वर्ष १९६३ की घटना है। अचानक ही मेरी आँखें दुखने लग गई थीं। शुरू में मैंने इस पर कोई खास ध्यान नहीं दिया। अध्ययन- अध्यापन से जुड़े होने के कारण मेरी आँखों की परेशानी दिन ब दिन कम होती चली गई। पढ़ना शुरू करते ही आँखों में जलन सी महसूस होती और पानी गिरने लगता था। इसी कारण हमेशा सिरदर्द भी बना रहता था।
आखिरकार मैंने स्थानीय डॉक्टर से आँखों की जाँच कराई। डाक्टर ने बताया कि आँखों से ज्यादा काम लेने के कारण ही ऐसी स्थिति बनी है। आँखों को अधिक से अधिक आराम देने की सलाह के साथ उन्होंने कुछ दवायें लिख दीं। लेकिन उन दवाओं से कुछ लाभ नहीं हुआ। धीरे- धीरे देखने में भी दिक्कत महसूस होने लगी। तब जाकर मैं अलीगढ़ आई हॉस्पिटल पहुँचा। वहाँ आधुनिकतम मशीनों से कई प्रकार की जाँच की गई। जाँच की रिपोर्ट देखकर मुझे तुरंत हॉस्पीटल में भर्ती कर लिया गया। लगातार इलाज चलता रहा।
महीनों अस्पताल में भर्ती रहना पड़ा, लेकिन रोग था कि ठीक होने का नाम ही नहीं लेता। धीरे- धीरे एक आँख की रोशनी समाप्त सी हो चली। इलाज करने वाले डाक्टर भी हिम्मत हार चुके थे। जाँच की प्रक्रिया फिर से शुरू हुई। एक दिन नेत्र विभाग के मुख्य चिकित्सक प्रो. बी. आर. शुक्ला ने कहा कि वैसे तो हम अपनी पूरी कोशिश कर रहे हैं, लेकिन रिपोर्ट कहती है कि आपकी दूसरी आँख भी खराब हो सकती है। उनके ये शब्द सुनकर मुझे काठ मार गया। बहुत कुछ कहना चाहकर भी मैं कुछ बोल नहीं सका। डॉ. शुक्ला मेरा कन्धा थपथपाते हुए आगे बढ़ गए।
मैं अन्दर ही अन्दर इस चिन्ता से घुला जा रहा था कि अगर मैं अन्धा हो गया तो मेरा शेष जीवन कैसे बीतेगा, मेरे परिवार का भरण- पोषण कौन करेगा। तभी मुझे पता चला कि आचार्यश्री उज्जैन आए हुए हैं। मैं तुरंत उनके दर्शन करने चल पड़ा। उनके सामने पहुँचा, तो उन्हें प्रणाम करके मैंने अपनी व्यथा सुनाई। सारा वृत्तांत सुनकर गुरुदेव ने मेरी ओर गहरी नजर से देखा और कहा- तेरा डॉक्टर क्या कहता है, यह मैं नहीं जानता। पर मैं कहता हूँ कि तेरी दूसरी आँख खराब नहीं हो सकती।
पूज्य गुरुदेव के इस आश्वासन से मेरी आँखें डबडबा गईं। मैंने उन्हें डॉक्टर का पर्चा दिखाया। दवाएँ भी हाथ में ही लिए था। मैंने कहा- गुरुदेव, ये सब.....। गुरुदेव ने मेरा आशय समझकर कहा- तेरी मरजी। रखे रख, फेंके फेंक दे। उनकी बातों पर विश्वास न करने का कोई प्रश्र ही नहीं था। मैंने उसी वक्त डॉक्टर का पर्चा फाड़कर फेंक दिया।
तब से लेकर आज तक मैंने कोई दवा नहीं खाई। आज भी मेरी आँख की रोशनी बनी हुई है। आश्चर्य तो यह है कि युगऋषि के उस आश्वासन के बाद मैंने दिन- रात एक करके पी.एच.डी. तक पूरा किया। इस बीच मैं अलीगढ़ जाकर प्रो. शुक्ला से मिला। आँख की हालत सुधरती देखकर उन्होंने मुझसे पूछा- भाई, तुम कौन- सी दवा ले रहे हो, किस डॉक्टर का इलाज चल रहा है? मैंने कहा- दवा लेना तो मैंने कब का छोड़ दिया है। भगवान सरीखे मेरे गुरुदेव ने मेरी आँख की जाती हुई रोशनी वापस लौटा दी है। अब मैं पढ़ाई- लिखाई ही नहीं, बारीक से बारीक काम भी बड़े मजे में कर लेता हूँ। पूज्य गुरुदेव के इस अद्भुत, अविस्मरणीय अनुदान की बात सुनकर डॉ. शुक्ला आश्चर्यचकित रह गए।
कुछ दिनों बाद जब मैं गुरुदेव के दर्शन करने शांतिकुंज आया तो वे सूक्ष्मीकरण साधना में थे। इस दौरान आचार्यश्री से सामान्यतया परिजनों का मिलना संभव नहीं रह गया था, किन्तु फिर भी वन्दनीया माता जी ने मुझ पर विशेष कृपा करते हुए मुझे पूज्य गुरुदेव से मिलने भेज दिया। उन्हें प्रणाम करने के बाद मैं कुछ कह पाता, उसके पहले ही वे बोल पड़े- कैसे हो कर्मयोगी? तुम्हारी आँख ठीक है न? मैंने कहा- गुरुदेव यह रोशनी तो आप ही की दी हुई है। मेरे ऐसा कहने पर उन्होंने अपनी छाती ठोककर कहा- हाँ, मैंने इसकी जिम्मेदारी ले रखी है। आँख की रोशनी जीवन के अन्तिम क्षण तक बनी रहेगी।
पूज्य गुरुदेव की वह बात आज भी सच साबित हो रही है। आज मैं ८० वर्ष आयु पार कर रहा हूँ, लेकिन घण्टों लिखने- पढ़ने का काम करने के बाद भी मेरी आँखें कभी नहीं थकती हैं।
प्रस्तुति :- डॉ. आर.पी. कर्मयोगी,
देव संस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार (उत्तराखण्ड)