अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य -1

पूरा हुआ शक्तिपीठ की स्थापना का संकल्प

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        पहले मैं विभिन्न आध्यात्मिक विचारों में मत भिन्नता के कारण समझ नहीं पाता था कि किसे सही माना जाए। चमत्कारों की कहानियाँ अलग दुविधा में डालतीं, वैज्ञानिक दृष्टिकोण कहता, ऐसा कैसे संभव है।

        द्विविधा से घिरा अंतर्मन किसी गहरे में ऐसा कोई विश्वसनीय आधार खोज रहा था, जिसका आलम्बन लेकर आध्यात्मिक मार्ग पर आगे बढ़ा जा सके। ऐसे में जब अखण्ड ज्योति पत्रिका में वैज्ञानिक अध्यात्म की विलक्षण व्याख्या मिली तो मैं सहज ही आकृष्ट होता चला गया।

        पहली बार ९ दिनों का सत्र करने शांतिकुंज पहुँचा तो ऐसा प्रभावित हुआ कि जीवन दिशा ही पलट गई। फिर तो मैं गुरुदेव का ऐसा भक्त हो गया, लगता कि अपना सब कुछ उनको दे डालूँ, तो भी कम ही है। गुरुदेव को आज तक कितने ही रूपों में देखा- सभी अविस्मरणीय, सभी प्रेरक।

        बात उन दिनों की है, जब पटना में शक्तिपीठ बनाने की तैयारियाँ चल रही थीं। संकल्प लिया जाना था। मथुरा से आदरणीय लीलापत शर्मा जी का लिखा हुआ पत्र देकर चितरंजन जी को हरिद्वार भेजा गया।

        वे शान्तिकुञ्ज पहुँचकर गुरुदेव से मिले। संकल्प की बात सुनते ही गुरुदेव आग बबूला हो उठे। उन्होंने डाटकर कहा- किसने भेजा? डरते हुए चित्तरंजन जी ने मथुरा से लाया हुआ पत्र दिखाया। गुरुदेव उसी तरह फिर बोले- लीलापत कौन है? भाग जा। शक्तिपीठ क्या उसके बाप का है?

        उसने लौटकर सारी घटना बताई। मैंने सोचा, मैं ही जाकर देखूँ, हो सकता है उस समय कुछ वैसा कारण हो गया हो। इस बार मैं स्वयं शान्तिकुञ्ज पहुँचा। सबसे पहले जाकर आद. वीरेश्वर उपाध्याय जी से मिला। उनसे सब बातें बताई और आग्रह किया कि संकल्प के लिए समय निर्धारित कराएँ।

        उन्होंने गुरुदेव से भेंट कर संकल्प का समय ले लिया। अगले ही दिन का समय मिला था। सुबह- सुबह तैयार होकर मैं गया। लेकिन गुरुदेव ने मेरी तरफ देखा तक नहीं। मेरे साथ उपाध्याय जी भी थे। मैंने उनकी तरफ देखा। वे भी हैरान थे। काफी समय बीत गया, तो उन्होंने गुरुदेव का ध्यान आकृष्ट कराया- ये संकल्प के लिए आए हैं। गुरुजी ने बिना मेरी ओर देखे ही दो- टूक जवाब दिया- संकल्प नहीं होगा। इतना कहकर वे मौन हो गए।

        असमंजस की मनःस्थिति में वापस लौटा। मैंने उपाध्याय जी से पूछा- कैसा टाइम लिया था आपने? वे कहते तो क्या कहते। वे खुद ही हैरत में थे।

        मैं समझ नहीं पा रहा था कि अब आगे क्या करूँ। लौट जाऊँ या एक बार फिर प्रयास करके देखूँ। अगर बिना संकल्प किए लौटना पड़ा, तो लौटकर लोगों को क्या जवाब दूँगा? सच- सच बता भी दूँ, तो जब संकल्प के लिए मना करने का कारण पूछा जाएगा तो क्या कहूँगा? लोग तो यही सोचेंगे कि मेरी ही तरफ से कोई लापरवाही बरती गई होगी।

        पूज्य गुरुदेव द्वारा शक्तिपीठ स्थापना के लिए इस कठोरता से मना करने के कारणों तक पहुँचने के लिए मैं बेचैन हो उठा। शुरू से आखिर तक के सभी प्रयासों की समीक्षा की, फिर आत्मविश्लेषण की दृष्टि से अपने आपको टटोला कि शायद मुझ में ही संकल्प की पात्रता न हो, जिसके कारण कार्य में बाधा आ रही हो।

        गुरुदेव के क्रोध का कारण मैं हो सकता हूँ। यह सोचकर मेरा अन्तर्मन विचलित हो उठा। मन ही मन उनसे अनुनय विनय करने लगा कि कोई गलती हुई हो तो बता दीजिए। मुझे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है। मुझे बहुत दुःखी देखकर उपाध्याय जी ने समझाया- निराश मत होइए। अभी संकल्प का समय नहीं आया है, बाद में देखा जाएगा। अगले दिन मैं उदास मन से वापस पटना लौट आया।

        करीब डेढ़ महीने बाद माताजी की बात से पूज्य गुरुदेव द्वारा संकल्प को कठोरतापूर्वक रोके जाने का रहस्य खुला। मेरे वापस जाने के बाद गुरुदेव ने कहा था कि उस समय संकल्प लेने से मेरे जीवन पर और शक्तिपीठ पर खतरा आ जाता।

        मैं समझता हूँ, उस समय विरोध भाव रखने वाले कुछ व्यक्ति स्थानीय स्तर पर इतने अधिक प्रभावशाली थे कि भिड़ने की स्थिति भी बन सकती थी। आधिभौतिक दृष्टि से तो मैं इतना ही देख सका। इसके अलावा जो आधिदैविक और आध्यात्मिक अड़चनें रही होंगी, उनको तो गुरुदेव ही जानें।

प्रस्तुति ; मधेश्वर प्रसाद सिंह
आई.ए.एस से.नि. पटना (बिहार)

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