१९८२ से मैं गुरुदेव की शरण में हूँ। मेरा पूरा परिवार ही उनके विचारों से प्रभावित है। इसलिए मेरे विवाह में दान- दहेज की कोई बात नहीं रही। दुर्भाग्य से एक साल गुजरते ही पत्नी का स्वर्गवास हो गया। ससुराल पक्ष वालों ने मेरे अंदर की पीड़ा नहीं देखी। उन्हें मुझ पर शक था। अतः उन्होंने पुलिस थाने में इस आशय की एक अर्जी दी कि सम्भव है, यह मृत्यु अस्वाभाविक रही हो।
थाने से दरोगा आए, पूछताछ हुई। फिर दिवंगत पत्नी के माता- पिता भी आए। देख- सुनकर चले गए। चूँकि हममें कोई खोट नहीं थी, एक चिकित्सक के नाते काफी लोग जानते पहचानते भी थे, इसलिए पास- पड़ोस के लोगों की बातें सुनकर आखिरकार वे संतुष्ट हो गए कि इसमें हमारा कोई दोष नहीं। केस तो खत्म हो गया। लेकिन इन घटनाओं से मैं अन्दर से टूट गया। जीने की कोई इच्छा शेष नहीं बची थी।
ऐसी विषम परिस्थितियों में पूज्य गुरुदेव के सत्साहित्य का स्वाध्याय करने से धीरे- धीरे मेरा मनोबल बढ़ता गया और जैसे- तैसे मैं अपने आप को सहज करने में काफी हद तक सफल हुआ।
कुछ ही दिनों बाद पूज्य गुरुदेव के सूक्ष्म संरक्षण से सबल होकर मैंने अपनी दिनचर्या को नियमित कर लिया। चिकित्सा कार्य के साथ ही मैंने अपना एक क्लीनिक भी खोल लिया, ताकि अधिक से अधिक व्यस्त रहा जा सके।
सन् १९९२ की बात है। उन दिनों मैं दोपहर के समय एक से पाँच बजे तक चिकित्सा कार्य से समय निकाल कर प्रत्येक दिन गायत्री परिवार का एक कार्यक्रम कर लेता था। इस तरह गुरुदेव का काम करने का संतोष भी मिल जाता और पूरे दिन व्यस्त रहने के कारण किसी प्रकार की चिन्ता भी नहीं घेर पाती।
वह शनिवार का दिन था। थोड़ा समय मिला, तो गंगा स्नान करने चला गया। कई सालों के अनाभ्यास के कारण तैरने की आदत छूट चुकी थी। इसलिए मैं सावधानीपूर्वक किनारे ही डुबकी लगा रहा था। नहाते- नहाते अचानक फिसलकर प्रवाह में आ गया। मैंने बचाव के लिए चिल्लाना और हाथ- पाँव मारना शुरू किया। मेरे एक साथी के पिता कुछ दूर तक तैर कर पीछे- पीछे आए, पर फिर लौट गए।
मैंने स्काउट की किताब में डूबने से बचाव के कुछ उपाय पढ़ रखे थे। उन्हें भी आजमाया, लेकिन सब बेकार। मन ने कहा- अब अंतिम समय आ गया। दूसरी दुनिया में जाने के लिए तैयार हो जाओ। मेरे मुँह से अचानक निकला- हे माँ। और मैं अचेत हो गया।
कुछ समय बाद चेतना लौटी, तो देखा बहुत दूर एक पुल के पास दो- तीन लड़के खेल रहे हैं। वहाँ एक नाव भी लगी है। हालाँकि वहाँ पर किसी लड़के या नाव का होना एक अप्रत्याशित बात थी।
उस अर्धचेतना की अवस्था में मुझे जो दिखा और जिस प्रकार घटित हुआ, ठीक वही लिख रहा हूँ। उस लड़के ने मेरी तरफ अपनी उँगली बढ़ाई। मैं उसकी उँगली पकड़ किनारे की ओर आने लगा। तभी नाव वाला पास आया। उसने मुझे अपनी नाव पर बिठाकर किनारे तक पहुँचा दिया।
मैं कुछ देर तक अचेत- सा होकर वहाँ पड़ा रहा। थोड़ी देर बाद सहज होने पर मैंने इधर- उधर देखा। जिसने अपनी उँगली पकड़ाकर मेरी जान बचायी थी, वह लड़का मुझे कहीं भी नजर नहीं आया। नाव वाला भी बिना किराया लिए वापस जा चुका था।
आज भी मेरा मन यही कहता है कि परम पूज्य गुरुदेव ने ही बालरूप धारण करके अपनी उँगली पकड़ाकर मुझे जीवनदान दिया था। मौके पर नाव लेकर मल्लाह का आ जाना भी उन्हीं की लीला थी।
प्रस्तुतिः अशोक कुमार तिवारी
इलाहाबाद (उ.प्र.)