अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य -1

गुरुदेव ने मेरी दृष्टि बदल दी

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        दिसम्बर का महीना था। वातावरण में हल्की फुल्की ठण्डक थी। बाहर का वातावरण बहुत ही खुशनुमा बना हुआ था। उस खुशी की धूप हमारे परिवार में भी छाई हुई थी। हमारी अधीर प्रतीक्षा को विराम देते हुए नर्स ने आकर सूचना दी- लड़का हुआ है। हम सभी के चेहरे खुशी से खिल उठे। चूँकि बच्चा सिजरियन विधि से हो रहा था, इसलिए हम सभी चिंतित थे। नर्स के पीछे- पीछे एक हृष्ट- पुष्ट बच्चे को हाथों में लिए परिचारिका आई। उसके हाथ में बँधे नम्बर टैग को दिखाते हुए नर्स ने कहा- इस नम्बर को याद रखेंगे। अभी हम उसे आँख भर देख भी नहीं पाए थे कि परिचारिका उसे लेकर अंदर चली गई। साथ के सभी मित्र- परिजन एक दूसरे को बधाई देने लगे। किसी ने मिठाई मँगवाने की फरमाइश की। इन्कार का सवाल ही नहीं था। मैंने जेब से तत्काल रुपये निकालकर दे दिए। हृदय आनन्द से इस तरह आप्लावित था। कि कोई आसमान के तारे तोड़ लाने को कहते तो मैं उसके लिए भी चल पड़ता।

        अभी अस्पताल की बहुत सारी औपचारिकताएँ पूरी होनी थी, इसलिए बाकी लोगों को वहीं छोड़ मैं वापस आ गया। बहुत सारे काम करने थे, सभी लोगों को खबर देनी थी। मैं अपनी व्यस्तता में खो गया। जब फुर्सत मिली तो सायंकालीन संध्या वंदन का समय हो चला था। अस्ताचलगामी दिवाकर की ओर देख मैं मन- ही कृतज्ञता से भर उठा। उसी समय अचानक अस्पताल से खबर मिली बच्चे की हालत गम्भीर है। इन्क्युबेटर में रखा गया है, ऑक्सीजन दिया जा रहा है।

        मैं सकते में आ गया। सहसा विश्वास नहीं कर सका। अभी दोपहर को ही स्वस्थ बच्चा देखकर आया था। इसी बीच ऐसा कैसे हो गया। घर में (ससुराल में) लोगों को बताया तो वहाँ रोना- धोना मच गया। पर मेरे पास तो रोने का भी अवसर नहीं था। मैं भागता हुआ अस्पताल पहुँचा। वहाँ डाक्टरों ने बताया बच्चे के नाक और मुँह से पानी आ रहा है। श्वास लेने में कठिनाई हो रही है। हम हर संभव प्रयास कर रहे हैं। ईश्वर से प्रार्थना कीजिए कि हमारा प्रयास सफल हो। अभी 72 घंटे के बाद ही कुछ कहने की स्थिति बन पाएगी। चिन्तित होकर मैंने माताजी की ओर देखा। वे लोग भी चिन्तित थे। पर उन्हें अपने गुरु पर अटूट भरोसा था। माता- पिता (ससुराल के) गुरुदेव आचार्य श्रीराम शर्मा से दीक्षित थे। मेरा मनोबल बढ़ाते हुए पिताजी ने कहा- बेटा चिन्ता मत कर, गुरुदेव जो करेंगे, भले के लिए ही करेंगे।

        आज इन पंक्तियों को लिखते हुए मेरी आँखें नम हो रही हैं, पर उस रात मैं रोया नहीं था। पिताजी के कहे वे शब्द मेरे अन्तर में उतरते चले गए। गहन अंतराल में कहीं ये शब्द बार- बार बज रहे थे। इन्हीं शब्दों में डूबते- उतराते खुली आँखों में ही रात बिता दी।

        अगले दिन शाम को एक जूनियर डॉक्टर ने मुझे एकान्त में बुलाकर कहा- देखिए आप बच्चे के पिता हैं, आपको बता दूँ- यह एक हारा हुआ केस है। शायद उन्हें लगा होगा, माताजी के सामने ये बातें बताने पर वे रोने- बिलखने लगेंगी। लेकिन मैं उनके संयमित स्वभाव से परिचित था। मैंने उनको बताया कि डॉक्टर ऐसा कह रहे हैं। उन्होंने शान्त स्वर में कहा- गुरुदेव हमारे साथ हैं, हम लोग अन्त तक कोशिश करेंगे।

        शाम ६.३० बजे एक नर्स के सत्परामर्श पर हम सभी बच्चे को लेकर शिशु रोगों के लिए प्रसिद्ध फोटो पार्क नर्सिंग होम ले जाने के लिए तैयार हुए। वहाँ पहुँचने तक यथास्थिति बनी रहे, इसके लिए मैंने अस्पताल से इन्क्युबेटर देने का आग्रह किया, लेकिन वह उपलब्ध न हो सका। बच्चे को गोद में लेकर एक एम्बुलेंस में बैठ गया। इतने छोटे बच्चे को ऑक्सीजन मास्क लगाना संभव नहीं था। एक नर्स ने थिस्ल टिप के बदले कागज का टिप बनाकर ऑक्सीजन पाइप को उसमें लगाकर मुझे पकड़ाते हुए कहा- इसे बच्चे के नाक के पास पकड़े रहें।

