अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य -1

विनम्रता से विगलित हुआ अहंकार

<<   |   <   | |   >   |   >>
        घटना १९६७ ई. की है ।। पूज्य गुरुदेव का दो दिवसीय कार्यक्रम कराया। कार्यक्रम गोण्डा, उत्तर प्रदेश में आयोजित किया गया था। आयोजक थे श्री रामबाबू माहेश्वरी। गोण्डा में सन्त पथिक जी महाराज को सभी जानते- मानते थे, इसलिए कार्यक्रम में उन्हें भी आमन्त्रित किया गया, यह सोच कर कि उनके रहने से लोगों की उपस्थिति अच्छी रहेगी।

        पहले दिन का कार्यक्रम आरम्भ हुआ। क्षेत्रीय परिजनों की दृष्टि में श्रद्धेय पथिक ही अधिक वरिष्ठ थे। इसलिए, आरम्भ परम पूज्य गुरुदेव के उद्बोधन से हुआ। मिशन से जुड़े लोगों की संख्या वहाँ बहुत कम थी। अधिकांश लोग पथिक जी के शिष्य या प्रशंसक थे। पूज्य गुरुदेव ने गायत्री और यज्ञ पर अपना विवेचन प्रस्तुत किया। उन्होंने बताया- भारतीय संस्कृति की जननी गायत्री है और जनक यज्ञ। उन्होंने विवेक, करुणा और भाव संवेदना को ऋषि परम्परा का आधार बताते हुए मानवमात्र के सर्वतोमुखी विकास के लिए इन मूल्यों को जीवन में स्थान दिए जाने की आवश्यकता पर बल दिया ।।

        इसके बाद पथिक जी का उद्बोधन आरंभ हुआ। उन्होंने कहा कि अभी तक आचार्य जी ने जो कुछ भी कहा है, वह सब सनातन धर्म को, हिन्दू धर्म को भ्रष्ट करने वाला है। गायत्री मंत्र जोर से नहीं बोला जाता है। स्त्रियों को गायत्री मंत्र जपने का अधिकार नहीं है। यह शास्त्रों के प्रतिकूल है, इससे समाज भ्रष्ट हो जाएगा। पूज्य गुरुदेव मंच पर बैठे चुपचाप सुनते रहे। सभा समाप्त हुई सभी लोग पथिक जी के विचार प्रवाह में बहते हुए अपने- अपने घर की ओर चल पड़े।

        पूज्य गुरुदेव ने विदा होने से पहले पथिक जी से बातचीत के लिए समय निर्धारित किया। अगले दिन सुबह निर्धारित समय पर श्री रामबाबू माहेश्वरी जी को साथ लेकर गुरुदेव पथिक जी से मिलने उनके निवास पर गए। पू. गुरुदेव के कहने पर माहेश्वरी जी ने वेदों- पुराणों के कुछ खण्ड अपने साथ रख लिए थे।

        पथिक जी ने पू. गुरुदेव से अपने आसन पर ही बैठने का आग्रह किया, पर गुरुदेव ने विनम्रतापूर्वक मना करते हुए कहा कि आप विरक्त हैं। मैं गृहस्थ हूँ। बराबर कैसे बैठ सकता हूँ? पूज्य गुरुदेव ने बातचीत शुरू करते हुए कहा- सनातन धर्म को भ्रष्ट करने का मेरा कोई इरादा नहीं है। हमारे पूर्वजों- ऋषियों ने जो कुछ अपने शास्त्रों, वेदों- पुराणों में कहा है, मैं वही कह रहा हूँ, एक शब्द भी मैंने अलग से नहीं कहा है।

        पू. गुरुदेव वेद के मण्डल- सूक्त संख्या, पुराणों के अध्याय धारा प्रवाह बोलते रहे और माहेश्वरी जी उसी क्रम में सब कुछ वेदों- पुराणों के पन्ने पलट कर दिखाते चले गये। अन्त में श्रद्धेय पथिक जी ने पश्चात्ताप भरे स्वर में कहा- अज्ञानता में मुझसे बड़ा भारी अपराध हुआ है। मैंने तो कल संतों से सुनी- सुनाई बातें कही थीं। मैंने शास्त्र- पुराण पढ़े ही नहीं हैं। विद्वज्जनों के शास्त्रीय विवेचन से भी मेरा वास्ता नहीं के बराबर रहा है। आपकी बातों से मुझे इसका ज्ञान हुआ है कि अब तक सामाजिक रुढ़ियों को ही मैं शास्त्र सम्मत मानता रहा। आपने अपनी बातों की पुष्टि में जिस प्रकार वेद की ऋचाओं को प्रस्तुत किया है, उसके आधार पर यह सिद्ध होता है कि आप तो वेदमूर्ति हैं।    

        अगले दिन के प्रवचन में पहले दिन से काफी अधिक संख्या में लोग आए। उस दिन पथिक जी ने सभा आरम्भ होते ही आगे बढ़कर माइक पकड़ लिया और कहने लगे- पहले मैं बोलूँगा।
        पथिक जी के इस प्रस्ताव का स्वागत लोगों ने करतल ध्वनि से किया। पथिक जी कहने लगे- कल जो कुछ मैंने कहा था, वह सब सच नहीं है। मैंने तो संतों से सुनी- सुनाई बातें ही कही थीं। आचार्यश्री ने जो भी कहा है वह सब अक्षरशः शास्त्र- सम्मत है और सभी के  लिए कल्याणकारी है।

        इस तरह बिना विवाद- शास्त्रार्थ किए विनम्रता के अमोघ अस्त्र से पूज्य गुरुदेव ने पथिक जी का हृदय जीत लिया।

प्रस्तुतिः भारत प्रसाद शुक्ला
बहराइच (उ.प्र.)

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118