गायत्री का पाँचवाँ अक्षर ''तु'' आपत्तियों और कठिनाइयों में धैर्य
रखने की शिक्षा देता है-
तु तृषाराणां प्रपातेऽपि यत्नों धर्मस्तु चात्मन: ।
महिमा च प्रतिष्ठा च प्रोक्ता परिश्रमस्यहि ।।
अर्थात- ''आपत्तिग्रस्त होने पर भी प्रयत्न करना आत्मा का धर्म
है । प्रयत्न की महिमा और प्रतिष्ठा अपार कही गई है ।''
मनुष्य के जीवन में विपत्तियाँ कठिनाईयाँ, विपरीत परिस्थितियाँ
हानियाँ और कष्ट की घड़ियाँ आती ही रहती हैं । जैसे कालचक्र के दो
पहलू - काल और दिन हैं, वैसे ही संपदा और विपदा, सुख और दुःख
भी जीवन रथ के दो पहिये हैं । दोनों के लिए ही मनुष्य को निस्पृह वृत्ति
से तैयार रहना चाहिए । आपत्ति में छाती पीटना और संपत्ति में इतराकर
तिरछा चलना, दोनों ही अनुचित हैं ।
आशाओं पर तुषारपात होने की, निराशा, चिंता, भय और घबराहट
उत्पन्न करने वाली स्थिति पर भी मनुष्य को अपना मस्तिष्क असंतुलित
नहीं होने देना चाहिए । धैर्य को स्थिर रखते हुए सजगता, बुद्धिमत्ता, शांति
और दूरदर्शिता के साथ कठिनाइयों को मिटाने का प्रयत्न करना चाहिए ।
जो कठिन समय में भी हँसता रहता है, जो नाटक के पात्रों की तरह जीवन
के खेल को खेलता है उसी की बुद्धि स्थिर मानी जा सकती है ।
समयानुसार बुरे दिन तो निकल जाते हैं, पर वे अनेक अनुभवों, गुण
और सहनशक्ति का उपहार दे जाते हैं । कठिनाइयाँ मनुष्य को जितना
सिखाती हैं, उतना दस गुरु मिलकर भी नहीं सिखा सकते । संचित प्रारब्ध
भोगों का बोझ भी उन आपत्तियों के साथ उतर जाता है । आपत्तियाँ हमारे
विवेक और पुरुषार्थ को चुनौती देने आती हैं, और जो उस परीक्षा में
उत्तीर्ण हो जाता है उसी के गले में कीर्ति और प्रतिष्ठा की जयमाला
पहनाई जाती है ।
इसलिए मनुष्य का कर्तव्य है कि वह भूतकाल से अभिज्ञ, वर्तमान
के प्रति सजग और भविष्य के प्रति निर्भय रहे । मनुष्य को अच्छी से
अच्छी आशा करनी चाहिए किंतु बुरी से बुरी परिस्थितियों के लिए तैयार
भी रहना चाहिए । मानसिक संतुलन संपत्ति या विपत्ति किसी भी दशा में
नहीं बिगड़ने देना चाहिए । वर्तमान की अपेक्षा उत्तम दशा में पहुँचने का
पूर्ण प्रयत्न करना तो आत्मा का स्वाभाविक धर्म है, परंतु कठिनाइयों से घबरा
जाना उसके गौरव की दृष्टि से अनुपयुक्त है ।