आपत्तियों में धैर्य

आपत्ति निवारण के कुछ स्वर्ण सूत्र

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विपत्ति से घबराओ मत । विपत्ति कड़वी जरूर होती है, पर याद रखो, चिरायता और नीम जैसी कड़वी चीजों से ही ताप का नाश होकर शरीर निर्मल होता है । विपत्ति से घबराओ मत विपत्ति में कभी भी निराश मत होओ । याद रखो, अन्न उपजाकर संसार को सुखी कर देने वाली जल की बूँदें काली घटा से ही बरसती हैं ।

विपत्ति असल में उन्हीं को विशेष दुःख देती है, जो उससे डरते हैं । जिनका मन दृढ़ हो, संसार की अनित्यता का अनुभव करता हो और हर बात में भगवान की दया देखकर निडर रहता हो, उसके लिए विपत्ति फूलों की सेज के समान है ।

जैसे रास्ते में दूर से पहाड़ियों को देखकर मुसाफिर घबरा उठता है कि मैं इन्हें कैसे पार करूँगा, लेकिन पास पहुँचने पर वे उतनी कठिन मालूम नहीं होती, यही हाल विपत्तियों का है । मनुष्य दूर से उन्हें देखकर घबरा उठता है और दुखी होता है, परंतु जब वे ही सिर पर आ पड़ती हैं तो धीरज रखने से थोड़ी सी पीड़ा पहुँचाकर ही नष्ट हो जाती हैं ।

जिस तरह खरादे बिना सुंदर मूर्ति नहीं बनती उसी तरह विपत्ति से गड़े बिना मनुष्य का हृदय सुंदर नहीं बनता ।

विपत्ति प्रेम की कसौटी है । विपत्ति में पड़े हुए बंधु-बाँधवों में तुम्हारा प्रेम बड़े और वह तुम्हें निरभिमान बनाकर आदर के साथ उनकी सेवा करने को मजबूर कर दे, तभी समझो कि तुम्हारा प्रेम असली है । इसी प्रकार तुम्हारे विपत्ति पड़ने पर तुम्हारे बंधु-बाँधवों और मित्रों की प्रेम-परीक्षा हो सकती है ।

काले बादलों के अँधेरे में ही बिजली की चमक छिपी रहती है, विपत्ति अर्थात दुःख के बाद सुख, निराशा के बाद आशा पतझड़ के बाद बसंत ही सृष्टि का नियम है ।

याद रहे कि जब तक सुख की एकरसता को वेदना की विषमता का गहरा आघात नहीं लगता, तब तक जीवन के यथार्थ तत्त्व का परिचय नहीं मिल सकता । विपत्ति पड़ने पर पाँच प्रकार से विचार करो-

१ -विपत्ति अपने ही कर्म का फल है इसे भोग लोगे तो तुम कर्म के एक कठिन बंधन से छूट जाओगे ।

२ -विपत्ति तुम्हारे विश्वास की कसौटी है इसमें न घबड़ाओगो तो तुम्हें भगवान की कृपा प्राप्त होगी ।

३ -विपत्ति मंगलमय भगवान का विधान है और उनका विधान कल्याणकारी ही होता है । इस विपत्ति में ही तुम्हारा कल्याण ही भरा है ।

४- विपत्ति के रूप में जो कुछ तुम्हें प्राप्त होता है, यह ऐसा ही होने को था, नई चीज कुछ भी नहीं बन रही है, भगवान का पहले से रचकर रखा हुआ ही दृश्य सामने आता है ।

५ -जिस देह को, जिस नाम को और जिस नाम तथा देह के संबंध को सच्चा मानकर तुम विपत्ति से घबराते हो, वह देह नाम और संबंध सब आरोप मात्र हैं, इस जन्म से पहले भी तुम्हारा नाम, रूप और संबंध था, परंतु आज उससे तुम्हारा कोई सरोकार नहीं है, यही हाल इसका भी है, फिर विपत्ति में घबराना तो मूर्खता ही है क्योंकि विपत्ति का अनुभव देह, नाम और इनके संबंध को लेकर ही होता है ।

जीवन के समस्त अन्य व्यापारों की तरह कठिनाइयों और आपत्तियों का आते-जाते रहना भी स्वाभाविक नियम है । उनको बुरा या भला समझना बहुत कुछ अपनी मनोवृत्ति पर निर्भर है । पर वास्तव में अधिकांश आपत्तियाँ मनुष्य को उसकी गलतियाँ बतलाने वाली होती हैं इसलिए मनुष्य का कर्तव्य है कि कैसी भी आपत्तियाँ क्यों न आवे धैर्य को कभी न छोड़े और शांत चित्त से उनके निवारण का प्रयत्न करें । ऐसा करने से आपत्तियाँ हानि करने के बजाय अंतिम परिणाम में लाभकारी ही सिद्ध होंगी ।
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