अमृत वचन जीवन के सिद्ध सूत्र

समयदान का महत्त्व

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यह ऐसा समय है कि जिसमें किसी आदमी को किसी आदमी पर विश्वास रह नहीं गया है। आतंक का वातावरण चारों ओर घिरा हुआ पड़ा है। सड़क पर आप निकलते हैं, मालूम नहीं आपके साथ में, पड़ोस में चलने वाला जो व्यक्ति है, चाकू आपको भोंक करके और आपकी घड़ी नहीं छीन ले जायेगा, इसका क्या विश्वास है? इंसान का चाल- चलन, इंसान का विचार इतना गंदा और इतना घटिया हो गया है, कि अगर स्थिति यही बनी रहेगी तो कोई किसी पर विश्वास नहीं करेगा। न भाई, भाई पर विश्वास करेगा; न स्त्री, पुरुष पर विश्वास करेगी; न पुरुष, स्त्री पर विश्वास करेगा; न बाप, बेटे पर विश्वास करेगा; न बेटा, बाप पर विश्वास करेगा; ऐसा गंदा, ऐसा घटिया, ऐसा वाहियात समय है ये और ये इसलिये भी घटिया, वाहियात समय है कि नेचर, हमसे नाराज हो गई है, प्रकृति हमसे नाराज हो गई है। पानी बरसाने में कहीं उसकी मौज आती है तो अंधा- धुंध बरसा देती है। कहीं उसकी मौज आती है, तो चाहे जितना सूखा- सूखा पड़ता हुआ चला जाता है। कहीं मौसम का ठिकाना नहीं, मौसम पे पानी बरसेगा कि नहीं, कोई नहीं कह सकता और ठण्ड के समय में ठण्ड पड़ेगी, गर्मी के समय में गर्मी पड़ेगी, कोई नहीं कह सकता। भूकम्प कब आ जायेंगे? कोई नहीं  कह सकता। ज्वालामुखी कब फटने लगेंगे? कोई नहीं कह सकता; बाढ़ कब आ जायेगी? इसका कोई ठिकाना नहीं है। नेचर हमसे बिलकुल नाराज हो गई है इसलिये उसने अपना ठीक तरीके से काम करना बंद कर दिया है। 

         ये ऐसा भयंकर समय है, ऐसे भयंकर समय में क्या आपके लिये कोई जिम्मेदारियाँ नहीं हैं? क्या आपके लिये कोई कर्तव्य नहीं हैं? क्या आपके अंदर भावनाएँ नहीं हैं? क्या आप भावना शून्य हो गये हैं? क्या आपका हृदय पत्थर का और लोहे का हो गया है? नहीं, मेरा ख्याल है कि सब आदमियों का ऐसा नहीं हुआ होगा। ज्यादातर लोगों का तो ऐसा ही हो गया है कि ये घटते- घटते जानवर के तरीके से बनते जाते हैं। हमें आपसे यही उम्मीद है कि ऐसे भयंकर समय में आप अपना सारा वक्त केवल पेट पालने के लिये और संतान पैदा करने के लिये खर्च नहीं करेंगे। 

         अगर आप चाहें तो आप ढेरों समय बचा सकते हैं। एक आदमी के लिये 8 घण्टा काम करने के लिये काफी होना चाहिए, जिसमें कि अपने और अपने बच्चों का गुजारा मजे में कर ले। और 7 घण्टे एक आदमी को विश्राम करने के लिये पर्याप्त होने चाहिए और पाँच घण्टे घरेलू काम- काज के लिये पर्याप्त होने चाहिए। 

