यही निर्बीजता योग साधक का अन्तिम लक्ष्य है। अन्तर्यात्रा विज्ञान अस्तित्व में क्रियाशील रहे, तो यह अध्यात्म प्रसाद मिले बिना नहीं रहता। व्यवहार में परिस्थितियों से गहरा सामञ्जस्य, शरीर की स्थिरता, प्राणों की समधुर लय अन्तर्यात्रा विज्ञान के प्रयोगों की पृष्ठभूमि तैयार करती है। मन की एकाग्र, स्थिर एवं शान्त स्थिति में पवित्र धारणाओं के पुष्प मुस्कराते हैं। और तब शुरू होता है— चित्त के संस्कारों का परिशोधन। गहरे में अनुभव करें, तो यही संस्कार बीज हमारे जीवन में प्रवृत्ति एवं परिस्थितियों की फसल रचते हैं। इसीलिए सभी अध्यात्मवेत्ता अपने मार्गों की भिन्नता के बावजूद चित्त के परिशोधन को साधना जीवन का मुख्य कर्तव्य बताते रहे हैं। चित्त को समझना एवं सँवारना ही तप है और इसकी आत्मतत्त्व में विलीनता ही योग।
अब भवचक्र की बेड़ियों को तोड़ने के विषय में महर्षि पतंजलि कहते हैं-
निर्विचारवैशारद्येऽध्यात्मप्रसादः॥ १/४७॥
शब्दार्थ-
निर्विचारवैशारद्ये= निर्विचार समाधि में विशारद होने पर (योगी को) अध्यात्मप्रसादः= अध्यात्म प्रसाद प्राप्त होता है।
भावार्थ-
समाधि की निर्विचार अवस्था की परमशुद्धता उपलब्ध होने पर प्रकट होता है- अध्यात्म प्रसाद।
महर्षि पतंजलि ने अपने सूत्रों में अध्यात्म विज्ञान के गहरे निष्कर्ष गूँथे हैं। यह निष्कर्ष भी बड़ा गहन है। इसमें निर्विचार समाधि के तत्त्व को उन्होंने प्रकट किया है। महर्षि अपने योगदर्शन में बड़ी स्पष्ट रीति से समझाते हैं कि योग की यथार्थता- सार्थकता ध्यान में फलित होती है। इसके पूर्व जो भी है- वह सब तैयारी है ध्यान की। यह ध्यान गाढ़ा हुआ तो समाधि फलती है। और समाधि को विविध अवस्थाओं में सबसे पहले आती है- संप्रज्ञात अवस्थाएँ। ये संप्रज्ञात समाधियाँ हालाँकि सबीज है, फिर भी इसमें निर्विचार का मोल है। इसमें विचारों की लहरों से चित्त मुक्त होता है। बुद्धि के भ्रम दूर होते हैं। कर्म- क्लेश भी शिथिल होते हैं। इसकी प्रगाढ़ता में चित्त स्वच्छ हो जाता है, दर्पण की भाँति। और तब इसमें झलक उठती है- आत्मा की छवि। यही तो अध्यात्म का प्रसाद है।
इस सूत्र का सार कहें या फिर योग के सभी सूत्रों का सार- महर्षि पतंजलि के प्रतिपादन की मुख्य विषय वस्तु चित्त है। चित्त की अवस्थाएँ, इसमें आने वाले उतार- चढ़ाव, इसमें जमा होने वाले कर्मबीज, इन्हीं की तो शुद्धि करनी है। व्यवहार के रूपान्तरण, परिवर्तन से करें या फिर ध्यान की तल्लीनता से कार्य एक ही है- चित्त का शोधन। इसकी अशुद्धि के यूँ तो कई रूप है, पर मूल रूप एक ही है- संस्कार बीज। इन्हीं को चित्त की गहराई में जाकर खोजना है, खोदना है, बाहर निकालना है, जलाना है और अन्ततोगत्वा इन्हें सम्पूर्णतया समाप्त करके चित्त को शुद्ध करना है।
चित्त के संस्कार अदृश्य होने पर भी बड़े बलशाली होते हैं। यूँ समझो यदि इन संस्कारों का रूप शुभ नहीं है, यदि ये अशुभ है या अन्य शब्दों में कुसंस्कार है, तो इनकी प्रक्रिया व प्रतिक्रिया जीवन में बड़े दारुण दुष्परिणाम पैदा करती है। इस प्रक्रिया के तहत ये कुसंस्कार अपने पहले चरण में चित्त के गहरे से ऊपर आकर कुप्रवृत्तियों के रूप में समस्त मनोभूमि में छा जाते हैं। यह सब निश्चित समय अथवा जीवन का निश्चित मौसम आने पर ही होता है। मनोभूमि में उदय हुई इन कुप्रवृत्तियों की सघनता अपने अनुरूप कुपरिस्थितियों को रचती है। और तब एक सुनिश्चित घड़ी में होता है—कुप्रवृत्तियों एवं कुपरिस्थितियों का मेल।
