आपत्तियों में धैर्य

मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्ष्यो:

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मनुष्य की कठिनाइयाँ दो प्रकार की होती हैं- बाहरी और दूसरी आंतरिक अर्थात भीतरी । साधारण मनुष्य की दृष्टि बाहरी कठिनाइयों की ओर ही जाती है, बिरले ही मनुष्य की दृष्टि भीतरी कठिनाइयों को देखने की क्षमता रखती है । पर वास्तव में मनुष्य की सच्ची कठिनाइयाँ आंतरिक हैं, बाहरी कठिनाइयाँ आंतरिक कठिनाइयों का आरोपण मात्र हैं । किसी भी प्रकार की परिस्थिति मनुष्य को लाभ अथवा हानि पहुँचा सकती है । अनुकूल परिस्थिति बुराई का काम कर सकती है और प्रतिकूल भलाई का । जो परिस्थिति मनुष्य को भयभीत करती है, वही वास्तव में उसकी हानि करती है । यदि परिस्थिति कठिन हुईं और उससे मनुष्य भयभीत न हुआ तो वह मनुष्य की हानि न कर उसका लाभ ही करती है । मनुष्य का मन आंतरिक चिंतन से बली होता है । जिस व्यक्ति को अपने कर्त्तव्य का पूरा निश्चय है, जो उसको पूरा करने के लिए अपना सर्वस्व खोने के लिए तैयार रहता है उसे कोई भी परिस्थिति भयभीत नहीं करती । मनुष्य के मन में अपार शक्ति है । वह जितनी शक्ति की आवश्यकता अनुभव करता है उतनी शक्ति उसे अपने ही भीतर से ही मिल जाती है । जो व्यक्ति अपने आप को कर्त्तव्य दृष्टि से भारी संकटों में डालता रहता है, वह अपने भीतर अपार शक्ति की अनुभूति भी करने लगता है । उसे अपने संकटों को पार करने के लिए असाधारण शक्ति भी मिल जाती है । जैसे-जैसे उसकी इस प्रकार की आंतरिक शक्ति की अनुभूति बढ़ती है उसकी कार्यक्षमता भी बढ़ती है ।

जब कभी कोई मनुष्य अपने आप को कठिनाइयों में पड़े हुए पाता है तो उसे अपने कर्तव्य का ध्यान नहीं रहता । कर्तव्य का ध्यान न रखने पर वह बाहरी कठिनाइयों से घिर जाता है । कठिनाई में पड़े हुए व्यक्ति के कर्तव्य संबंधी विचार उलझे हुए रहते हैं । यदि किसी व्यक्ति की आंतरिक कठिनाइयों सुलझ जाएँ तो उसकी बाहरी कठिनाइयाँ भी सरलता से सुलझ जाएँगी । बाहरी और भीतरी कठिनाइयाँ एक−दूसरे की सापेक्ष हैं । मनुष्य को अपने आप का ज्ञान बाहरी कठिनाइयों से लड़ने से होता है और जैसे-जैसे उसे अधिकाधिक ज्ञान होता है, वह बाहरी कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने में भी समर्थ होता है ।

प्रत्येक कठिनाई से भय की अनुभूति करने वाले व्यक्ति के मन में मानसिक अंतर्द्वन्द की स्थिति बनी रहती है । इस अंतर्द्वन्द के कारण मनुष्य की मानसिक शक्ति का एकीकरण नहीं होता, आपस में बँटवारा होने के कारण-व्यर्थ की लड़ाई हो जाने के कारण मनुष्य का मन निर्बल हो जाता है । ऐसी अवस्था में जब कोई बाहरी भारी कठिनाई उसके सामने आ जाती है, तो वह अपनी मानसिक शक्ति को बटोर नहीं पाता और उससे भयाक्रांत हो जाता है । जिस प्रकार आंतरिक संघर्ष में उलझा रहने वाला राष्ट्र निर्बल होता है और बाहरी आपत्तियों का आवाहन करता है उसी प्रकार मानसिक अंतर्द्वंद वाले व्यक्ति जमकर बाह्य कठिनाइयों का सामना करें तो उनके आंतरिक मन में शांति प्राप्त हो जाए । निकम्मा मन ही शैतान की क्रियाशाला होता है । बाहरी कठिनाइयों के हल करने के प्रयत्न में अनेक कठिनाइयाँ अपने आप ही हल हो जाती हैं ।

साधारणत: जो काम मनुष्य के हाथ में आ जाए और जिससे न केवल अपना ही लाभ हो वरन दूसरे का भी लाभ हो उसे छोड़े न । वह काम पूरा करने के लिए जो त्याग और कष्ट सहने की आवश्यकता हो उसे सहे । यदि वह अपना अभ्यास इस तरह बना ले तो वह देखेगा कि उसे धीरे-धीरे ठोस आध्यात्मिक ज्ञान होता जोता है । जो ज्ञान मनुष्य को दार्शनिक चिंतन से नहीं आता वही ज्ञान उसे अपनी परिस्थितियों से लड़ने से आ जाता है । जो मानसिक एकता और शांति राग-भोग से नहीं आती वही कठिनाइयों से लड़ने से अपने आप आ जाती है । कठिनाइयों से लड़ते रहना न केवल अपने जीवन को सफल बनाने के लिए आवश्यक है वरन दूसरे लोगों को भी प्रोत्साहित करने के लिए आवश्यक है । जिस प्रकार मनुष्य के दुर्गुण संक्रामक होते हैं उसी प्रकार सद्गुण भी संक्रामक होते हैं । एक कायर को रण से भागते देखकर दूसरे सैनिक भी रण से भाग पड़ते हैं और एक को रण में जमकर लड़ते देखकर दूसरे व्यक्ति भी हिम्मत नहीं छोड़ते । उनके भीतर भी वीरता का भाव जाग्रत हो जाता है । सभी मनुष्यों में सभी प्रकार के दुर्गुणों और सद्गुणों की भावना रहती है । मनुष्य जिस प्रकार के वातावरण में रहता है उसमें उसी प्रकार के मानसिक गुणों का आविर्भाव होता है । वीर पुरुष का चरित्र ही दूसरे लोगों के लिए शिक्षा है । यही उसकी समाज को सबसे बड़ी देन होती है ।
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