विशिष्ट व्यक्तियों के, जीवन क्रम से जुड़े,
घटना क्रम को , जानने की जिज्ञासा,
हर किसी को, कौतूहल वश होती ही है।
शायद कहीं कोई
अपने काम की बात मिल जाये।
उनके अपने अनुभवों से,
कोई दिशा- प्रेरणा मिल जाये।
इसी कड़ी में,
इस युग के मार्ग दर्शक
पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य,
ब्रह्मर्षि, वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी,
लोकनायक जन- जन को प्रिय,
सत्प्रवृत्ति संवर्धक, दुष्प्रवृत्ति उन्मूलक।
राष्ट्र के पुरोहित, राष्ट्र जागरण कर्ता,
अधिकारों के साथ, कर्त्तव्यों के प्रति सजगकर्ता।
केवल कथनी से नहीं, करनी से एक,
निज के प्रत्यक्ष उदाहरणों द्वारा,
सतयुग लाने के संकल्पकर्ता।
तप्त मानस के सुखदाता,
हर मानव के भाग्य विधाता,
ऐसे जीवट व्यक्तित्व की जीवनी की,
जानकारी के लिये, कौन उतावला नहीं होगा?
अच्छा तो जानिए-
पन्द्रह वर्ष की आयु में, पूजा की कोठरी में,
लिये संकल्प को, जनहित तपस्या को
ऋषियों के सहयोग से, पूर्ण मनोयोग से,
एक- एक कर, साकार करते चले गये,
नया इतिहास रचते चले गये,
जो सबके सामने प्रत्यक्ष है।
बीच- बीच में, अनेक प्रश्र आते रहे,
लोग जानने की जिज्ञासा व्यक्त करते रहे,
साठ वर्ष की आयु तक टालते रहे।
अन्त में अपनी जीवनी भी,
लोक हित में अनिवार्य मान,
प्रेरणा देने के उद्देश्य से
एक केवल एक पुस्तिका लिखी,
‘‘हमारी वसीयत एवं विरासत।
अपना सब कुछ, अपने बच्चों के नाम कर,
वे जेसे हल्के हो गये।
किन्तु उनके कर्तृत्व एवं उनकी वाणी,
का समन्दर आज भी अथाह है।
उनने चाहा - उनके बच्चे,
उनके जीवन से कुछ सीखें,
कुछ खोंजे, कुछ सोचें,
कुछ तपे, कुछ पाये,
और कुछ बनें।
जिन्हें भी उनके जीवन से प्रेरणा चाहिए,
उनके पग उसी रास्ते पर,
बढने ही चाहिए,
भले ही वह, अणुव्रत ही क्यों न हो?
आइए,
उनकी लेखनी, उनकी जीवनी,
उनकी वाणी पढें।
अणुव्रत, उनका प्रिय व्रत,
उसका ही अनुगमन करें।
इसी संकल्पबद्ध मनःस्थिति से,
उनके विचारों को, स्वयं पढ़ने,
दूसरों को पढ़ाने, क्रियान्वित करने,
दूसरों को कराने का मानस बनाकर,
उनकी गाथा हृदयंगम करें।
उनकी अमूल्य धरोहर,
सार्थक करें, जीवन में उतारें,
लोकहित में खपें, कठिनाइयों में तपें,
उस तपन के बाद भी,
दैवी अनुग्रह मिले न मिले,
आत्म संतुष्टि का आनंद लें।
(शान्तिकुञ्ज, हरिद्वार)