यह मई १९७०
की बात है। मैं अपने छोटे भाई महावीर सिंह के साथ चार दिन के
शिविर में मथुरा गया हुआ था। उस दौरान गुरुदेव ने मुझसे कहा
कि तेरी कोई पीड़ा हो तो मुझे बतला। मैंने कहा- गुरुदेव मेरा एक
छोटा भाई है। उसके हाथ पैर में जान नहीं है। हिलते डुलते
भी नहीं है। पूज्यवर ने कहा- बेटा वह उसके पिछले जन्म का
प्रारब्ध है। जिसका परिणाम भुगत रहा है। मैंने कहा- गुरुदेव अगर वह
अच्छा नहीं हो सकता है तो ऐसी कृपा करें कि वह मर जाय। हम
लोगों से उसका कष्ट देखा नहीं जाता। गुरुदेव बोले- मैं तो
ब्राह्मण हूँ, किसी को मार कैसे सकता हूँ!
फिर कुछ सोचते हुए धीरे से बोले- जब मनुष्य किसी को जिन्दा
नहीं कर सकता तो मारने का अधिकार उसे कैसे मिल सकता है? मैंने
कहा- कम से कम चलने फिरने लग जाय.....।
गुरुदेव कुछ देर मौन हो गए। उसके पश्चात् बोले बेटा गायत्री
माता से कहूँगा, वह ठीक हो जाएगा। भस्मी ले जा, भस्मी से उसकी
मालिश करना और मेरा काम करना।
मैंने भस्मी ले जाकर अपनी माँ को दी और बताया कि गुरुदेव की कृपा से भैय्या
ठीक हो जाएगा। इस बात पर ज्यादा विश्वास किसी को नहीं हुआ।
मेरे पिताजी को तो बिल्कुल विश्वास नहीं था। उन्होंने कहा- अगर यह
लड़का ठीक हो जाएगा तो हम गुरुजी की शक्ति को मानेंगे। आसपास
के लोगों में यह बात फैल गई थी। सभी लोग उसको देखने आते। डॉक्टर
लोग भी बच्चे की स्थिति जानने के लिए आते। मेरी माँ ने भस्म
को भाई के अविकसित हाथ पैर में रोजाना लगाना शुरु किया और महामृत्युंजय मंत्र का जप उसने निमित्त शुरू किया। थोड़े ही दिनों में उसके मसल्स बनने लगे।
इस तरह देखते- देखते करीब चार महीने बीत गए। लोगों की उत्सुकता
बढ़ रही थी। हाथ पैरों में धीरे- धीरे जान आने लगी। धीरे- धीरे
वह चारपाई पकड़कर उठने- बैठने लगा और कुछ ही महीनों में वह एकदम
सामान्य बच्चे की तरह हो गया। किसी को विश्वास नहीं होता था कि
यह वही बच्चा है। हम लोगों की खुशी का ठिकाना न रहा। पिताजी
गाँव भर घूमते, लोगों को बताते कि गुरुदेव ने मेरे बच्चे को हाथ
पैर दे दिए हैं। उन दिनों गायत्री यज्ञ के लिए कोई तैयार नहीं
होता था, पर इस घटना ने हमें यज्ञ करने हेतु बाध्य कर दिया। ठाठरिया (चूरू) राजस्थान में ६ से ९ मई १९७२
तक एक विशाल यज्ञ का निर्धारण किया गया। उस यज्ञ में दूर- दूर
से लोग आए। जो भी आता वह व्यक्ति पूज्यवर की सिद्धियों से अधिक
गायत्री यज्ञ के तत्वदर्शन से प्रभावित होता। हजारों लोग दीक्षा लेकर गए। हजारों का साहित्य बिका। उस क्षेत्र में करीब पचास शाखाएँ खुल गईं।
इस घटना के बाद मेरा पूरा परिवार गुरुदेव से गहराई से जुड़ गया। मैंने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर २२ अगस्त १९९८ को स्थायी रूप से सेवा दे दी। तब से उनके चरणों में रहकर उन्हीं का कार्य कर रहा हूँ।
प्रस्तुति :- रामसिंह राठौर -शान्तिकुञ्ज (उत्तराखण्ड)