आपत्तियों में धैर्य

आपत्तियों से डरना व्यर्थ है ?

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मनुष्य जीवन में दुःख और कठिनाइयों का बड़ा महत्त्वपूर्ण स्थान है । कठिनाइयों के आघातों में ही प्रगति का विधान छिपा हुआ है । यदि सदा केवल सरलता और अनुकूलता ही रहे तो चैतन्यता घटती जाएगी और मनुष्य शनै: शनै आलसी और अकर्मण्य बनने लगेगा, उसके मन: क्षेत्र  में एक प्रकार का अवसाद उत्पन्न हो जाएगा, जिसके कारण -उन्नति, अन्वेषण, आविष्कार और महत्त्वाकांक्षाओं का मार्ग अवरुद्ध हुए बिना न रहेगा । जब दुःख की अनुभूति न हो, तब सुख में कोई आनंद नहीं मिल सकता । रात न हो सदैव दिन ही रहे तो उस दिन से किसे क्या आनंद मिलेगा ? यदि नमक मिर्च, कडुआ, कसैला स्वाद न हो और केवल मीठा ही मीठा सदा खाने को मिले तो वह मधुरता एक भार बन जाएगी । इसी प्रकार सुख में आनंद का आस्वादन होना तभी संभव है जब दुःख का पुट साथ-साथ  में हो । दुःख को हम बुरा कहते हैं पर वस्तुतः वही प्रगति का वास्तविक केंद्र है ।
 
संसार में जितने महापुरुष हुए हैं, उनकी महानता, यश एवं प्रतिष्ठा का कारण उनकी कष्ट सहिष्णुता हुई है । राजा हरिश्चंद्र यदि चांडाल (डोम) के हाथों न बिके होते कोई उनका नाम भी न जानता होता । दधीचि, शिवि, प्रहलाद, मोरध्वज, सीता, दमयंती, द्रोपदी, कुंती आदि के जीवन में यदि कठिनाई न आती, वे लोग ऐश्वर्य से जीवन बिताते रहते तो उनकी महानता का कोई कारण शेष न रहता । दुर्गम पर्वतों पर उगने वाले वृक्ष ही विशाल आकार के और दीर्घजीवी होते हैं, जो फुलवारी नित्य सींची जाती है, वह कुछ ही दिन में मुरझाकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर देती है । जो व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र परिश्रमी और कष्ट सहिष्णु होता है वही विजय और उन्नति का वरण करता है । इतिहास बताता है कि जो जातियाँ सुखोपभोग में डूबी, वे थोड़े ही समय में हतप्रभ होकर दीनता और दासता के गर्त में गिर पड़ी ।

हमारे पूर्वज कष्ट सहिष्णुता के महान लाभों से भली प्रकार परिचित थे इसलिए उन्होंने उसके अभ्यास को जीवन व्यवस्था में प्रमुख स्थान दिया था । तितिक्षा और तपश्चर्या के कार्यक्रम के अनुसार वे दुःखों से लड़ने का वैसा ही पूर्वाभ्यास करते थे जैसे युद्ध स्थल में लड़ने से पूर्व फौजी जवान को बहुत दिन तक युद्ध कौशल की शिक्षा प्राप्त करनी होती है । राजा-रईसों के बालक भी प्राचीन काल में शिक्षा प्राप्त करने के लिए ऋषियों के गुरुकुलों में जाया करते थे और कठोर श्रमजीवी दिनचर्या को अपनाकर विद्याध्ययन करते थे । जैसे जलाशय को पार करने का अवसर मिलने पर तैराक को बड़ा उत्साह और आनंद होता है वैसे ही कष्ट सहिष्णु जीवन के अभ्यासी को नाना प्रकार की उलझनों और आपत्तियों को पार करने में अपने पौरुष का और गौरव के विकास का उत्साहवर्धक अवसर दिखाई पड़ता है । इसके विपरीत जो लोग केवल सुख ही सुख को चाहते हैं वे अति सामान्य रोजमर्रा के जीवन में आती रहने वाली घटनाओं से भी ऐसी घबराहट, चिंता, बेचैनी और पीड़ा अनुभव करते हैं मानो उनके सिर पर कोई भारी वज्र टूट पड़ा हो ।