और तब शुरू होता है-कुकर्मो का सिलसिला, जो एक बाढ़ की तरह पूरी जीवन चेतना को डूबा देता है। इसके बाद जीवन की कुसंगति का दण्ड विधान क्रियाशील होता है। इस प्रक्रिया की उलट स्थिति सुसंस्कारों की है। जो आन्तरिक रूप से सत्प्रवृत्तियों एवं बाहरी तौर पर सत्परिस्थितियों के रूप में प्रकट होती है। इसके बाद प्रारम्भ होते हैं-सत्कर्म और जीवन चल पड़ता है- सदगति के राह पर। महर्षि पतंजलि कहते हैं कि आध्यात्मिक जीवन के लिए चित्त के संस्कारों से मुक्त होना ही चाहिए। इस शुद्धिकरण के लिए भी एक प्रक्रिया है और वह प्रक्रिया पवित्र भाव, पवित्र विचार, पवित्र दृश्य अथवा पवित्र व्यक्तित्व के ध्यान की।
अच्छा हो कि इसके लिए हम अपने सद्गुरु का चयन करें। गुरुदेव की छवि को अपने हृदय में प्रतिष्ठित कर उन्हें अपनी भावनाओं का, विचारों का अर्घ्य चढ़ाएँ। गुरुचरणों पर अर्पित करने के लिए आन्तरिक रूप से भाव- विचार एवं बाहरी तौर पर सभी कर्म- यही गुरु अर्चना एवं ध्यान निष्ठा का सर्वोत्तम रूप है। जब हमारे विचार का प्रत्येक स्पन्दन, भाव की प्रत्येक लहर गुरुदेव को अर्पित होगी, तो चित्त की वृत्तियाँ न केवल क्षीण होगी; बल्कि वे रूपान्तरित भी होंगी और शनैः शनैः चित्त निरुद्ध अवस्था की ओर आगे बढ़ता है। इस निरुद्ध अवस्था की अग्रगमन के क्रम में चित्त को निर्विचार अवस्था प्राप्त होती है, जबकि चित्त में किसी भी तरह की कोई लहर नहीं उठती। ऐसे में होती है, तो केवल शून्यता एवं स्वच्छता।
विचारों के सभी स्पन्दनों से रहित यह अवस्था परम निर्मल आध्यात्मिक ज्ञान को देने वाली है। इस अवस्था को पाने के लिए क्या साधना हो? इस सवाल के उत्तर में एक बड़ी मार्मिक अनुभूति हो रही है। आज से सोलह- सत्रह साल पहले जबकि गुरुदेव अपनी स्थूल देह में थे। उनके तप एवं ज्ञान की आभा उनकी वाणी एवं कार्यों से विकरित होती रहती थी। उनसे मिलने, उनके पास रहने वाले शिष्यों- स्वजनों में बड़ा ही मधुर एवं प्रगाढ़ आकर्षण था उनके प्रति। उन्हें लेकर जब तब चित्त चिन्ताकुल भी होता था। गुरुदेव के स्थूल रूप में न रहने पर क्या होगा, कैसे होगा?
शिष्य के मन में उफनते ये प्रश्र उन अन्तर्यामी सद्गुरु से छुपे न रहे। एक दिवस मध्याह्न में उन्होंने शिष्य की इस चिन्ता को भाँप लिया और लगभग हँसते हुए बोले- पहली बात तो यह जान ले बेटा! कि मैं देह नहीं हूँ। यह सच है कि देह अभी है, अभी नहीं रहेगी। अभी तू देह की उपस्थिति के साथ जीता है, फिर तुम्हें देह की अनुपस्थिति के साथ जीना पड़ेगा। उक्त शिष्य ने बड़े सहमते मन से कहा- हे गुरुदेव आपकी यह उपस्थिति ही तो मेरे ध्यान का विषय है। गुरुदेव बोले, हाँ सो तो ठीक है। अभी मेरी उपस्थिति तुम्हारे ध्यान का विषय है। बाद में जब न रहूँ, तो मेरी अनुपस्थिति को अपने ध्यान का विषय बनाना। गुरुदेव का यह कथन सुनने वाले शिष्य की चेतना में व्यापक गया। गुरुदेव का भाव नहीं, विचार नहीं, छवि नहीं, वरन् उनकी अनुपस्थित ही ध्यान का विषय। शिष्य के चिन्तन की इस कड़ियों को जोड़ते हुए वे कह रहे थे- मेरी अनुपस्थिति का ध्यान तुम्हें अध्यात्म का प्रसाद देगा। और सचमुच ही- अनुपस्थिति के इस ध्यान से निर्विकार की स्वाभाविक दशा मिलती है और तब अध्यात्म प्रसाद में कोई सन्देह नहीं रहता है। यह प्रसाद साधक में निर्मल बुद्धि का अवदान भरता है।