          इस तरीके से आप 20 घण्टे में अपने शरीर का और अपने कुटुम्ब का गुजारा कर सकते हैं। चार घण्टे तो आप बड़ी आसानी से निकाल सकते हैं। ये आपकी इच्छा के ऊपर है कि आप अपने उस समय को आलस्य में, प्रमाद में, आवारागर्दी में किसी तरह से खर्च कर डालें, ये आपकी मर्जी है। कौन रोकता है आपको? लेकिन अगर आप चाहें तो समाज के लिये, गिरी हुई परिस्थितियों का मुकाबला करने के लिये, समय को ऊँचा उठाने के लिये, इंसान का भाग्य और भविष्य शानदार बनाने के लिये आप कुछ कर सकते हैं, करना ही चाहिए आपको। इसमें तो नुकसान पड़ेगा हमारा? नहीं, मैं आपको यकीन दिलाता हूँ कि नुकसान नहीं पड़ेगा। जिन्होंने लोकसेवा का काम किया है, अपने समय को लोकसेवा में लगाया है, वो चाहे गाँधी जी रहे हों, जवाहरलाल नेहरू रहे हों, विनोबा भावे रहे हों या कोई भी क्यों न रहे हों, स्वामी विवेकानन्द रहे हों, लेकिन जिन लोगों ने अपने समय को समाज के लिये खर्च किया है, वे किसी तरीके से नुकसान में नहीं रहे हैं, वो ऊँचे उठे हैं, आगे बढ़े हैं और हजारों आदमियों को ऊँचा उठाया है और आगे बढ़ाया है और स्वयं भी नफे में रहे हैं। स्वयं नुकसान में रहे? क्या नुकसान में रहे? आप बताइये न। किसी एक का नाम बताइए। गाँधी जी ने वकालत की होती तो वकालत में कितना कमा लेते? लेकिन जब उन्होंने अपना समय सेवा में लगा दिया। सेवा के कार्यों में अपना खर्च करने लगे तो आप बताइये क्या कमी रह गई उनके पास? किसी चीज की कमी नहीं थी। गाँधी जी बड़े शानदार आदमी थे और शानदार आदमी सिर्फ इसलिये हुए कि उन्होंने अपने समय को पेट और सन्तान, पेट और सन्तान, जानवर के तरीके से खर्च नहीं किया, बल्कि इन्सान के तरीके से खर्च किया है। 

         ये समय ठीक ऐसा ही है। इस समय में मेरी आप लोगों में से प्रत्येक से प्रार्थना है कि आप समय का थोड़ा- सा अंश निकाल दें। हमने कितनी बार कहा और कितनी बार छापा है कि आप समयदान कीजिए, समयदान कीजिए। आपने सूर्य- ग्रहण और चन्द्र- ग्रहण के समय पर देखा है। चिल्लाते हैं, चन्द्रमा पर ग्रहण पड़ा हुआ है- दान कीजिए, दान कीजिए। इस समय में हमारी भी एक ही पुकार है, समय की भी एक ही पुकार है, महाकाल की भी एक ही पुकार है कि आप समय दीजिए, समय खर्च कीजिए। किस काम के लिये खर्च करना चाहिए? आपको इस काम के लिये खर्च करना चाहिए कि लोगों के दिमाग और लोगों के विचारों को आप ठीक कर सकें। अगर विचारशीलता और दूरदर्शिता, विवेकशीलता लोगों के अन्दर आई होती, तो दुनिया खुशहाल रही होती। इन्सान, इन्सान नहीं रहा होता, देवता हो गया होता और जमीन का वातावरण स्वर्ग जैसा हो गया होता; पर विचारशीलता कहाँ है, समझदारी कहाँ है? हमको समझदारी आदमी के अन्दर बढ़ानी चाहिए। अगर समझदारी बढ़ेगी, तो आदमी के अन्दर ईमानदारी बढ़ेगी। ईमानदारी बढ़ेगी तो आदमी के अन्दर जिम्मेदारी बढ़ेगी। जिम्मेदारी बढ़ेगी तो आदमी के अन्दर बहादुरी बढ़ेगी। चारों ही चीजें एक साथ जुड़ी हुई हैं। इसलिये समझदारी इसका मूल है और ईमानदारी, जिम्मेदारी और बहादुरी ये इसके पत्ते हैं, डालियाँ हैं, फल और फूल हैं। इसलिये हमको समझदारी बढ़ाने के लिये लोगों की, जी और जान से कोशिश करनी चाहिए। 

          आप लोगों से भी मेरी यही प्रार्थना है कि लोगों की समझदारी बढ़ाने के लिये अपने समय का जितना अंश आप लगा सकते हों, उतना अंश लगायें। 

आज की बात समाप्त। 

॥ॐ शान्तिः॥ 
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