अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य -1

मुँह की खानी पड़ी नाचती हुई मौत को

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        घटना वर्ष १९९७ के दिसम्बर महीने की है। उस समय मैं घोड़ासहन सीमा शुल्क इकाई (निवारण) में निरीक्षक के पद पर तैनात था। घोड़ासहन तहसील भारत नेपाल सीमा पर मोतिहारी जिला में अवस्थित है। मैं मुजफ्फरपुर सीमा शुल्क निवारण प्रमण्डल से स्थानान्तरित होकर वर्ष १९९७ फरवरी माह में घोड़ासहन गया था। हम लोगों का कार्यकाल सीमा शुल्क (इंडो नेपाल बॉर्डर) पर पाँच साल का होता है। फिर हमारी सेवा केन्द्रीय उत्पाद शुल्क विभाग को लौटा दी जाती है।

        सीमा शुल्क में मेरी सेवा का कार्यकाल १९९७ में समाप्त हो रहा था। वर्ष १९९८ में मुझे लौटकर केन्द्रीय उत्पाद शुल्क में आना था। विश्वस्त सूत्रों से मुझे ज्ञात हुआ कि मेरा स्थानान्तरण केन्द्रीय उत्पाद शुल्क, टाटानगर मुख्यालय में होने को है।

        उस समय मेरा छोटा बेटा राँची में अपने तीन दोस्तों के साथ अशोक नगर में रहकर प्लस टू की पढ़ाई डी.ए.वी.जवाहर विद्या मंदिर, श्यामली में कर रहा था। उसका स्वास्थ्य थोड़ा खराब रहता था। इसलिए मैं चाहता था कि मेरा स्थानान्तरण राँची हो जाय, ताकि मेरा पुत्र मेरे साथ रहकर पढ़ाई कर सके। इस आशय का निवेदन करने मैं अपने विभागीय मुख्यालय पटना गया।

        मैं शाम को पटना से बस पकड़कर सीतामढ़ी पहुँचा। बस के लेट हो जाने की वजह से घोड़ासहन जाने की ट्रेन छूट गई। दूसरी ट्रेन करीब बारह बजे रात में थी। मैं घोड़ासहन स्टेशन परिसर में ही ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहा था। ट्रेन करीब २ बजे रात में आई। सीतामढ़ी से घोड़ासहन का सफर २ घंटे में पूरा हुआ।

        तीन बजे के बाद मुझे झपकी आ गई और मैं बैठे- बैठे गहरी निद्रा में चला गया। घोड़ासहन स्टेशन आया। पूड़ी- सब्जी बेचने वालों और दूसरे लोगों के शोरगुल से मेरी नींद खुली। तब तक गाड़ी चल चुकी थी। मैं कच्ची नींद से जागने की वजह से थोड़ा असहज सा था।

        मेरे पास एक पतला ब्रीफकेस था। मैं चलती ट्रेन से उतर गया। पर मुझे लगा कि यह तो घोड़ासहन नहीं है। लोगों ने गलत कह दिया है। मैं फिर ट्रेन पर चढ़ गया। पर लोग कहने लगे कि ये घोड़ासहन ही है। फिर मैं ट्रेन से दूसरी बार उतरने लगा। उतरने के क्रम में एक हाथ में ब्रीफकेस होने की वजह से संतुलन बिगड़ गया, जिससे सीढ़ीवाला रॉड मेरे हाथ से छूट गया और मैं नीचे गिर गया।

        मैं चीखता हुआ पटरी पर तेजी से घूम रहे चक्के के पास जाने लगा। मुझे लगा कि अब या तो मेरी जीवन लीला समाप्त हो जाएगी अथवा मैं अपंग हो जाऊँगा। मैंने मन ही मन पूज्य गुरुदेव को याद किया और उनसे प्रार्थना करने लगा- हे गुरुदेव! मुझे बचा लीजिए।

        अगले ही पल करुणावतार गुरुदेव ने करुणा दिखाई। मुझे लगा कि मेरी पीठ पर किसी पहलवान ने बहुत जोर का प्रहार किया और मैं विपरीत दिशा में उछलता चला गया। इस आकस्मिक प्रहार से मैं क्राउलिंग करता हुआ कम से कम २० फिट की दूरी पर जाकर गिरा। लेकिन मुझे कहीं कोई गहरी चोट नहीं लगी। लुढ़कना बन्द होने के बाद मैं अपने कपड़े झाड़ता हुआ उठ खड़ा हुआ और ब्रीफकेस उठाकर घर की ओर चल पड़ा।

        उस समय मुझे यह पता नहीं चला कि मेरा घुटना एक पत्थर से टकरा गया है और उस घुटने से खून का रिसाव हो रहा है। जब मैं घर पहुँचा, तो मेरी पत्नी ने मुझे टोका कि यह खून कैसा है। सारी बातें सुनकर पत्नी की घबराहट कहीं बहुत अधिक न बढ़ जाए, यह सोचकर मैंने उन्हें सिर्फ इतना बताया कि अँधेरे में मैं एक पत्थर से टकरा गया था। ....और कोई विशेष बात नहीं है।

        आज भी मुझे जब इस घटना की याद आती है, तो मैं सिहर उठता हूँ और गुरुवर की उस अनुकंपा के स्मरण से मेरा रोम- रोम पुलकित हो उठता है।

प्रस्तुतिः जटा शंकर झा
राँची (झारखंड)

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