        एम्बुलेंस तेजी से बढ़ती जा रही थी, सभी अन्य वाहन उसे रास्ता छोड़ते जाते। मैं बच्चे को एकटक निहार रहा था, कैसे निस्तब्ध सा पड़ा है मेरी गोद में...। इससे आगे मैं सोच नहीं पाता। पीछे की सीट पर माँ और पिताजी (सासू माँ और ससुर जी) बैठे थे। उनके मौन जप का क्रम निरंतर जारी था। गुरु जी के प्रति उनकी अपार श्रद्धा ही शायद मेरे बच्चे का जीवन लौटा लाए। मैंने भी आँखें मूँद लीं। ‘हे गुरुदेव, इतने छोटे बच्चे को इतना कष्ट क्यों’! मन- ही इतना कहते हुए मेरी आँखों में आँसू छलक आए; और एक बूँद टपक कर बच्चे के देह पर गिरा। यही वह क्षण था- पूरे अन्तर्मन को मथता हुआ एक विचार कौंधा, जितने अपनेपन से मैं इस बच्चे के लिए प्रार्थना कर रहा हूँ, सबके लिए प्रार्थना करते समय भी मुझमें इतना ही अपनापन होना चाहिए। इस विचार- तरंग के बाद रुलाई स्वतः बंद हो गई। मन जैसे कोई अवलंबन पाकर निश्चिन्त सा हो गया कि सबका भला- बुरा देखने वाला एक है। जो होगा अच्छा ही होगा।
   
        इन्हीं विचारों के उधेड़- बुन में एम्बुलेंस पार्क नर्सिंग होम पहुँच गई। वहाँ पहुँचते ही बच्चे को जाँच के लिए उपयुक्त कक्ष में ले जाया गया। १५ मिनट बाद हमें बताया गया कि बच्चे का एक नासाछिद्र पूरा बन्द है और एक आंशिक रूप से खुला हुआ है। नाक- मुँह से पानी बहने का यही कारण है। ठुड्डी भी छोटी है तथा फेरेञ्जियल पैरालिसिस हो गया है। जिसके कारण श्वास- नली और भोजन नली का सम्पर्क ठीक से नहीं बन पा रहा है। इसलिए बच्चा कुछ भी निगलने में असमर्थ है। दो विशिष्ट चिकित्सक डॉ० अशोक घोष (सर्जरी) और डॉ० अशोक राय (मेडिसिन) की देख- रेख में इलाज शुरू हुआ। यहाँ हाइजीनिक कारणों से बाहरी कोई वस्तु अन्दर ले जाने पर पाबन्दी थी। मैं अगले दिन गुरु देव का दिया हुआ ताबीज लेकर गया। नियम जानते हुए भी मुझसे रहा नहीं गया। बच्चे की देख−भाल करने वाली नर्स मणिमाला को बुलाकर मैंने अनुनय भरे स्वर में पूछा- आप मेरे गुरुदेव द्वारा दिए हुए इस ताबीज को मेरे बेटे के माथे से स्पर्श कराकर ला देंगी? उसने मुस्कुराते हुए ताबीज ले ली। थोड़ी देर बाद वापस करते हुए उसने कहा- वैसे मेरे हाथ से आज तक कोई केस खराब नहीं हुआ है; फिर भी आपके इच्छानुसार मैंने इस ताबीज को बच्चे के सारे शरीर में स्पर्श करा दिया है। सब कुछ करने वाले तो वही हैं, हम तो केवल प्रयास भर करते हैं।

        इसी तरह प्रतिदिन शाम को बच्चे को ताबीज का स्पर्श कराता रहा। चौथे दिन डॉ० घोष से मेरा परिचय हुआ। उन्होंने गुरु देव के विषय में भी जानना चाहा। मेरे बताने पर उन्होंने कहा- अब बच्चे को मेरे इलाज की आवश्यकता नहीं। भविष्य में कभी (४- ५ साल बाद) जरूरत पड़े तो मेरे पास अवश्य आएँ। उन्होंने अपना सेवा शुल्क (प्रति विजिट ५००/- रुपये) लेने से मना करते हुए कहा कि सर्जरी की जरूरत ही नहीं पड़ी। नाक के छिद्र स्वतः ही खुल गए।

        इसके बाद का इलाज डॉ० राय ने किया। कुल १३ दिनों तक इलाज चला। इस बीच सभी के व्यवहार में कुछ बदलाव आ गया था। वहाँ के सभी डॉक्टर और नर्सें मुझे कुछ अतिरिक्त सम्मान देने लगे थे। मैंने इसे गुरुदेव का ही सम्मान माना। अन्तिम दिन जब नर्सिंग होम से बच्चे को वापस लाने के लिए गया तो वहाँ की बहुत सारी नर्सें इकट्ठी होकर मुझसे मिलने आईं और अनुरोध किया- भाई साहब हमारे लिए कुछ कहकर जाएँ। अचानक इस प्रकार के अनुरोध से मैं स्तम्भित रह गया। फिर कुछ सँभलते हुए कहा- हम गायत्री परिवार के हैं। गुरु देव कहते हैं गायत्री की मूल शिक्षा है- सभी के लिए सद्बुद्धि की कामना। आप भी यही कामना करें। बस मैं तो इतना ही जानता हूँ।

        डॉ० राय की फीस भी वहाँ के प्रबंधन ने लेने से इनकार कर दिया। आज ११ साल बाद भी कभी बच्चे को नर्सिंग होम नहीं ले जाना पड़ा। पूर्ण अन्तःकरण से मैं यह विश्वास करता हूँ कि गुरुदेव की सूक्ष्म सत्ता हमें सदा संरक्षण देती रहती है। मैं नतमस्तक हूँ उनके इस स्नेह के प्रति।
                                         
प्रस्तुति :: अनुज चक्रवर्ती
कोलकाता (प.बंगाल)

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