योग का सामान्य अर्थ होता है—जोड़ना। आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ देने की प्रक्रिया अध्यात्म भाषा में ‘योग’ कहलाती है। इसे आरम्भ करने के लिए जिन क्रिया-कलापों को अपनाना पड़ता है उन्हें ‘साधन’ कहते हैं। साधना अपने आप में एक छोटा उपकरण मात्र है। उसका महत्व इसलिए है कि वह ‘साध्य’ को प्राप्त कराने में सहायता करती है। कई लोग साधन को ही ‘साध्य’ समझ बैठते हैं और उन उपचारों को ही योग कहने लगते हैं जो साधना प्रयोजन में प्रयुक्त होते हैं।
आत्मा को परमात्मा से मिला देने के लिए कुसंस्कारों से पीछा छुड़ाना पड़ता है और ईश्वरीय प्रेरणा का अनुगमन करते हुए अपनी अन्तरंग और बहिरंग स्थिति ऐसी बनानी पड़ती है जो ब्राह्मी कहीं जा सके। दूध और पानी एकरस होने से घुल सकते हैं। लोहा और पानी का घुल सकना कठिन है। हम अपने भौतिकतावादी स्तर से ऊंचे उठें और ईश्वरीय चेतना के अनुरूप अपनी क्रिया, विचारणा एवं आस्था को ढालें तो ईश्वर प्राप्ति का जीवन लक्ष्य पूरा हो सकता है। वियोग का अन्त योग में होना चाहिए—यही ईश्वर की इच्छा है। बच्चा दिन भर खेलकूद और पढ़ने-लिखने में संलग्न रहे, पर रात को घर लौट आये और एक ही बिस्तर पर सो जाये, ऐसी माता की इच्छा रहती है। परमात्मा भी अपने पुत्र आत्मा से ऐसी ही अपेक्षा करता है। उसकी इच्छा पूर्ण करने के लिए—अपना लक्ष्य पूरा करने के लिए हमें जो चेतनात्मक पुरुषार्थ करना पड़ता है, उसी का नाम योग साधना है। योग साधना में कई प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक क्रिया कृत्य अपनाने पड़ते हैं। इनका उद्देश्य आत्म चेतना को परमात्मा चेतना से जोड़ने वाली मनःस्थिति उत्पन्न करना है। यह तथ्य ध्यान में रखकर चला जाय तो ही लक्ष्य की पूर्ति होना सम्भव है। यदि चेतनात्मक परिष्कार के लिए प्रयत्न न किया जाय और मात्र उन क्रिया-कृत्यों को ही योगाभ्यास मान लिया जाय तो उस भ्रान्ति के कारण घोर परिश्रम करते रहने पर भी कोल्हू के बैल की तरह जहां के तहां बने रहना पड़ेगा।
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योग का सामान्य अर्थ होता है—जोड़ना। आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ देने की प्रक्रिया अध्यात्म भाषा में ‘योग’ कहलाती है। इसे आरम्भ करने के लिए जिन क्रिया-कलापों को अपनाना पड़ता है उन्हें ‘साधन’ कहते हैं। साधना अपने आप में एक छोटा उपकरण मात्र है। उसका महत्व इसलिए है कि वह ‘साध्य’ को प्राप्त कराने में सहायता करती है। कई लोग साधन को ही ‘साध्य’ समझ बैठते हैं और उन उपचारों को ही योग कहने लगते हैं जो साधना प्रयोजन में प्रयुक्त होते हैं।
आत्मा को परमात्मा से मिला देने के लिए कुसंस्कारों से पीछा छुड़ाना पड़ता है और ईश्वरीय प्रेरणा का अनुगमन करते हुए अपनी अन्तरंग और बहिरंग स्थिति ऐसी बनानी पड़ती है जो ब्राह्मी कहीं जा सके। दूध और पानी एकरस होने से घुल सकते हैं। लोहा और पानी का घुल सकना कठिन है। हम अपने भौतिकतावादी स्तर से ऊंचे उठें और ईश्वरीय चेतना के अनुरूप अपनी क्रिया, विचारणा एवं आस्था को ढालें तो ईश्वर प्राप्ति का जीवन लक्ष्य पूरा हो सकता है। वियोग का अन्त योग में होना चाहिए—यही ईश्वर की इच्छा है। बच्चा दिन भर खेलकूद और पढ़ने-लिखने में संलग्न रहे, पर