अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य -1

तुम सदा रहते साथ हमारे

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        आज से करीब आठ वर्ष पहले की बात है। मैं झारखण्ड राज्य के भारतीय संस्कृति ज्ञान परीक्षा की जिला संयोजक थी। भा.सं.ज्ञा.परीक्षा सम्पादित कराने हेतु मुझे अक्सर झारखण्ड के कई जिलों का दौरा करना पड़ता था। एक बार मैं झींकपानी चाईबासा होकर वापस जमशेदपुर आ रही थी। अचानक एक जगह आकर हमारी बस रुक गई। आगे का रास्ता जाम था। बस कण्डक्टर ने बताया गाड़ी आगे नहीं जाएगी। आप लोगों को जाना हो, तो निजी वाहन, ऑटो रिक्शा आदि से जा सकते हैं। पता चला आज सरहूल है। यह इस क्षेत्र का प्रसिद्ध त्योहार है, जिसमें हजारों- हजार नर- नारी इकट्ठे होकर नाचते- गाते, खुशियाँ मनाते हैं। देखा, सड़क के दोनों ओर लगभग पाँच- सात हजार लोग अपने पारम्परिक वेश- भूषा में पंक्तिबद्ध खड़े होकर एक दूसरे की कमर पकड़कर नृत्य कर रहे हैं। सभी का शरीर एक साथ एक ताल पर आगे- पीछे, दाएँ- बाएँ झुक रहे थे।

        झारखण्ड की संस्कृति की झाँकी को प्रस्तुत करता नृत्य- उत्सव का वह अपूर्व दृश्य भी मुझे बाँध न सका। बार- बार घिरती हुए साँझ की ओर देखती और मन कहता जल्दी घर पहुँचना है। बहुत लोग बस से उतर- उतर कर पैदल ही अपने रास्ते की ओर चल दिए। बस के कर्मचारी वहीं विश्राम की तैयारी करने लगे। हमें बता दिया गया कि यह कार्यक्रम अभी तीन- चार घण्टे तक चलेगा। मजबूर होकर मुझे भी उतर जाना पड़ा।

        मुझे उस स्थान के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। लोगों से पूछताछ करने पर पता चला कि उस स्थान को हाता के नाम से जाना जाता है। मुझे किसी ने बताया जमशेदपुर जाने के लिए पश्चिम की ओर चलना होगा। इसी आधार पर मैं अपने गन्तव्य की ओर बढ़ने लगी। धीरे- धीरे अँधेरा घिर आया। सुनसान सड़क पर इक्के- दुक्के लोग ही चल रहे थे। सड़क के दोनों ओर क्या है, आगे वाले रास्ते में खाई है या खन्दक, रोड़ा है या कीचड़ यह भी नहीं दीखता। मैं अनायास कदम बढ़ाती जा रही थी। बगल की कँटीली झाड़ियों से कई बार पाँव भी जख्मी होते जा रहे थे, मगर मेरे मन में केवल एक बात आ रही थी कि समय रहते घर पहुँचना है। एक अनजाना सा भय मुझे दबाए जा रहा था। अकेली औरत, सुनसान सड़क, क्या कुछ नहीं हो सकता था। लेकिन मुझे घर पहुँचने की जल्दी थी।

        अचानक मैंने ख्याल किया कि मेरे आगे- आगे सफेद धोती पहने लम्बे कद के कोई पुरुष चल रहे हैं। उनके कमर के ऊपर का हिस्सा नहीं दीख रहा। मुझे भय भी लग रहा था मगर उन्हीं के साथ- साथ कदम मिलाती हुई पीछे- पीछे चली जा रही थी। मुझे लग रहा था आगे वाले व्यक्ति के कदम तीन- तीन फीट पर पड़ रहे हैं। पता नहीं मैं कैसे उस गति से चल रही थी। उस समय यह सब सोचने के लिए भी समय नहीं था। जैसे मेरे कदम हवा में पड़ रहे थे। कष्ट की अनुभूति भी नहीं हो रही थी। करीब आधे- पौन घण्टे तक इसी तरह चलती गई। इसके बाद शहरी इलाका दीखने लगा। दुकानों की झिलमिल रोशनी देख मन में साहस आया। इसके बाद वह व्यक्ति भी न जाने कब आँखों से ओझल हो गया।

        एक टेलीफोन बूथ पर जाकर मैंने फोन किया। घर में सूचना दी। विलम्ब होने का कारण बताया। वहीं पूछने पर पता चला उस स्थान का नाम परसूडीह है। वहाँ से ऑटो रिक्शा लेकर मैं बस स्टैण्ड गई, जहाँ से साकची की बस मिलने वाली थी।

        जब घर पहुँची और सब हाल बताया, तो सभी विस्मय से अवाक रह गए। कहा- हाता से परसूडीह तुम इतनी जल्दी पहुँची कैसे? वह तो २५- ३० किलोमीटर का रास्ता है। मुझे आगे- आगे चलने वाले उस मार्गदर्शक की याद आई। श्रद्धा से नतमस्तक हो गई मैं। गुरुदेव कई बार कहा करते थे- बेटा, तुम मेरे काम में एक कदम भर बढ़ाओ, मैं तुम्हें सफलता के रास्ते दस कदम बढ़ा दूँगा।
                    
प्रस्तुति:- सुषमा पात्रो
टाटानगर (झारखण्ड)

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