जब मैं पहली बार शान्तिकुञ्ज जा रहा था तो पत्नी बहुत रोई थी। उसे किसी ने कह दिया था वहाँ जाने वाले लौटते नहीं, वहीं के हो जाते हैं। उसे संदेह था- कहीं मैं संन्यासी न बन जाऊँ। मैंने समझाया- गुरुदेव स्वयं गृहस्थ हैं। वे हमेशा कहा करते हैं, गृहस्थ एक तपोवन है। सबसे बड़ी तपस्या वहीं होती है, फिर मुझे संन्यास की जरूरत ही क्या है? मैं तो केवल उनके दर्शन करने जा रहा हूँ। इस प्रकार की ढेर सारी बातें करके उसे बड़ी मुश्किल से मना पाया था।
मैं उन दिनों गायत्री परिवार से पहले- पहल जुड़ा था। गुरुदेव का सत्साहित्य पढ़ता रहा था। सन् १९८६ में जब गुरुदेव की सूक्ष्मीकरण साधना चल रही थी, उन्हीं दिनों दीवार लेखन तथा अखण्ड ज्योति वितरण का कार्य मुझे मिला। इसी वर्ष ३ फरवरी को गर्दनीबाग, पटना के नौ कुण्डीय यज्ञ में मैंने दीक्षा ली थी। उसी समय श्री चन्द्रशेखर प्रसाद जी (अब स्वर्गवासी) का सान्निध्य प्राप्त हुआ। ये गुरुदेव के समर्पित शिष्यों में से थे। इनके व्यक्तित्व से मैं काफी प्रभावित था।
एक दिन अचानक प्रसाद जी ने मुझसे कहा- आप हरिद्वार चलें। उन्हीं से मालूम हुआ- गुरुदेव ने अपनी सूक्ष्मीकरण साधना के समापन पर सभी नैष्ठिक शिष्यों को पास बुलाया है। उनके पास पत्र आया था, वे चाहते थे मैं भी साथ चलूँ। मैं तो पहले ही अखण्ड ज्योति और युग निर्माण साहित्य से इतना प्रभावित था कि इनके सूत्रधार इस युगपुरुष के दर्शनों के लिए आतुर- सा था। मैं सानन्द चलने को तैयार हो गया।
होली के बाद पटना से रवाना होना था। होली के अगले दिन घर से चला, खजूरिया चौक पहुँचकर देखा कोई यात्री वाहन नहीं चल रहा है। एक ट्रक वाले से अनुरोध किया तो उसने मुजफ्फरपुर तक पहुँचा देना स्वीकार किया। रास्ते में ड्राइवर को गायत्री मंत्र के विषय में बताया तो उसने उत्साहपूर्वक मुझसे स्टीकर लेकर गाड़ी में चिपका लिया, जबकि वह ड्राइवर मुस्लिम था।
मुजफ्फरपुर में जहाँ ट्रक से उतरा वहीं तत्काल कार वाले एक साहब ने लिफ्ट दे दी। इस तरह बिना किसी अड़चन के मैं पटना पहुँच गया। अगले दिन सुबह हम चार लोग पटना से रवाना हुए। यहाँ भी अकल्पनीय रूप से हम सभी को खाली बर्थ मिल गई, जबकि हमारा रिजर्वेशन नहीं था। मन आनंद और उमंग से भरा था। विपरीत परिस्थिति रहते हुए भी मार्ग में सर्वत्र अनुकूलता बनती चली गई। ऐसा लग रहा था जैसे गुरुदेव ने मुझे भी बुलाया हो, तभी तो रास्ते के सारे अवरोध सारी प्रतिकूलताएँ अपने आप ही दूर होती जा रही हैं।
प्रातःकाल हरिद्वार पहुँचा, और फिर मेरे सामने था बहुप्रतीक्षित अपना वह गुरुद्वारा- गायत्री तीर्थ, शांतिकुंज! कितनी पवित्र शांति! गंगा की गोद में बसा यह तीर्थ- दर्शन कर निहाल हो गया। गंगा स्नान के बाद भोजन प्रसाद लिया। अब, बस इस बात की प्रतीक्षा थी कि कब गुरुदेव के दर्शन हों।
दोपहर साढ़े बारह बजे गोष्ठी थी। यात्रा से सभी थके हुए थे, वे सोने की तैयारी कर रहे थे। मैं सोना नहीं चाहता था। भय था कहीं गहरी नींद सो जाऊँ, तो अवसर चूक सकता है। सोचा, गोष्ठी के बाद सो लूँगा। लेकिन इतनी विकल प्रतीक्षा के बावजूद रात्रि की थकान ने असर दिखाया और कब सो गया, इसका पता ही नहीं चला। अचानक ऐसा लगा कि किसी ने झकझोरकर जगाया हो- गोष्ठी में नहीं जाना क्या? मेरी नींद खुल गई, देखा आसपास कोई नहीं है, जल्दी- जल्दी हाथ- मुँह धोकर गोष्ठी में पहुँचा।
गोष्ठी के पहले घोषणा की गई- जिन्हें गुरुदेव का पत्र मिला है, वे अपना नाम दें- गुरुदेव ने माँगा है। मैं निराश हो गया- मुझे तो पत्र नहीं मिला था, द्वार तक पहुँचकर भी दर्शन से वंचित रह गया- सोचकर अंतर तक व्यथित हो उठा, आँखों में आँसू आ गए। परन्तु अगले ही क्षण फिर घोषणा हुई- यदि कोई व्यक्ति स्वयं को क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने में सक्षम समझते हैं, तो वे भी अपना नाम दें। उम्मीद जगी, मैंने अपना नाम दे दिया और इस तरह गुरुदेव के पास जाने की व्यवस्था बन गई।
गुरुदेव के सम्मुख पहुँचा तो पुरुषार्थ की उस प्रतिमा को देख कर ऐसा लगा कि ये तो स्वयं महाकाल हैं। दर्शन पाकर धन्य हो गया। उन्होंने कहा था- बेटा, मैं व्यक्ति नहीं, एक शक्ति हूँ। यह जो हाड़- मांस का पुतला देख रहे हो, यह मेरा स्थूल रूप है।
उनका निर्देश था- जीवन में स्वाध्याय और सत्संग कभी मत छोड़ना। दुनिया पेट और प्रजनन में मर खप जाती है। तुम उससे अलग हटकर रहना। गुरुदेव की प्रेरणा मुझे आज भी अपने कर्तव्य पथ पर अडिग रहने का संबल देती है।
प्रस्तुतिः मनोजित दासगुप्ता
टाटा- जमशेदपुर (झारखण्ड)