अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान -1

सत्य का साक्षात्कार है निर्वितर्क समाधि

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        अन्तर्यात्रा के विज्ञान का सार- परिष्कार है। परिष्कार की साधना के सघन एवं गहन होने से अन्तर्यात्रा का पथ प्रशस्त होता है। इसके वैज्ञानिक प्रयोगों में सुगमता आती है। साधकों एवं सामान्य जनों में योग साधना के जटिल एवं दुरूह होने की बात कही- सुनी जाती है। यह सच तो है किन्तु आधा- पूरा सच यह है कि योग साधना में विघ्न एवं अवरोध वहाँ आते हैं, जहाँ परिष्कार- परिशोधन की उपेक्षा- अवहेलना की जाती है। जो अपनी अन्तरसत्ता के परिष्कार में तत्पर हैं, उनके लिए अन्तर्यात्रा का यह पथ सुगम- सरल एवं आनन्ददायक है। उनकी साधना के अनुरूप यह आनन्द तीव्र होता जाता है, प्रवृत्तियाँ प्रकाशित होती जाती है और बोध के स्वर फूटने लगते हैं। क्रमिक रूप से विकल्पों एवं वितर्कों में क्षीणता आने लगती है।

सवितर्क से ही निर्वितर्क समाधि की राह खुलती है। इस परिशुद्ध स्थिति के बारे में महर्षि कहते हैं-
        स्मृतिपरिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का॥१/४३॥

शब्दार्थ-

        स्मृतिपरिशुद्धौ = (शब्द एवं प्रतीति की) स्मृति के भलीभाँति लुप्त हो जाने पर; स्वरूपशून्या = अपने स्वरूप से शून्य रुई के; इव = सदृश; अर्थमात्र निर्भासा = केवल ध्येय मात्र के स्वरूप को प्रत्यक्ष करने वाली (चित्त की स्थिति ही), निर्वितर्का = निर्वितर्क समाधि है।

भावार्थ-
        जब स्मृति परिशुद्ध होती है और मन किसी अवरोध के बिना वस्तुओं की यथार्थता देख सकता है, तब निर्वितर्क समाधि फलित होती है।

        महर्षि पतंजलि ने अपने इस सूत्र में निर्वितर्क समाधि के लिए बड़ा सहज राजमार्ग सुझाया है। यह राजमार्ग है- स्मृति के परिशोधन का। इसे प्रकारान्तर से स्मृतिलय या मनोलय भी कह सकते हैं। अभी हम जो कुछ भी हैं, हमारा व्यक्तित्व, हमारी स्थिति स्मृति के कारण है। सार रूप में यह यादों से बने और यादों से घिरे हैं। हमारे कल के अनुभवों ने हमें कुछ यादें दी हैं, कल होने वाले अनुभव भी हमें कुछ यादें देंगे। इन यादों के कई रंग एवं कई रूप हैं। इन्हीं सबसे हमारे व्यक्तित्व की परतें सजी हैं। हमारे व्यक्तित्व का बहुआयामी रूप इन्हीं के कारण हैं।

        युगऋषि परम पूज्य गुरुदेव कहते थे कि स्मृति के दोहरे अर्थ हैं। एक अर्थ- सामान्य, साधारण है और एक है— विशिष्ट, आध्यात्मिक। सामान्य साधारण अर्थ में स्मृति हमारा पिछला कल है, आज का वर्तमान है। लेकिन इसका दायरा हमारे वर्तमान जीवन तक सीमित है। आज के रिश्ते- नाते, इनकी खटास- मिठास, बीता हुआ बचपन, कहीं खो चुकी या खो रही किशोरावस्था, स्मृतियों के पिटारे में ही तो कैद है। अगर किसी तरह इसका लोप हो जाय, तो प्रकारान्तर से हम ही लुप्त हो जायेंगे।
        स्मृति के इस सिलसिले से परे इनका एक आध्यात्मिक पहलू है। जिसमें हमारा सम्पूर्ण अतीत बँधा है। इसमें पिरोये हैं— हमारे अनगिनत जन्म, हमारे सभी कर्मबीज। हमारे आग्रह, हमारी मान्यताएँ, हमारी सोच, हमारा दृष्टिकोण। योग साधना में इसी का शोधन करना है। इस तथ्य को पतंजलि स्मृति शुद्धि कहते हैं। इसे ही आचार्य शंकर ने चित्तशुद्धि कहा है। स्मृति का यह जमावड़ा- जखीरा वस्तुतः हम पर बोझ है। इसे हल्का करने की जरूरत है। स्मृति की यह अशुद्धि ही प्रकारान्तर से हमारे जीवन की विकृति है। इसे धोये बिना, इसे जलाये- गलाये बिना आध्यात्मिक पथ प्रशस्त नहीं होता।

