ऋतम्भरा सम्पूरित हो गयी उसके साथ ऐसी कोई समस्या नहीं। निर्विकार समाधि की भाव दशा में अस्तित्व व्यापी चेतना की अनन्तता में सत्य अपने सम्पूर्ण रूप से प्रकाशित होता है। इसी अनुभव को पाकर सन्त कबीर बोल उठे- कहत कबीर मैं पूरा पाया अर्थात् मैंने पूरा पा लिया। पूर्णिमा की चाँदनी से उद्भासित हो गया अन्तःकरण।

        इस सूत्र में उलट बासी तो है, थोड़ा अटपटा सा भी है। पर है एक दम खरा। पर जो समझे उसके लिए। यहाँ तक कि वैज्ञानिकों के लिए भी यह काफी दिनों तक एक गणितीय पहेली बना रहा। हालाँकि इन दिनों उन्होंने फोटान की भाषा सीख ली है और कम्प्यूटर नेटवर्क के जरिए वे उसका इस्तेमाल करने लगे हैं। फिर भी एक पहेली तो उनके सामने बची हुई है ही कि एक साथ सब कुछ एक समय में कैसे जाना जा सकता है। फोटान की भाषा सीखने के बाद उनकी मानसिक चेतना तो सीमित ही है। यदि उनसे आत्मविकास की साधना हो सके, तो शायद जान पाएंगे कि आध्यात्मिक अनुभव में आत्मचेतना के विस्तार में सब कुछ एक साथ एक समय में जान लिया जाता है।

        योगियों को ऐसे अनुभव होते रहे हैं। स्वामी विवेकानन्द जी महाराज के जीवन का एक आध्यात्मिक प्रसंग है, उन दिनों वे अल्मोड़ा में रहकर साधना कर रहे थे। निपट एकाकी वन में एक वृक्ष के नीचे बैठे हुए थे। इन्द्रिय चेतना प्रत्याहार में विलीन हो गयी थी। निराकार सर्वव्यापी परम सत्ता की धारणा ध्यान की लय पा चुकी थी। यह ध्यान उत्तरोत्तर प्रगाढ़ होता हुआ कब समाधि के सोपान चढ़ने लगा यह काल को भी पता न चला। और उन्हें इसी मध्य एक अनुभव हुआ पिण्ड के ब्रह्माण्ड का। व्यक्ति चेतना में समष्टि चेतना का अनुभव और धीरे- धीरे यह अनुभव ब्रह्माण्ड बोध में बदल गया।

        जब उच्चस्तरीय समाधि की भाव भूमि से दैहिक चेतना में लौटे तो उन्होंने अपने गुरुभाई स्वामी तुरीयानंद से इसकी चर्चा की। बोले- हरी भाई मैं जान लिया। मुझे हो गया अनुभव अस्तित्व व्यापी चैतन्यता का। इसी को तो योगेश्वर कृष्ण कहते है, कि कोई इसे आश्चर्य से सुन कहता है और कोई इसे आश्चर्य से सुनता है और कोई विरला इस आश्चर्य को सम्पूर्ण रूप से जानता है। योगी के उल्लास में से ये सभी आश्चर्य एक साथ अंकुरित- पल्लवित होते है।
<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118