कठिनाइयाँ हर मनुष्य के जीवन में आती हैं उनका आना अनिवार्य और आवश्यक है । प्रारब्ध कर्मों के भोग के बोझ को उतारने के ही लिए नहीं वरन मनुष्य की मनोभूमि और अंतरात्मा को सुदृढ़, तीक्ष्ण, पवित्र, प्रगतिशील, अनुभवी और विकसित करने के लिए भी कष्टों एवं आपत्तियों की भारी आवश्यकता है । जैसे भगवान मनुष्य को दया करके नाना प्रकार के उपहार दिया करते हैं ? वैसे ही वे दुःख और आपत्तियों का भी आयोजन करते हैं जिससे मनुष्य का अज्ञान, अहंकार आलस्य, अपवित्रता और व्यामोह नष्ट हो ।

कठिनाइयों आने पर हतप्रभ, किंकर्तव्यविमूढ़ या कायर हो जाना और हाथ-पैर फुलाकर रोना-झींकना शुरू कर देना, अपने को या दूसरों को कोसना सर्वथा अनुचित है । यह तो भगवान की उस महान कृपा का तिरस्कार करना हुआ । इस प्रकार तो वह कठिनाई कुछ लाभ न दे सकेगी वरन उलटे निराशा, कायरता, अवसाद, दीनता आदि का कारण बन जाएगी । कठिनाई देखकर डर जाना, प्रयत्न छोड़ बैठना, चिंता और शोक करना किसी सच्चे मनुष्य को शोभा नहीं देता । आपत्ति एक प्रकार से हमारे पुरुषार्थ की ईश्वरीय चुनौती है । जिसे स्वीकार करके ही हम प्रभु के प्रिय बन सकते हैं । अखाड़े के उस्ताद पहलवान नौसिखिए पहलवानों को कुश्ती लड़ना सिखाते हैं तो उन्हें पटक मार-मार कर दाव-पेंच सिखाते हैं । नौसिखिए लोग पटक खाकर शोक संतप्त नहीं हो जाते वरन अपनी भूल को समझकर फिर उस्ताद से लड़ते हैं और धीरे-धीरे पूरे एवं पक्के पहलवान बन जाते हैं । ईश्वर ऐसा ही उस्ताद है जो आपत्तियों की पटक मार-मार कर हमारी अनेक अपूर्णताएँ करके पूर्णता तक पहुँचाने की करता है ।

कठिनाइयों से डरने या घबराने की कोई बात नहीं, वह तो इस सृष्टि का एक उपयोगी, आवश्यक एवं सार्वभौम विधान है । उनसे न तो दुखी होने की जरूरत है, न घबराने की और न किसी पर दोषारोपण करने की । हाँ, हर आपत्ति के बाद नए साहस और नए उत्साह के साथ उस परिस्थिति से लड़ने की और प्रतिकूलता को हटाकर अनुकूलता उत्पन्न करने के लिए प्रयत्नशीलता की आवश्यकता है । यह प्रयत्न आत्मा का धर्म है, इस धर्म को छोड़ने का अर्थ अपने को अधर्मी बनाना है । प्रयत्न की महिमा अपार है । आपत्ति द्वारा जो दुःख सहना पड़ता है उसकी अपेक्षा उसे विशेष समय में विशेष रूप से प्रयत्न करने का जो स्वर्ण अवसर मिला उसका महत्त्व अधिक है । प्रयत्नशीलता ही आत्मोन्नति का प्रधान साधन है जिसे आपत्तियाँ तीव्र गति से बढ़ाती हैं ।

प्रयत्न, परिश्रम एवं कर्तव्यपालन से मनुष्य के गौरव एवं वैभव का विकास होता है । जो आनंदमय जीवन का रसास्वादन करना चाहता है उसे कठिनाइयों से निर्भय होकर अपने कर्तव्य पथ पर दृढ़तापूर्वक आरूढ़ हो जाना चाहिए और हँसते हुए हर स्थिति का मुकाबला करना चाहिए ।
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