        स्मृति परिशुद्धि या चित्तशुद्धि की यह यात्रा बड़ी दुःखदायी है। यह धधकती आग का वह दरिया है, जिसे प्रत्येक साधक को पार करना पड़ता है। यही यथार्थ साधना है, सच यह भी है कि इसी में सभी साधनाओं की सार्थकता है। इसके अभाव में सभी साधनाएँ निरर्थक हैं। इसे किये बिना जप, मंत्र, योग, तप किसी का कोई मूल्य नहीं है। योग और तंत्र में कई बार कई चमत्कारी संतों की कथाएँ कहीं सुनी जाती हैं। परन्तु इनमें से किसी भी चमत्कार से चित्तशुद्ध नहीं होता। यह ऐसा चमत्कार है, जिसे योग साधक को स्वयं करना पड़ता है।

        कैसे करें स्मृति परिशोधन अथवा चित्तशुद्धि? क्या विधान है इसका? यह प्रश्र सभी साधकों का है। युगऋषि गुरुदेव के शब्दों में इसका उत्तर है- अपार धैर्य के साथ निष्काम कर्म। इसी के साथ अनवरत निष्काम एवं सतत तप। यही मार्ग है। एक सम्पूर्ण जीवन को लगाये- खपाये बगैर किसी के द्वारा यह साधना सम्भव नहीं। जो इसके विपरीत किसी अन्य विधि से निर्वितर्क की यात्रा करना चाहते हैं, वे केवल दिवास्वप्न देखते हैं। विश्व ब्रह्माण्ड में ऐसी कोई भी शक्ति नहीं, जो निष्काम कर्म एवं तप के बिना इस मंजिल तक पहुँचा दे।

        यहाँ तक कि समर्थ गुरु एवं इष्ट- आराध्य भी अपने शिष्य- सेवक को इसी मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित- प्रवर्तित करते हैं। थकने पर उसे हिम्मत देते हैं, गिरने पर उसे उठाते हैं, हताश होने पर साहस देते हैं। इस सबके बावजूद चलना तो स्वयं को ही पड़ता है। अपने सिवा और कोई नहीं चलता। यह ऐसी सच्चाई है, जिसे वही जानते हैं, जो जीते हैं। चित्त का एक- एक संस्कार, एक- एक कर्मबीज अपने भोग पूरे करवाने में कभी- कभी तो वर्षों ले लेता है। कई बार तो इस पथ पर बड़ी नारकीय यातनाएँ एवं दारुण परिस्थितियाँ सहन करनी पड़ती है। पर करें भी तो क्या? अन्य कोई चारा भी तो नहीं।

        इस पूरी प्रक्रिया में जन्म- जन्मान्तर के कुसंस्कारों की कालिख रह- रह कर बाहर फूटती है। कठिन- कठोर तप से उसका प्रशमन होता है। गुरुकृपा के झूठे मद में फूले हुए लोग जो इस दौरान तप से मुँह मोड़ते हैं, वे कुसंस्कारों की देन को सम्भालने में नाकाम रहते हैं। दूषित चरित्र ही ऐसों की नियति होती है। ये हतभागी जन अपने जन्मों से कमायी गयी प्राण ऊर्जा को वासनाओं के खेल में खर्च करते हैं। इसलिए निष्काम कर्म एवं तप ही सत्य की ओर बढ़ने का राजमार्ग है। जो इस सत्य को जीते हैं, वे अपने गुरु की कृपा एवं आराध्य के अनुदानों का सच्चा लाभ उठाते हैं। उन्हीं को समाधि की उच्चतर अवस्थाओं को पाने का सौभाग्य मिलता है।
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